राजीव लोचन साह
इस अलंघ्य चट्टान के बारे में जानने से पूर्व गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया और ताकुला के बारे में थोड़ा जान लें।
कुमाऊँ के तमाम उच्च वर्ण के लोगों की तरह साह लोग भी अपने आप को राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि से आया हुआ मानते हैं। सलमगढ़िया लोग मानते हैं कि वे मूलतः दिल्ली के नजदीक सलीमगढ़ के रहने वाले हैं। न जाने यह यह सलीमगढ़ कहाँ पर है ? अब बहुत कम सलगमढ़िया परिवार रह गये हैं और उनमें भी कोई अपने नाम के आगे गोविन्द लाल साह की तरह सलमगढ़िया नहीं लिखता।
1880 के आसपास रानीखेत के जरूरी बाजार में जन्मे गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया थोड़ी सी पूँजी के साथ बहुत कम उम्र में नैनीताल आ गये और साह लोगों की परम्परा के अनुसार व्यापार करने लगे। उनके एक चचेरे भाई चन्द्रलाल साह और उनकी संतति अल्मोड़ा के खजांची मोहल्ला में ‘चन्द्रलाल एंड संस’ के नाम से अच्छा खासा व्यवसाय कर ही रहे थे। गोविन्द लाल साह ने तल्लीताल में, कलक्ट्रेट जाने वाले रास्ते (रामजे रोड) पर, जहाँ इन दिनों नवज्योति क्लब है, ‘गोविन एंड कम्पनी’ के नाम से शराब और जनरल मर्केण्टाईल की दुकान खोली। रईसजादों को छोड़ दें तो शराब का प्रचलन उन दिनों सामान्य भारतीयों में नहीं के बराबर था। हमने स्वयं देखा था कि एलाइड स्टोर, बी. दास ब्रदर्स, देवराज मेहरा आदि नैनीताल की शराब की दुकानों पर किस तरह वयस्क हो जाने के बाद भी हम बियर खरीदने जाने तक का साहस नहीं कर पाते थे। ‘कौन हो’, ‘किसके लिये ले जा रहे हो’ जैसे इतने असुविधाजनक सवालों का उत्तर देना पड़ता था कि उन दुकानों में जाने में तौबा कर लेने में ही भलाई थी। उससे पचास साल पूर्व बीस और तीस के दशक में तो और अधिक सख्ती रहती होती होगी। मगर गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया के ग्राहक मुख्यतः यूरोपियन थे, वे स्वयं पढ़े-लिखे और व्यवहारकुशल थे, इसलिये धंधा चल निकला।
हालाँकि खुद्दारी भी गोविन्द लाल जी में कूट-कूट कर भरी थी। बताते हैं कि एक गोरे द्वारा शराब पीकर दुकान में हुड़दंग मचाने पर उन्होंने उसे दो हाथ जड़ दिये थे। गुलामी के दिनों में यह दुस्साहस छोटी घटना नहीं थी। बाद में मल्लीताल में, फ्रुट मार्केट के ऊपर जहाँ आजकल सर्व शिक्षा का कार्यालय है, गोविन एंड कम्पनी की दूसरी शाखा शुरू हुई। कालान्तर में मल्लीताल वाली यही दुकान मुख्य शाखा हो गई। तीसरी शाखा भवाली में खुली, जिसके प्रबन्धक उनके भांजे पूरन लाल थे। गोविन्द लाल जी के व्यवसाय से संन्यास ले लेने के बाद जब उन्होंने अपना कामकाज अपने भाई किशोरी लाल जी को सौंपा तो ‘गोविन एंड को.’ ‘किशोर एंड को’ में तब्दील हो गई और धीरे-धीरे सिकुड़ कर भवाली में ही सीमित रह गई, जहाँ वह आजादी के आसपास तक बनी रही। तल्लीताल वाली मूल शाखा भी रामजे रोड से हट कर बाजार में, जहाँ पर अब सब्जीवाले मटरूमल की दुकान है, स्थानान्तरित हो गई। इसी मकान के दुमंजिले में वर्ष 1924 में मेरी माँ सावित्री देवी का जन्म हुआ।
मेरी माँ गोविन्द लाल साह की एकमात्र संतान थीं। हमारी नानी देवकी देवी तेज स्वभाव और तीखी जुबान की थीं। 1959 में हमारे पिता किशोरी लाल साह के असमय देहान्त के बाद नानी अल्मोड़ा का अपना घर छोड़ कर हमारे साथ ही रहने आ गईं और वर्ष 1987 में मृत्युपर्यन्त यहाँ रहीं। हम चार भाइयों का लालन-पालन उन्हीें के द्वारा हुआ। जिन्दगी के विकट संघर्षों से जूझ रही हमारी ईजा को तो हम पर ध्यान देने का वक्त ही नहीं था। सलमगढ़ियों, ताकुला और गांधी जी के प्रवास के बारे में भी जो कुछ हमने जाना, आमा से ही जाना। नाना जी का एक विवाहेतर सम्बन्ध भी बना। इस महिला, सरस्वती देवी को उन्होंने पूरा सम्मान दिया। मरणोपरान्त उनकी याद में पाईन्स के श्मशान घाट पर बनाया गया शिवालय और प्रेमकुटी इस बात की गवाही देता है। उस जमाने में ही नहीं, आज भी किसी सम्भ्रान्त व्यक्ति द्वारा अपने विवाहेतर सम्बन्ध को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना बहुत साहस की बात है। यही नहीं, अपनी इस ‘प्राणप्रिया’ के नाम पर उन्होंने एक ट्रस्ट की भी स्थापना की थी। इस ट्रस्ट के नैनीताल बैंक के खाते की पासबुक मुझे मिली, मगर ट्रस्ट के कार्यकलापों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। हमारी ईजा बहुत शर्मा कर मुस्कराती हुई बतलाती थीं कि उनकी एक ‘सौतेली माँ’ भी थीं, लेकिन उनके बारे में ज्यादा बतलाने से इन्कार कर देती थीं। इस ‘सौतेली माँ’ से उनकी मुलाकात होने का तो वैसे भी सवाल नहीं था, क्योंकि जिस साल ईजा पैदा हुई उसी साल सरस्वती देवी स्वर्ग सिधार गई थीं।
बहरहाल, ‘गोविन एंड कम्पनी’ एक लोकप्रिय दुकान थी और गोविन्द लाल जी ने खूब पैसा कमाया। मगर सिर्फ एक संतान के विवाह के लिये अधिक धन उपार्जन की जरूरत नही थी और यों भी गोविन्द लाल जी का रुझान पढ़ने-लिखने और समाज सेवा की ओर ज्यादा था।
वे शायद राजनीति में भी जाना चाहते थे, मगर ऐसा लगता है कि उन दिनों कांग्रेस में एक तरह की जाति संकीर्णता थी, जिसने उन्हें हतोत्साहित किया। घर में आमा की ओर से भी इस ओर जाने के लिये उन्हें बढ़ावा नहीं मिला। अलबत्ता बाद के दिनों में उनके अल्मोड़ा बस जाने के बाद कांग्रेस द्वारा चलाये गये हरिजनों के मन्दिर प्रवेश के आन्दोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी रही थी। ‘अहो, ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे’ की तर्ज पर एक शान्त जिन्दगी बिताने इच्छा उनके मन में कुलबुलानेे लगी थी। पहले उन्होंने ताकुला से चार किमी. नीचे, अब ग्राम सभा देवीधुरा के अन्तर्गत पड़ने वाले ‘जमीरा’ नामक एक गाँव को खरीदा, जिसकी प्रशंसा करते हुए नानी देवकी देवी अघाती नहीं थी। उर्वर जमीन और पानी से भरा-पूरा गाँव था जमीरा। मगर भाइयों के बीच खींचतान के बाद गोविन्द लाल जी को जमीरा गाँव छोड़ कर जल्दी ही अलग हो जाना पड़ा। अपना भरा पूरा व्यवसाय भी उन्होंने अपने छोटे भाई किशोरी लाल को सौंप दिया, जो उनसे सम्हला नहीं।
अन्ततः गोविन्द लाल साह सलमगड़िया ने सरकार से फरवरी 1929 में ग्रामसभा बेलवाखान, पट्टी छखाता के अन्तर्गत ताकुला की 30.24 एकड़ जमीन लीज पर प्राप्त की। तब यह पहाड़ी देवदार, बाँज, बुराँश तथा अन्य प्रजातियों के वृक्षों से आच्छादित, आबादी रहित घना जंगल थी। उनका इरादा यहाँ डेरी फार्म खोलने का था। इसके लिये उन्होंने दूरस्थ बागेश्वर जनपद से तक लोगों को लाकर इस पहाड़ी को आबाद किया। इस बस्ती को उन्होंने ‘गोविन्द नगर’ नाम दिया। उन्होंने यहाँ चार भवन, दो आउट हाउस, एक समर हाउस और दो बड़ी टंकियाँ बनवाईं। सबसे पहले उन्होंने अपने पिता के नाम पर मोती भवन बनाया। 1929 में अपनी पहली कुमाऊँ यात्रा के दौरान गांधी जी इसी भवन में ठहरे थे। लाठी लेकर मोती भवन की सीढ़ियाँ उतरते बापू और बगल में खड़ी, गुँथी हुई चोटी के ऊपर गांधी टोपी पहनी हुई पाँच वर्षीय ईजा का चित्र हमारे एल्बम में सुरक्षित है। अब यह भवन लगभग खंडहर है और इसके ठीक बगल में महर्षि विद्यालय का विशाल भवन बन गया है। इसके बाद नाना जी ने अपनी पत्नी के नाम पर ‘देवकी निवास’ बनाया। 1931 की गर्मियों में इस भवन में महादेवी वर्मा रही थीं और तब यहीं उनकी मुलाकात गांधी जी से हुई थी। कवयित्री के रूप में उनका कैरियर शुरू हो ही रहा था।
‘नीहार’ काव्य संकलन प्रकाशित हो चुका था और ‘रश्मि’ में प्रकाशित होने वाली कवितायें लिखी जा रही थीं। ईजा बताती थीं कि वे ‘जिज्जी’ की कविताओं की कापी छिपा देतीं और तब तक वापस न करतीं, जब तक जिज्जी उन्हें कपड़ों की गुड़िया बना कर न दे देतीं। ताकुला के परवर्ती इतिहास में महादेवी जी की बड़ी भूमिका रही, मगर वह प्रकरण बाद में। सबसे बाद में गांधी मन्दिर बना, जो ताकुला को लेकर हो रहे इस तमाम जद्दोजहद के केन्द्र में है। बगल में ईजा के नाम पर ‘सावित्री मंडप’ नाम से एक समर हाउस बना, जिसके अब अवशेष भी नहीं बचे। सबसे बड़ी बात यह कि तमाम हरीतिमा के बावजूद ताकुला में पानी की बड़ी किल्लत थी (जमीरा गाँव से उसकी तुलना करते हुए आमा ताकुला को ‘रूखा डांडा’ कहती थीं), आज हम जिस विकास की बात करते हैं, गोविन्द लाल जी ने उस जमाने में नैनीताल नगर से अपने खर्च पर चार किमी. लम्बी पाईप लाईन खींच कर ताकुला के हर मकान तक पानी पहुँचाया।
इधर गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया ताकुला में अपना नया ठिया जमा रहे थे, उधर महात्मा गांधी का कुमाऊँ दौरे का कार्यक्रम बन गया। कांग्रेसियों के सामने बड़ी चुनौती आ गई कि महात्मा जी के रहने की व्यवस्था कहाँ करें…..
(जारी रहेगा)
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।