देश के विभिन्न हिस्सों से लाखों कलाकार अभिनेता बनने के लिए मनोरंजन उद्योग में प्रवेश करने की इच्छा रखते हैं। उनमें से कुछ को तो मौका मिल जाता है जबकि अधिकतर लोग इस उद्योग में आकर खो जाते है और कुछ लोग इस चाहत को ही समाप्त कर अन्य कामों मे लग जाते है। इसे एक युवा कास्टिंग डायरैक्टर मनोज रमोला से बेहतर और कौन जान सकता है ? वैसे भारतीय फिल्म और टेलीविजन उद्योग में कास्टिंग की प्रक्रिया हमेशा से अस्पष्ट व विवाद का बिन्दु रहा है। मनोज की पृष्ठ भूमि के बारे में बात करें तो उन्हें तो इस लाइन का जरा-सा भी अनुभव न था और न मुंबई में कोई ठौर-ठिकाना, किसी गाॅडफादर की सहायता के बिना ही न केवल अपने लिए जगह बनाने में सफल हुए, बल्कि एक सम्मानजनक मुकाम भी हासिल करने में कामयाब हुए। मनोज रमोला पिछले दिनों नैनीताल आये तो हमारे पाठकों के लिए उनकी प्रेरक-शक्ति, संघर्ष गाथा, उपलब्धियों तथा भावी योजनाओं को लेकर बसंत पांडे ने लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है उसी भेंटवार्ता के चुनिंदा अंश-
बसंत-रमोला जी, सबसे पहले तो हम यह जानना चाहेंगे कि आपका मुंबइया फिल्म नगरी की ओर रुझान कैसे हुआ?
मनोज-मैं पहाड(उत्तराखण्ड)़ के एक छोटे से गांव में पैदा हुआ और वहीं पर मैंने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। आगे की पढ़ाई के लिए मुझे नैनीताल जिले की तराई में आना पड़ा। इसी दौर में स्कूल-काॅलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों और रामलीलाओं में भाग लिया। इसी क्रम में कुछ कुमांऊँनी फिल्मों में अभिनय भी करने का मौका मिला। बस, यहीं से दिमाग में इस क्षेत्र को कैरियर बनाने का फैसला कर लिया।
बसंत-तो इसमें आपको घरवालों से भी सहयोग मिला?
मनोज-जी, हाॅ हांलाकी शुरू में वे जरा भी सहमत नहीं थे क्योंकि घर से बाहर इतनी दूर मुंबई में अपना कोई सहारा या संपर्क सूत्र नहीं था तो उनका मेरे भविष्य और सफलता को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक भी था। लेकिन मेरी जिद और भावनाओं को देखते हुए अंतः परिवार को बेमन से मेरी बात मननी पड़ी।
बसंत-जैसा कि आपने बताया कि मुंबई में कोई संपर्क सूत्र नहीं था तो फिर वहां पर शुरुआती दौर कैसा गुजरा?
मनोज-मैंने मुंबई जाने से पहले ही विभिन्न स्रोतों से जो भी आधी अधुरी जानकारी इकट्ठा की थी, उसी के सहारे 2007 में आशा चंद्रा के स्कूल पहुंच गया। वहां एडमिशन लेने पर पता चला कि मैं कुछ भी नहीं जानता। यहां तक कि मेरा हिंदी उच्चारण तक सही नहीं था। फिर वहां रहते हुए तीन महीनों में जो सीखा-किया बाजार में उसका कोई मतलब नहीं था। फिर अलग कमरा लेकर मुंबई की सड़कों पर खूब दौड़ लगाई। नतीजतन कुछ काम मिला, जो मुंबई के खर्चों के लिए ऊँट के मुंह में जीरा भी नहीं था। सब कुछ पिताजी की फौज की नौकरी वाले पैसों पर ही निर्भर था। इससे भीतर ही भीतर खुद से लड़ना जारी रहा लेकिन तमाम तरह के संकटों के बावजूद असफल होकर वापस लौटने का विचार एक बार भी मन में नहीं आया। जबकि अनेक साथी घरों को लौट चुके थे या उन्होंने दूसरे धंधों में किस्मत आजमानी शुरू कर दी थी।
बसंत-यानी मंजिल अभी दूर थी?
मनोज-उस तक जाने का तो कहीं कोई रास्ता ही नहीं दिखाई दे रहा था।
बसंत-फिर शुरुआत कैसे हुई?
मनोज-चूंकि जिद थी कि हर हाल में कामयाब होना ही है चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े, तो शुरुआती दौर में एक्ंिटग, डबिंग, असिस्टेंट डाइरैक्टर, प्रोडशन असिस्टेंट आदि का जो भी काम मिला, करता गया। इससे कुछ लोगों से जान-पहचान बढ़ी और काम का सूखा खत्म हुआ। फिर भी मुंबई की मायानगरी में टिके रहने और लक्ष्य-प्राप्ति में इससे मदद नहीं मिल रही थी। हालांकि इस दौरान कभी शाहरुख खान की एक फिल्म में प्रोडशन असिस्टेंट तो कभी एकता कपूर के एक प्रसिद्ध सीरियल में अभिनय का मौका मिला। फिर एक ठीक-ठाक फिल्म मिली लेकिन वह आज तक डिब्बे में बंद है। इसके बाद एक अन्य फिल्म में काम किया जिसके प्रोड््यूसर और डाइरैक्टर के आपसी विवादों में फँसकर वह भी बीच मँझदार अटक कर रह गई। अब मुंबई में टिका रहना बेहद मुष्किल ही नहीं, बल्कि भीतर से टूटने का खतरा भी था। घर से पैसे मंगवाने पर पिताजी ने कहीं से कर्जा लेकर कुछ पैसे आखिरी मदद के तौर पर भेज दिये। इसी दौरान फिल्म के महत्वपूर्ण अंग कास्टिंग को जानने का मौका मिला, जिसने मुझे बहुत आकर्षित किया और एहसास हुआ कि यही वह क्षेत्र है जिसमें में अपना शतप्रतिशत दे सकता हुॅ और यही वो क्षेत्र है जिसकी अब तक तलाश थी। आखिरकार कलर्स चैनल के टीवी सिरियल छल (शह और मात) से बतौर असिस्टेंट कास्टिंग डाइरैक्टर शुरुआत हुई। इसके बाद एंडमाॅल, प्ले टाइम, राउडी रास्कल, विनियार्ड फिल्म्स, बियाॅन्ड ड्रीम्स और कीलाइट जैसे कई बड़े प्रोडशन हाउसेज के साथ प्रसिद्ध टीवी सीरियल सावधान इंडिया, क्राइम पेट्रोल, वारिस, मैं ना भूलूंगी आदि में बतौर कास्टिंग डायरैक्टर काम करने के मौके मिले। इसी दौरान केश किंग हेअर आॅइल, माइक्रोटैक इन्वर्टर, लवली स्वीट्स और नमस्ते इंडिया मिल्क जैसे बड़े ब्राॅन्ड्स के अलावा कुछ फिल्मों में भी बतौर कास्टिंग डाइरैक्टर के रूप में काम करने का मौका मिला।
बसंत- “कास्टिंग काउच” के बारे में आपका की क्या राय है?
मनोज-पहली बात तो यह कि 90 प्रतिशत लोग कास्टिंग के बारे में जानते ही नहीं हैं। यहाँ तक कि बॉलीवुड के भी कई लोगों को इसके बारे में कुछ खास जानकारी नहीं है। फिल्म उद्योग में होने वाले किसी भी तरह के शोषण को कास्टिंग काउच से जोड दिया जाता है मिडिया की अधुरी जानकारी भी आग में घी का काम करती है। जबकि कास्टिंग और कास्टिंग काउच का सीधा-सीधा सम्बन्ध नही है। मेरा मनना है कि सही जानकारी का अभाव इसका मुख्य कारण है। फिल्म उद्योग में आने से पहले कास्टिंग प्रोसेस की सही जानकारी हांसिल कर लेना इस तरह के शोषण से आप को बचा सकता है।
बसंत-इतने समय में आपको इस लाइन का अच्छा अनुभव हो गया है क्या इसे विस्तार देने के लिए आपने कुछ प्रयास किये?
मनोज-जी हां बिल्कुल, मैंने देखा कि भारत में प्रतिभाओं को सही मार्गदर्शन नहीं मिल पा रहा है। तो मेरे मन में इस विषय पर एक किताब लिखने का विचार आया। एक लम्बे सोध के बाद साल 2015 में मैने आॅडिशन रूम नामक हिंदी और अंग्रेजी में दो अलग-अलग किताबें लिखीं। इनका विमोचन दिग्गज अभिनेता स्व. ओमपुरी जी ने मुम्बई में किया।
बसंत – इस किताब के लिखने के बाद बॉलीवुड और ऑडिशन में आप किस तरह के बदलाव की उम्मीद करते हैं?
मनोज – मैं आशा करता हूँ कि लोग चीजों को अच्छी तरह से समझेंगे। मैं एक कलाकार और फिल्मेकर के बीच सीढ़ी की तरह हूँ। मैं मानता हूँ कि वास्तव में कुछ ऐसे कलाकार भी होते हैं जो ऑडिशन की तकनीक की जानकारी नहीं होने की वजह से फेल हो जाते हैं। एक अच्छा कलाकार बनने के लिए सुंदर दिखना जरूरी नहीं है। जब मैं ऑडिशन लेने जाता हूँ, तो लोग काम देने की गारंटी मांगते हैं जो कि मैं कभी भी नहीं दे सकता। इसलिए मैं बदले में किसी चीज की इच्छा भी नहीं रख सकता। यदि आप काबिल हैं तो आपका चयन जरूर होगा। अगर ये सभी बातें लोग समझेंगे तो सच्ची प्रतिभा सामने जरूर आएगी।
बसंत-ये तो रहा किताबों के जरिये फिल्म या टीवी की दुनिया की जानकारी हासिल करने का मामला लेकिन क्या आपने न्यू कमर्स की सहायता की भी कोई योजना बनाई है?
मनोज-हां, मैंने पिछले साल मुंबई में ‘आॅडिशन स्कूल’ नामक एक एक्टिंग स्कूल की स्थापना की है। जिसमें अभिनय के अलावा आॅडिशन की भी बारीकियां बताई जाती हैं। इसी क्रम में यहां लीना यादव, अविनाश दास, अरुणा राजे, राखी सांडिल्य आदि जैसी फिल्मी जगत की मशहूर हस्तियों द्वारा फिल्म मेकिंग की विभिन्न विधाओं की जानकारी साझा की जाती रही हैं।
बसंत-आपकी भावी योजनाएं क्या हैं?
मनोज-मैं विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिभाओं के स्किल डेवलैपमेंट के लिए जगह-जगह जाकर एक-दो दिन की वर्कशाॅप का आयोजन कर उन्हें आॅडिशन व कास्ं्टिग की निःशुल्क जानकारी देता हूं। ताकि जानकारी के अभाव में किसी भी कलाकार का शोषण न हो सके।
बसन्त- उत्तराखण्ड में फिल्म उद्योग की सम्भावना के बारे में आप क्या सोचते है?
मनोज – मेरा मनना है कि उत्तराखण्ड प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टी से समृद्ध है। यहां की लोकशन बहुत अच्छी हंै, परन्तु यहां पर बाॅलीबुड की फिल्म या टीवी की शुटिंग से यहां के लोगों का कोई खास फायदा होने वाला नहीं है। अगर उत्तराखण्ड को फिल्म दुनिया से लाभ उठाना है तो यहां फिल्म उद्योग से सम्बन्धित कौशल को सीखना होगा। कोई भी फिल्म निर्माता शुिटंग के लिए आता है तो उसे मुख्य अभिनेता के साथ पूरी टीम लेकर आना पड़ता है जिससे उसका फिल्म या टीवी का बजट बढ़ जाता है। यहां के कलाकारों को फिल्म जगत की विभिन्न विधाएं जैसे साउन डिपाटमेंट, कैमरा डिपार्टमेंट, लाइन प्रोडेक्सन डिपाटमेंन्ट, प्रोडेक्सन डिपाटमेंट व एक्टिंग डिपार्टमेन्ट, एडिटिंग डिपार्टमेंट आदि की बारीकियो की जानकारी यहां के युवाओं को होंगी तो फिल्म निर्माता को भी लाभ होगा। उसे अपने साथ बहुत छोटी टीम ही लानी पड़ेगी । इसके लिए ये सब बारीकियां यहां के लोगों के पास होंगी तो उत्तराखण्ड को फिल्म हब बनने मंे देरी नहीं लगेगी । अधिक फिल्मों की शुटिंग होने से स्थानीय कलाकारों को मौका मिलेगा जिससे वे बडा सितारे बनकर उभरेंगे और राज्य का नाम चारों ओर फैलेगा। इससे पर्यटन को बढावा मिलेगा और पर्यटन बड़ने से स्थानीय नागरिकों को नये रोजगार मिल पायेंगे।