दिवा भट्ट
होली रंग है, रंगीन है, रंगत है। होली गीत है, संगीत है, संगत है। संगत; सुर और ताल की, गायक और संगतकार की, राग और रंग की, मित्रों- संबंधियों की, अपनों-परायों की, शत्रु और मित्र की, स्त्री और पुरुष की ।
उत्तराखंड के पहाड़ों में होली एक दिन की नहीं होती। इस त्यौहार का पूरा एक मौसम आता है। यहां होली हवा में बहती है, आकाश में उड़ती है, धरती में बिछती है, वनों में खिलती है, खेतों में हंसती है, रास्तों में थिरकती है और आंगनों में ठुमकती है। होली होठों में गुनगुनाती है, कानों में गूंजती है, माथे पर झिलमिलाती है, गालों पर गमकती है और चाल में इठलाती है। होली भारतीय समाज के दिलों की उमंग है, संस्कृति का सबसे चमकीला एक रंग है; जो गीत- संगीत, हास-परिहास और रंगों के मिश्रण से मन की गांठें खोलकर लोगों को एक- दूसरे के नजदीक ले आता है।
इस समय सब कुछ इतनी तेजी से बदल रहा है तो होली उससे प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकती है? सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का सबसे मुखर त्यौहार होली का स्वरूप भी बदलने लगा है। इस परिवर्तन को कोई ह््रास कह रहा है तो कोई विकास। परिवर्तन की गति देखकर लगता है जैसे कोई इसे पीछे से धक्का दे रहा है। इससे आर्थिक और राजनीतिक तत्व भले ही ह््रष्टपुष्ट हो रहे हैं, लेकिन संस्कृति का अपना चेहरा इस तरह बदल रहा है कि उसे पहचानना मुश्किल होता जा रहा है। समाज और उसके भूगोल के अनुरूप सांस्कृतिक वैविध्य और वैशिष्ट्य की जड़ें भीतर से हिलती हुई प्रतीत हो रही हैं। एक बदलाव को हम जानें, पहचानें; तब तक कोई नया बदलाव सामने आकर उसे पीछे धकेल देता है। ऐसा लगता है मानो संस्कृति फास्ट फॉरवर्डिंग धुन में बजती हुई दौड़ी चली जा रही है।
हमारी संस्कृति की प्रमुख वाहक और संरक्षक स्त्रियां रही हैं। इस बदलती हुई संस्कृति को उनका भी भरपूर सहयोग मिल रहा है। वह होली के बदलते स्वरूप में भी दिखाई दे रहा है। पीछे मुड़कर देखने पर पांच-छः दशकों की होली के कुछ धुंधले दृश्य सामने आने लगते हैं।
उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में 20वीं सदी के अंत तक होली का जो रूप प्रचलित था; वह 21वीं सदी के दो- ढाई दशक बीतने तक अपना रूप बदल चुका है; जो सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन का द्योतक है। गांवों में पहले से स्त्रियों और पुरुषों की होली अलग-अलग होती थी। बैठकी होली में दिन या रात में पुरुष शास्त्रीय धुनों में होली गीत गाते थे, महिलाएं श्रोता होती थीं। आम्लकी एकादशी से फाल्गुनी पूर्णमासी तक दिन के समय पुरुषों की टोली गांव में घूम-घूम कर प्रत्येक घर के आंगन में ढोल- नगारों और ढोलकी के साथ बैठी और खड़ी होली का गायन नर्तन करती थी। गांव के जिस हिस्से में पुरुषों की होली जाती, वहां की स्त्रियां उनके लिए चाय, पानी, शरबत, आलू ,सोंफ- सुपारी और गुड़ इत्यादि तैयार रखती थीं तथा घर के पुरुष होली गायक होल्यारों को ये सब पदार्थ बांटते थे। कई बार भाभियां घर की खिड़कियों -छज्जों से छैला देवरों पर रंग और पानी भी छलका देती थीं । जिस हिस्से के पुरुष होली में जाते थे; उनकी अनुपस्थिति में वहां की स्त्रियां एकत्र होकर मुक्त कंठ से होली गीत गातीं तथा झोड़ा, छपेली, होली और एकल नृत्य करती थीं। स्वांग करके पुरुषों का अभिनय भी करतीं। श्वसुर- जेठ आदि उन पुरुषों की भी नकल उतारतीं, जिनके सामने उन्हें घूंघट हटाने या मुंह से आवाज निकालने की भी हिम्मत नहीं होती थी। उनकी अनुपस्थिति में सामाजिक रूढ़ियों और मान्यताओं के बंधनों से मुक्त होकर खुले दिल से गाती, हँसती, अट्टहास करतीं वे अपना पूर्ण मनोरंजन करती थीं। उस दिन उनकी कलात्मक प्रतिभा पूर्णिमा की चांदनी की तरह खिलखिला उठती। एक दिन के इन कुछ घंटों में वे अपने समस्त रिश्तों, जिम्मेदारियों तकलीफों और बंधनों को भूलकर केवल अपने लिए जीती थीं और हल्की-फुल्की होकर दोगुने उत्साह के साथ पुनः अपने गृह कार्यों में जुट जाती थीं। होली के दिनों में कृषि कार्य गौण हो जाता था. गायों के लिए सुबह-शाम घास काट कर रख ली जाती.
होली का एक दूसरा प्रभाव भी होता था। होली के राग- रंग के उन्मुक्त वातावरण में अक्सर मदिरा प्रेमियों को मदिरापान की और छलिया- छैलाओं को महिलाओं पर छींटाकशी करने अथवा गालियों का प्रयोग करते हुए अभद्र भाषा में कुछ भी बोलने की अघोषित छूट मिल जाती है। ऐसे छैलाओं से बचने के लिए प्राय महिलाएं अकेले इधर-उधर आने-जाने या उनके सामने पड़ने से बचती रहतीं। एक अतिरिक्त भय-आतंक या सतर्कता का एहसास भी बना रहता।
महिलाओं की होली धीरे-धीरे घरों की बैठकों तक सिमटने लगी; विशेष रूप से शहरों और कस्बों में। किसी एक के घर के अंदर या आंगन में बैठकर होली गाने, नृत्य करने और अबीर- गुलाल लगाने का रिवाज शहरों और कस्बों से होता हुआ गांवों तक भी पहुंच रहा है। होली के गीत, नृत्य और महिलाओं के शृंगार पर हिंदी सिनेमा और टेलीविजन के धारावाहिकों का प्रभाव हावी है। महिला होली की प्रतियोगिताएं आयोजित होने के कारण भी होली का रूप बदलता गया है। शुरुआत में एक शहर में विभिन्न मोहल्लों के होली दलों की प्रतियोगिताएं आरंभ हुईं। उसके बाद अल्मोड़ा में कुमाऊं के विभिन्न नगरों और कस्बों के होली दलों की प्रतियोगिताएं होने लगीं। यह आयोजन एक, दो या कभी-कभी तीन दिनों का भी होता है। इसमें महिलाएं फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता की तरह भिन्न-भिन्न तरह की वेशभूषा में होली का के गीत गाती हुई पूरे नगर में सांस्कृतिक जुलूस निकालती हैं। उसके बाद नगर के एक प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र के प्रांगण में होली की प्रतियोगिताएं प्रदर्शित होती हैं। प्रदर्शन देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ आती है। बच्चे, युवा, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी इसमें काफी रुचि लेते हैं। निर्णायकों, प्रायोजकों और विशिष्ट अतिथियों में पुरुषों की संख्या भी काफी अधिक होती है। मंच पर प्रदर्शित कार्यक्रम में प्रत्येक होली दल को एक निर्धारित समय सीमा के अंदर एक-एक होली गीत, नृत्य और स्वांग का प्रदर्शन करना होता है। निर्णायक उनकी वेशभूषा, गीत- संगीत, नृत्य तथा अभिनय इत्यादि के मानकों के आधार पर मूल्यांकन करके उन्हें प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय श्रेणी प्रदान करते हैं। उसके बाद आयोजकों और अतिथियों द्वारा उन्हें पारितोषिक दिए जाते हैं। उनके आवागमन, निवास, भोजन तथा अन्य व्यवस्थाओं के लिए धन की आवश्यकता होती है; जिसके लिए आपस में, अन्य व्यक्तियों अथवा व्यापारियों से चंदा एकत्रित करने के साथ-साथ सरकार से तथा जनप्रतिनिधियों से भी आर्थिक सहयोग मांगा जाता है। छोटे-बड़े अनेक नगरों में इस प्रकार के आयोजन लोकप्रिय होरहे हैं. इन प्रतियोगिताओं का सीधा प्रभाव यह दिखाई दिया है कि जो महिलाएं पहले से पुरुषों के सामने खुले मुंह से आने में और परिवार के सामने भी गीत गाने या नृत्य करने में संकोच अनुभव करती थीं; वे अब सार्वजनिक रूप से सबके सामने खुलकर अपने गीत, नृत्य व अभिनय का प्रदर्शन करती हैं। कुमाऊँ की क्षेत्रीय होलियों से प्रारंभ होकर अब इन मचों पर ब्रज, अवध, राजस्थान आदि अन्य प्रदेशों की ही नहीं, नेपाल की तथा पौराणिक आख्यानों पर आधारित कृष्ण-राधा के साथ-साथ रति और कामदेव की भंगिमाएँ भी प्रदर्षित हो रही हैं. अनेक नगरों में ख्यातिप्राप्त कलाकारों के मंचीय होली-गायन -नर्तन के आयोजनों में भी महिलाओं की पूरी भागीदारी रहती है. घरों की होली-बैठकें दस्तूर बनती जारही हैं. लोक से मंच पर पहुंची कला पूरे समाज की सामूहिक सहभागिता से वंचित होकर कुछ विशेष व्यक्तियों तक सीमित होती जारही है।
होली में प्रायः सफेद वस्त्र धारण करने की प्रथा रही है। श्वेत वस्त्रों पर लाल- गुलाबी- हरे- पीले रंगों के छिड़काव किए जाते हैं तो होली का उल्लास बोलने लगता है। होली के ये वस्त्र पूरे साल नहीं पहने जाते। ये प्रत्येक वर्ष इन्ही दिनों बाहर निकलते हैं। इन्हें सालोंसाल संभाल कर पहनने की परंपरा थी, लेकिन बिल्कुल एक -सा गणवेश होना अनिवार्य नहीं था। हर वर्ष होली के नए कपड़े बनाना भी आवश्यक नहीं था। अब विशेष रूप से महिलाओं में प्रत्येक वर्ष नये कपड़े बनाने का चलन होगया है। हर साल बाजार में लटकते नये नमूनों के वस्त्र और किसिम-किसिम के चमकीले- भड़कीले बनावटी आभूषण महिलाओं को अत्यधिक ललचाते हैं।
पहले से महिलाएं अपनी रुचि और स्मृति के आधार पर मनचाहे होली गीत गाती- नाचती थीं। इस बात की कोई परवाह नहीं होती थी कि लोग देख रहे हैं, इसका मूल्यांकन होगा या मेरा ही गीत सबसे अच्छा हो, मुझे ही पारितोषिक अथवा श्रेष्ठ स्थान मिले। प्रतिस्पर्धात्मक भावना नहीं पनपती थी। इसलिए भीतर से उमड़ते कोई भी गीत, कोई भी नृत्य अनायास प्रस्फटित या साग्रह किसी भी रूप में प्रदर्शित हो जाता था। आनंद अभिव्यक्ति का था, उत्तम या मध्यम का नहीं. उसका उत्फुल्ल आनंद अपनेआप में पूर्ण होता था। प्रतियोगिताओं में ऐसी मुक्त अभिव्यक्तियां बाधित होती हैं। प्रदर्शन को लेकर सतत सतर्क रहना होता है। अपने-अपने कला कौशल के आधार पर किसी भी प्रकार के गायन- नर्तन अथवा अभिनय से मिलने वाले निर्मल आनंद के स्थान पर उत्तम या मध्यम प्रदर्शन मन को लघुता या गुरुता का बोध कचोटने लगता है। प्रतिस्पर्धा का यह भाव कई बार राग-द्वेश और वैमनस्य का भाव भी जगाने लगता है। नियंत्रित-निर्धारित वेशभूषा आदि से प्रस्तुतिकरण आकर्षक तो हो जाता है, लेकिन इससे मुक्त उल्लास का पर्व सहजता के स्थान पर कृत्रिमता के बोझ में दब जाता है। शहरों की होलियों में अब खाने-पीने के स्टॉल भी लगाए जाते हैं। मेले जैसे इन आयोजनों में लोगों का ध्यान अक्सर खाने-पीने- घूमने आदि तक सीमित हो जाता है, सांस्कृतिक पक्ष गौण हो जाता है। होली के इस बदलते स्वरुप से पारिवारिक बजट भी प्रभावित होरहा है, जिससे आर्थिक बोझ बढ़ रहा है। अब तो हरेक के हाथ के मोबाइल फोन में वीडियो कैमरा भी है। हर व्यक्ति फोटोग्राफर है। हर गतिविधि सोशल मीडिया में प्रसारित हो रही है। होली जैसे सांस्कृतिक समारोह भी सोशल मीडिया में दिखाने की चीज होगए हैं। महिलाएं इसमें आगे रहना चाहती हैं तो उनकी होली इससे मुक्त कैसे रह सकती है?