पिछले कुछ वर्षों में पहाड़ों में कीड़ाजड़ी की काफी चर्चा हुई है। उच्च हिमालय के कतिपय ग्रामीण इलाकों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने में इसने अहम् भूमिका निभाई है। हिमालयी ‘गोल्ड’ या हिमालयन ‘विआग्रा’ जैसे विशेषणों से नवाजी गई इस वनौपज ने स्थानीय समुदाय से लेकर, तस्करों, अंतर्राष्ट्रीय व्यापारियों, वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों को अपने-अपने तरीके से आकर्षित किया है। हाल के वर्षों में इस अद्भुद उच्च हिमालयी वनोत्पाद ने ग्रामीण आर्थिकी को द्विगुणित करने की सम्भावना प्रदर्शित करते हुए स्थानीय समुदाय को इसके दोहन की ओर तेजी से आकृष्ट किया है। अक्सर कीड़ाजड़ी एकत्र करने के लिए जाने वाली धारचूला की एक ग्रामीण महिला अपना अनुभव साझा करते हुये कहती है कि कीड़ाजड़ी ने उस जैसे कई लोगों की आर्थिक स्थिति को बड़ी सीमा तक बदला है। घर में खेती से तो कड़ी मेहनत के बाद भी साल भर के लिए पूरा नहीं होता था। कीड़ाजड़ी में दो महीने की मेहनत से वो पूरे साल के लिए कमा लेती हैं। वह इस कमाई से संतुष्ट है और ठीक से अपना घर चला ले रही है। मई-जून के महीने में तो सारा गाँव कीड़ाजड़ी निकालने चला जाता है,यहाँ तक कि स्कूल भी विद्यार्थियों के न होने से बंद हो जाते हैं। गाँव में केवल बूढ़े और छोटे बच्चे ही रह जाते हैं। अब तो मैदान में बस गए लोग भी दो-एक महीने के लिए घर आने लगे हैं। उन इलाकों में जहाँ कीड़ाजड़ी का व्यापार होता है, घरों में आधुनिक सुविधाओं को सहजता से देखा जा सकता है।
आमतौर पर कीड़ाजड़ी को चीनी औषधि समझा जाता है। दरअसल यह मूलतः तिब्बती समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। तिब्बती चिकित्सा एवं पाकशास्त्र में इसके उपयोग का काफी पुराना इतिहास मिलता है। पंद्रहवी सदी में तिब्बती ग्रंथों में इसका पहली बार उल्लेख चिकित्सक ज्युखर न्यामनी दोरजी के समय से मिलता है। गावा दोरजी इसको और भी पुराना बताते हैं। उनके अनुसार आठवीं सदी के तिब्बती अभिलेखों में ‘सा-दाजी’ के नाम से उल्लिखित वस्तु दरअसल कीड़ाजड़ी ही है। आज यह दुनिया में एक बार फिर इसकी माँग तेजी से बढ़ी है।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में न्युट्रालीन बायो रिसोर्स, लुब्रिजौल कारपोरेशन, कुआन सनकेयर इंक, शंघाई कान्स्हू फंजाई एक्सट्रेक्ट जैसी अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कीड़ाजड़ी का कारोबार कर रही हैं, और इस महत्वपूर्ण संसाधन पर उनकी लगातार नजर बनी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक़ 2016 में ओफियोकॉर्डिसेप्स साइनेंसिस का अंतर्राष्ट्रीय बाजार 6.37 बिलियन अमरीकी डालर आंका गया था जिसकी वार्षिक वृद्धि दर 2018 से 2028 के बीच 5.3 प्रतिशत रहने की संभावना जताई जा रही है।
उत्तराखंड में कीड़ाजड़ी की स्थिति क्या है इसको लेकर मैंने इसके विशेषज्ञ प्रो. चन्द्र सिंह नेगी से विस्तार से चर्चा की। प्रो. नेगी पिछले दो दशकों से कीड़ाजड़ी (ओफियोकॉर्डिसेप्स साइनेंसिस) और उच्च हिमालयी पारिस्थितिकी पर गहन शोध कर रहे हैं और वर्तमान में मोतीराम बाबूराम स्नातकोत्तर महाविद्यालय में जीवविज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष हैं। उनके ये अध्ययन अनेक प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। उत्तराखंड में मिलने वाले कॉर्डिसेप्स की अनेक प्रजातियों को वो पहली बार वैज्ञानिकों के सामने लाये हैं। आइए प्रो. नेगी से ही जानते है कीड़ाजड़ी के बारे में।
डा. नेगी आप लम्बे समय से कीड़ाजड़ी पर शोध कर रहे है, ये कीड़ाजड़ी क्या चीज है कुछ बताइए?
विज्ञान की भाषा में कीड़ाजड़ी कॉर्डिसेप्स साइनेंसिस (बर्क) कहलाती है। यह लातिनी भाषा का शब्द है। जी.एच. सुंग आदि वैज्ञानिकों ने कॉर्डिसेप्स साइनेंसिस की ‘कॉर्ड’ अर्थात ‘क्लब’, सेप्स याने ‘हेड’ और साईनेंसिस की ‘चाइनीज’ या ‘चीनी’ के रूप में व्याख्या की है। इस मशरूम को ‘कैटरपिलर फंगस’ भी कहते हैं। स्थानीय बोलचाल में इसे यारसा गुम्बा कहा जाता है जिसका अर्थ हुआ ‘विंटर वर्म, समर ग्रास’। कुमाऊँ और गढ़वाल में आम बोलचाल में यह ‘कीड़ा घास या जड़ी’ के रूप में जानी जाती है।
कॉर्डिसेप्स, एंटोमोफैगस फ्लास्क कवक (पाइरेनोमाइसेट्स एस्कोमाइकोटिना) वर्ग का है और ओफियोकॉर्डिसिपिटेसी परिवार से संबंधित है। कई सारे घास के भीतर पलने वाले थिटारोड्स लार्वा (जिन्हें पहले हेपियलस कहा जाता था) दरअसल ओफियोकॉर्डिसेप्स साइनेंसिस (Ophiocordyceps sinensis) द्वारा संक्रमित होते हैं। थिटारोड्स जिन्हें घोस्ट मौथ भी कहा जाता है वर्ग के अंतर्गत लगभग 51 प्रजातियाँ आती हैं और इनमें से 40 प्रजातियाँ ऐसी हैं जो कॉर्डिसेप्स साइनेंसिस द्वारा संक्रमित होती हैं। यह बड़ा रोचक है कि असंक्रमित लार्वा सुसुप्तावस्था के लिए संक्रमित लार्वों की तुलना में धरती के अन्दर ज्यादा गहराई तक चला जाता है। इस तरह कवक संक्रमित लार्वों को सतह की ओर आने के लिए बाध्य कर देता है ताकि उसे रूपांतरण हेतु अनुकूल परिस्थितियाँ मिल सकें। कवक के माईसीलियम का हाइफी लार्वा प्रछेदन प्रक्रिया के दौरान संभवतः संक्रमित होता है व् कवक तदोपरांत उसके शरीर के छोटे-छोटे हिस्सों से पोषक तत्त्व ले कर और फिर समूचे शरीर को अपना भोजन बनाते हुए विकसित होना शुरू करता है। आखिरकार शरीर के पोषक तत्त्व सोख लिए जाने से कीट पूरी तरह ममीकृत हो जाता है। उसके शरीर में अंततः अन्दर और बाहर केवल कॉर्डिसेप्स साइनेंसिस माईसीलियम का आवरण बचता है।
वसंत ऋतु में, मशरूम (फल या स्ट्रोमा) आंखों के ठीक ऊपर बाह्य आवरण में सिर से विकसित होता है। इसतरह पतले भूरे और क्लब के आकार की संतति धरती से बाहर प्रस्फुटित होती है और धीरे-धीरे 8-15 सेमी लंबा आकार लेती है। आमतौर पर यह अपने इल्ली (कैटरपिलर) होस्ट से लगभग दोगुना लंबा होता है, लेकिन कुछ एक दुर्लभ मामलों में चार गुना तक लम्बा हो सकता है।
यह बताइये कि हिमालय और खासकर उत्तराखण्ड में इसका भौगोलिक वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन) किस तरह का दिखाई पड़ता है?
आपने यह महत्वपूर्ण प्रश्न किया है। हमें यह जानना आवश्यक है कि यारसा गुम्बा का वितरण और इस तरह उपलब्धता केवल समोच्च रेखा या समुद्र सतह से ऊँचाई पर निर्भर नहीं करती बल्कि यह जलवृष्टि या वर्षा से निर्धारित होती है। इसकी उपलब्धता के लिए न्यूनतम 300 मिमी वर्षा का होना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में ऐसे इलाके जो अल्पवृष्टि या वर्षा-छाया क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं वहाँ यह प्रजाति नहीं मिलती है। यही कारण है कि अधिकाँश बुग्यालों में, चाहे वो समान ऊँचाई और एक सी वनस्पतियों का आवरण लिए ही क्यों न हों, यह बहमूल्य संसाधन नहीं मिलता है।
उत्तराखंड में यारसा गुम्बा पिथौरागढ़ जनपद (जहाँ यह समुद्र सतह से 3300 से 4700 मीटर की ऊँचाई वाले विस्तृत इलाकों में फैला है) के अलावा इससे लगे बागेश्वर और चमोली जनपद में यह मिलता है। पिथौरागढ़ जनपद में छिपलाकेदार, रालम गाँव के आसपास सालंग ग्वार, लास्पा और जोहार घाटी के मिलम गाँव के आसपास के बुग्यालों के, अतिरिक्त बल्मियाँ टॉप व राज-रम्भा तक फैले बुग्यालों के साथ साथ दारमा घाटी के गल्चिन, व्याक्सी, गल्फू, युसुंग, वोरुंग, नामा, होरपा, कमति-रुंग और श्यान्न्यार के इलाकों में उत्पादन की दृष्टि से यह बहुतायत में मिलता है जबकि बागेश्वर जनपद में सुन्दरढुंगा ग्लेशियर व चमोली जनपद में ऋषिगंगा के जलागम तथा पिंडर नदी के दाहिनी ओर शिला समुद्र के इलाकों तक ही इसका वितरण सीमित है। नामिक, बोना, तोमिक गाँवों के ऊपर के कुछ एक इलाके ऐसे भी हैं जहाँ यह मिलता है लेकिन उसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। दरसल ऐसा कोई बुग्याल नहीं है जो बसासतों से नजदीक हो और वहाँ लोग न पहुचे हों। हालत यहाँ तक हो गई है कि अनेक बार संजायती बुग्यालों में इसके दोहन को लेकर गंभीर लड़ाई-झगड़े हो जाते हैं।
उत्तराखंड में कीड़ाजड़ी की कितनी प्रजातियाँ मिलती हैं?
उत्तराखंड में कीड़ाजड़ी (कॉर्डिसेप्स साइनेंसिस) की विविधता को लेकर हालांकि ज्यादा प्रकाशित सामग्री उपलब्ध नहीं है फिर भी हमने अकेले पिथौरागढ़ जनपद से 9 प्रजातियों की पहचान की है। ये हैं – ओफियोकॉर्डिसेप्स साइनेंसिस (कीड़ाजड़ी की प्रमुख प्रजाति), ओफियोकॉर्डिसेप्स नुटन्स, ओफियोकॉर्डिसेप्स ग्रेसीलिस, ओफियोकॉर्डिसेप्स रौबरट्सी, ओफियोकॉर्डिसेप्स ट्रासेंटरी, कॉर्डिसेप्स मिलिटेरिस, कॉर्डिसेप्स स्फेकोसीफाला, कॉर्डिसेप्स इशिकारेंसिस और कॉर्डिसेप्स ओफियोग्लोसिओडिस। यह रोचक और उल्लेखनीय तथ्य है कि इनमें से सभी किस्मों का उपयोग तिब्बतियों और चीनियों द्वारा अपनी अनगिनत परंपरागत चिकित्सा औषधियों में किया जाता रहा है।
पडोसी मुल्कों में इसकी उपलब्धता की क्या स्थिति है?
पड़ोसी देश नेपाल और भूटान के उच्च हिमालयी इलाकों में भी इसके मिलने की जानकारी सामने आई है। नेपाल में जहाँ यह यारसा गुम्बा के नाम से जाना जाता है, दरअसल इसका दोहन भारत के पिथौरागढ़ जनपद में हो रहे दोहन से बहुत पहले आरम्भ हो चुका था। वहाँ हो रहे अतिदोहन ने इसकी उत्पादकता को बुरी तरह प्रभावित किया, परिणामस्वरूप गाँव के लोगों के साथ साथ सरकार भी इसके संतुलित दोहन के लिए दिशा-निर्देश और नीति बनाने को बाध्य हुई। भूटान में यारसा गुम्बा के वर्तमान स्थिति और उत्पादन को लेकर कोई आकड़े उपलब्ध नहीं हैं इसलिए कुछ कहना उचित नहीं है। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि चूँकि भूटान में इसके दोहन का सिलसिला अभी नया-नया ही है तो वहाँ की सरकार ने शुरुआत से ही एक बेहतर दोहन रणनीति बना डाली। भूटान की सरकारी संस्थाओं ने सीधे यारसा गुम्बा के खरीददारों के लिए नीलामी प्रक्रिया को अत्यधिक सरल और सहज बनाने में अहम् भूमिका निभाई है।
क्या उत्तराखंड में पारंपरिक रूप से इसका उपयोग किया जाता रहा है?
अब तक ऐसी कोई जानकरी नहीं मिली है कि उत्तराखंड के स्थानीय समाज द्वारा इसका कोई उपयोग किया जाता हो। दोहन की गई जड़ी का एक-एक टुकड़ा बेचा जाता है और अवैध तरीके से नेपाल से होते हुए तिब्बत पहुँचता है।
हाल के वर्षों में इसकी बहुत चर्चा हुई, इसमें ऐसा क्या खास है?
ओफियोकॉर्डिसेप्स साइनेंसिस या यारसा गुम्बा में दरअसल बड़ी संख्या में ऐसे तत्त्व पाए जाते हैं जिन्हें अत्यधिक पोषक माना जाता है। इनमें शरीर के लिए आवश्यक एमिनो एसिड्स, विटामीन ‘के’ और ‘ई’ के साथ-साथ पानी में घुलनशील विटामिन बी1, बी2, और बी12 शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कई तरह की शर्करा जैसे मोनो, डाई और ओलिगोसेकेराइड्स के साथ साथ कई जटिल पौलीसेकेराइड्स, प्रोटीन्स, स्टीरोल्स, न्युकिलोसिड्स और ट्रेस एलिमेंट्स भी इसमें पाए जाते हैं। यह माना जाता है कि यारसा गुम्बा से मिलने वाले दो महत्वपूर्ण तत्व – पौलीसेकेराइड्स व कॉर्डिसाईंपिन अत्यधिक औषधीय गुण लिये है। जहाँ पौलीसेकेराइड्स प्रतिरक्षा तंत्र को सुदृढ़ करने, सूजनरोधी, ट्यूमर-रोधी, आक्सीकरणरोधी और कम रक्त शर्करा बनाये रखने के लिए प्रभावशाली है वहीं कॉर्डिसाईंपिन ट्यूमर-रोधी, जीवाणुरोधी और कीटनाशी गुण लिए हुए है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इसकी आसमान छूती कीमतों का कारण इसकी ये प्रवृत्तियाँ नहीं हैं बल्कि जनमानस में घर कर गई यह अवधारणा है कि यारसा गम्बू यौन शक्ति वर्धक है। हालांकि अब तक हुए वैज्ञानिक शोध अध्ययन इस गुण की पुष्टि नहीं कर पाए हैं। यह जरूर है की चूहों पर कुछ प्रयोग हुए हैं, लेकिन मनुष्य में प्रयोग होने अभी बाकी हैं।
क्या कोई ऐसी प्रजातियाँ हैं जिनकी माँग बाज़ार में ज्यादा है?
ओफियोकॉर्डिसेप्स साइनेंसिस एक ऐसी प्रजाति है जिसका व्यापार सबसे ज्यादा होता है यद्यपि ओफियोकॉर्डिसेप्स रौबरट्सी जिसे व्यापार करने वाले बिचौलिए अलग से पहचान लेते हैं और सामान्यतः खरीदना पसंद नहीं करते, का भी थोड़ा बहुत दोहन किया जाता है। यह अनेक महत्वपूर्ण उत्पादों में मिलावट करने के काम में लिया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि व्यापार की दृष्टि से दोहन किये गए यारसा गुम्बा की अवस्था ( परिपक्व की तुलना में अपरिपक्व) ज्यादा महत्वपूर्ण होती है जो इसकी कीमतों को निर्धारित करती है। आमतौर पर सूखे यारसा गम्बू को ही, जिसमें नमी की मात्रा सबसे कम हो, व्यापारियों द्वारा प्राथमिकता दी जाती है। जितनी सूखी जड़ी होगी उतनी ज्यादा उसकी कीमत होगी। इसके अलावा कीड़े के सिर से ऊपर आये माईसीलियम की तुलना में लार्वा की लम्बाई पर भी कीमत निर्भर करती है। लार्वा, स्ट्रोमा (माईसीलियम) की तुलना में जितना बड़ा होगा उतनी ही यारसा गुम्बा की कीमत ज्यादा होगी।
बाज़ार में आने वाली यारसा गम्बू की फसल में से 70 से 80 प्रतिशत पूरी तरह अपरिपक्व होती हैं। स्थानीय बाज़ार में छिपला केदार और खास तौर से छिपलाकोट से आने वाली फसल को अपेक्षाकृत ज्यादा कीमत मिलती है क्योंकि इसके लार्वा की लम्बाई ज्यादा होती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है देश के इस हिस्से में मिलने वाला यारसा गुम्बा, तिब्बत में मिलने वाले यारसा गुम्बा से निम्न गुणवत्ता वाला है। इसका एक कारण यह भी है कि तिब्बत में यह समुद्र सतह से 4000 मीटर से ज्यादा ऊँचाई में उपलब्ध होता है जबकि यहाँ यह 3000 मीटर के आसपास मिल जाता है।
एक वैज्ञानिक के रूप में आप इसके पारिस्थितिकीय और आर्थिक महत्व को कैसे आँकते हैं?
कोई भी प्रजाति जिसका जरुरत से ज्यादा दोहन किया जाएगा वह अंततः समाप्त हो जायेगी चाहे वह कितनी ही प्रतिरोधी, लचीली और परिस्थितयों के अनुसार अनुकूलन करने वाली क्यों न हो।
देखने में आया है कि इसके दोहन को लेकर अपनाए जा रहे तरीके इसके पुनर्जनन पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं जिससे कालान्तर में इसकी पैदावार कम होती चली जायेगी और धीरे-धीरे इसे विलुप्ति की ओर ले जाएगी। पिथौरागढ़ जनपद के बड़े हिस्से में जहाँ इसका दोहन किया जा रहा है यह प्रभाव दिखने भी लगा है। कई इलाके ऐसे हैं जहाँ अब यारसा गुम्बा नहीं है। दरअसल यारसा गुम्बा की उपलब्धता और पहाड़ी की ढलानों के बीच अंतर्सबंध व्युत्क्रमानुपाती है। 15 डिग्री ढलान वाले इलाकों में इसकी उपलब्धता सर्वाधिक होती है और कोण बढ़ने के साथ-साथ यह कम होती चली जाती है। यही नहीं यारसा गुम्बा खोदने वाले लोग भी अधिकांशतः अपने टेंट इन्हीं ढलान में लगाते हैं परिणामस्वरूप इसके उत्पादन में व्यापक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। बुग्यालों में कीड़ाजड़ी निकालने गए लोग और दूसरी औषधीय वनस्पतियों को या जलावन हेतु दोहन करते हैं। इन सब गतिविधियों ने यारसा गुम्बा के लार्वा के प्राकृतिक आवास को बुरी तरह प्रभावित किया है। बुग्यालों में लम्बे समय तक होने वाली मानवीय गतिविधियों या जानवरों के प्रवास से वहाँ की मिटटी की गुणवत्ता में भी बड़ी गिरावट आई है, परिणामस्वरूप उत्पादकता तेजी से गिरी हैं। यह गिरावट केवल यारसा गुम्बा या औषधीय और सगंध पौधों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सभी वनस्पतियों और सूक्ष्मजीवों के लिए आवश्यक प्राकृतिक आवासस्थल और पारिस्थितिकी में तेजी से ह्रास हुआ है।
हमें यह ध्यान रखना होगा कि बुग्याल सर्वाधिक संवेदनशील इलाके हैं और उनसे की जानी वाले किसी भी तरह की छेड़ा-खानी के गंभीर और दीर्घकालिक परिणाम होंगे।
‘ज्ञानिमा’ से साभार