इस्लाम हुसैन
विगत 9 दिसम्बर को गरुड़ वाले चाचा आ गए ,चाची को साथ लेकर। हम उन्हें गरुड़ वाले चाचा कहते हैं। दरअस्ल वह गरुड़ और डंगोली के बीच कोटफुलवारी गांव में रहते हैं जहां प्रसिद्ध कोटभ्रामरी देवी का मंदिर है।
उस दिन सुन्नी मुसलमानों के बड़े पीर साहब जिन्हें हजरत शेख अब्दुल कादिर जीलानी के नाम से जाना जाता है की यौमे पैदाइश या जनम दिन, ग्यारवीं शरीफ थी । यह वही बड़े पीर साहब हैं जिनके जीवन की एक घटना पर प्रसिद्ध कहानी ष्सच्चा बालकष् दो दशक पहले तक प्राइमरी कक्षाएं में पढ़ाई जाती थी। इस दिन मुसलमान अनेक आयोजन करते हैं, जिनमें पारिवारिक खाना शामिल होता है।
क्योंकि उसी दिन बहिन की सास की बरसी भी पड़ती थी तो हमारे घर में खाना नहीं बना था। सभी बहिन के घर गए थे, ऐसे में चाचा-चाची आ गए तो वह भी बिना झिझक बहिन के घर पहुंच गए।
खाना खाने के दौरान ही चाचा के पास लगातार रिश्तेदारों उनके बच्चों और जानने वालों के फोन आते रहे, कभी गरुड़ से, कभी अल्मोड़ा से और कभी उनकी ससुराल ग्वाड़पजेड़ा (गरुड़ के पास का गांव) से हम सभी चाचा से कहने लगे आप तो बड़े बीआईपी हो गए ठैरे, चाचा हंस दिए। खाना खाकर गपशप के लिए सब लोग बैठे ही थे कि उनके पास फिर फोन आ गया, मैने पहले तो ध्यान नहीं, वैसे भी बुजुर्ग कहते हैं कि किसी की बातें पर कान नहीं लगाना चाहिए। लेकिन तभी मैने महसूस किया कि चाचा तो किसी से कुमाऊंनी में बात कर रहे हैं।
उनकी धाराप्रवाह कुमाऊंनी सुन के नैनीतालवी और भवरिया कुमाऊंनी को समझ सकने वाला मैं भी एक बार को गजबजा गया। इसी बीच साथ बैठे हुए परिवार के और सदस्य भी चाचा को कुमाऊंनी में बात करते हुए देखने लगे। चाचा इन सब से बेखबर लगातार धुंआधार कुमाऊंनी बोले जा रहे थे, डेढ़ दो मिनट हो गया था बोलते और लग रहा था कि यह बातचीत लम्बी खिंचेगी, तभी मुझे अपने मोबाइल की उपयोगित का ध्यान आया और मैने उस बातचीत में से, बीच का हिस्सा मोबाइल में कैद कर लिया।
वह लम्बी बातचीत खत्म हुई तो उसकी उसकी पृष्ठभूमि और भी अजब थी। जाहिर है यह बातचीत उनके गैर कुमाऊंनी भाषी किसी रिश्तेदार से नहीं हो रही होगी, जो हुई वह भी स्थानीय समुदाय में आपसी मेलमिलाप की कहानी कहती थी। चाची का मायका तो ठेठ पहाड़ी गांव है उनकी कुमाऊंनी तो बचपन से रसी बची है।
चचा की पहले गरुड़ में बारबर की दूकान थी, अब उनके काम छोड़ने के बाद, उनका लड़का रहमान गढ़वाल की सीमा पर कुमाऊंनी की आखिरी बसासत डंगोली में बारबर की दूकान करता है चाचा चाची आपस में भी अक्सर (जैसा कि तराई भाबर में कुमाऊंनी लोग) कुमाऊंनी बोलते हैं।
चचा के इतनी अच्छी कुमाऊंनी बोलने पर मुझे ननिहाल रानीखेत में बिताए बचपन के दिन याद आ गए। नाना जी मरहूम नियाजुद्दीन जिन्हें अस्सी के दशक तक रानीखेत के बाजार वाले मुल्ला जी या न्याजूदा कहते थे अपना बाजार का और पल्टन में अपनी सिविल नौकरी का बहुत सा काम कुमाऊंनी में करते थे। लेकिन काठगोदाम जहां मेरा शिक्षा आरम्भ हुई वहां मिली जुली आबादी में कुमाऊंनी भाषी बहुमत में होते हुए भी कुमाऊंनी का प्रचलन बहुत कम था, उनके अपने परिवारों में भी कम था, यदि होता तो कुमाऊंनी भाषी मेरे सहपाठी कुमाऊंनी में आपस में बात करते लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
यही स्थिति अस्सी के दशक (1974-80) में एमबी कालेज की शिक्षा के दौरान रही। कुमाऊंनी भाषी परिवार से आए कोई भी छात्र या छात्रों का समूह कुमाऊंनी में बात नहीं करता था।
मेरे अब्बाजी का बचपन अल्मोड़ा में बीता, पहली कक्षा में उनका दाखिला अल्मोड़ा राजपुरा के प्राइमर स्कूल में हुआ था, शुरूआत में वह भी आसपास के कुमाऊंनी भाषी माहौल में रहे, और कुमाऊंनी समझते बोलते रहे, बाद में दादा जी जब गोरखा पल्टन से रिटायर हुए तो सभी लोग रोजगार के लिए काठगोदाम आ गए। अपनी नौकरी डयूटी के दौरान द्वाराहाट में तत्कालीन ट्रांसपोर्ट सेक्रेटरी काण्डपाल जी के साथ रहे और बाद में मुक्तेश्वर क्षेत्र के आलू और फल उगाने वाले किसानों के साथ खूब पटती रही।
अल्मोड़ा में रहने वाले छोटे चचा और रिश्तेदार वक्त जरूरत पर कुमाऊंनी समझते बोलते रहते हैं, जबकि अल्मोड़ा बागेश्वर जिले में मुस्लिम जनसंख्या वाले गांवों में मुस्लिम आपस में भी अक्सर कुमाऊंनी बोलते हैं। बग्वालीपोखर के पास एक गांव में रहने वाली मेरी एक बहिन की सास ऐसी कुमाऊंनी बोलती है कि बाहर से आने वाले आश्चर्य करते हैं।
असल में बोली आसपास के परिवेश से फैलती है, बुजुर्ग बताते हैं कि रानीखेत में एक समय ऐसा भी था जब अंग्रेजों के साथ रहने वाले माली, खघनसामा नाई, धोबी और सईस अंग्रेजी बोलते थे, उस अंग्रेजी समय में अंग्रेजी बोली (भाषा नहीं) व्यवसायिक या रोजगार की आवश्यकता थी। उसी दौर में खेती किसानी की भाषा कुमाऊंनी थी, अम्माजी के परिवार में होने वाली खेती और बागबानी में जो लोग काम करते थे वह कुमाऊंनी बोलते थे। उनसे परिवार के सदस्यों का व्यवहार भी कुमाऊंनी में होता था। अम्माजी एक दिलचस्प किस्सा गढ़वाली मुस्लिम परिवार के बारे में बताती हैं जो गढ़वाल (कर्णप्रयाग) से उनके यहां काम करने आया था। और जिसकी भाषा तो गढ़वाली थी ही, उनके रहन सहन और रीतीरिवाज भी गढ़वाली रीतीरिवाजों से मिले हुए थे।
भाषा और बोली लगातार बोलने और व्यवहार करने से विकसित और प्रचारित होती है, उसमें नए नए शब्द जुड़ते हैं, नए संदर्भ बनते हैं। कुमाऊंनी भाषा इस विषय में समृद्ध है, इसमें उर्दू और फारसी के शब्द अब अपभ्रंश के रूप में खूब प्रचलित हैं। मैं अक्सर उनके मूल शब्द खोजता हूं तो बड़ा मजा आता है। इसपर किसी ने अध्ययन किया होगा या नहीं है यह विषय बड़ा दिलचस्प। गढ़वाली की भी यही स्थिति है। मैं अपने कुमाऊंनी गढ़वाली भाषी मित्रों से कहता हूं कि आप अपनी भाषा में बातचीत करो, अपनी भाषा से प्यार करोगे तभी दूसरों की भाषा संस्कृति और उनका दर्द समझोगे।