योगेंद्र यादव
बाबासाहेब आम्बेडकर की जयंती पर यह सवाल पूछना बनता है। क्या बाबासाहेब द्वारा रचित भारत का संविधान एक भारतीय दस्तावेज है? पहली नज़र में यह सवाल अजीब और अनर्गल लग सकता है। हो सकता है ख़ुद बाबासाहब को इस सवाल का जवाब देने में कोई दिलचस्पी ना होती।लेकिन आज इस सवाल का जवाब देना जरूरी है। आज संविधान पर हमला करने वाली शक्तियां बाबासाहब का नाम लेकर उनपर हमला नहीं बोलती। बाबासाहब की मूर्ति को हार पहनाने की मजबूरी उन्हें समझ आ गई है। उन्हें यह सबक भी मिल गया है कि संविधान बदलने जैसी बात जनता के गले नहीं उतरती। इसलिए अब चालाकी से संविधान को सर-माथे लगाते हुए उनकी वैधता को नष्ट करने का अभियान चालू हो चुका है। इस अभियान का सबसे बड़ा अस्त्र है भारतीय संविधान की भारतीयता पर सवाल उठाना। भारतीय संविधान को विदेशी करार देने से एक तीर से कई शिकार हो सकते हैं।इससे संविधान बदलने की दीर्घकालिक योजना की बुनियाद मजबूत की जा सकती है। देशी-विदेशी की बहस चला संविधान में उन सब दकियानूसी बातों को घुसाया जा सकता है जिसे संविधान सभा ने ख़ारिज कर दिया था। और इस बहाने बाबासाहब की वैचारिक और राजनीतिक विरासत को नष्ट किया जा सकता है।
यह सवाल उछालने वाले अनेक सतही दलील देते हैं। भारतीय संविधान के अनेक प्रावधान अंग्रेज़ों द्वारा बनाए 1935 के क़ानून से लिए गए थे। इसके कई अंश यूरोप और अमेरिकन के संविधानों की प्रेरणा पर आधारित थे — अगर मौलिक अधिकारों का विचार अमरीकी संविधान से लिया गया था तो नीति निर्देशक तत्वों की अवधारणा आयरलैंड से। बाबासाहब आंबेडकर सहित अधिकांश संविधान निर्माता पश्चिमी दर्शन से प्रभावित थे। अगर संविधान की भारतीयता की माँग का अर्थ ऐसे दस्तावेज से है जो पश्चिम की अवधारणाओं और संस्थाओं से पूरी तरह अछूता हो, तो जाहिर है भारतीय संविधान इस अर्थ में भारतीय नहीं था, नहीं हो सकता था।आज दुनिया भर में राज्यतंत्र का औपचारिक ढाँचा व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका जैसी आधुनिक लोकतांत्रिक संस्थाओं की इबारत से बना है। अगर यह इबारत विदेशी है तो ज़ाहिर है दुनिया का कमोबेश हर संविधान विदेशी है। इस अर्थ में संवैधानिक लोकतंत्र का विचार ही विदेशी है। लोकतंत्र ही नहीं, इस अर्थ में हमारी भाषा, भूषा और भोजन सब कुछ विदेशी है।
दरअसल भारतीयता को इस संकुचित अर्थ में देखने में एक बुनियादी खोट है। संविधान की भारतीयता की जाँच करते वक्त हमें कुछ वैसे सवाल पूछने पड़ेंगे जो हम भारतीय सिनेमा की भारतीयता के बारे में पूछ सकते हैं। भारतीय सिनेमा को सिर्फ़ इसलिए विदेशी करार देना फूहड़ता होगी कि फ़िल्म बनने की कला और तकनीक विदेश से आई। भारतीय सिनेमा की इबारत भले ही विदेशी हो, उसका अर्थ और संवेदना खाँटी भारतीय है। इसी तरह संविधान की भारतीयता का अर्थ बाहरी इबारत से अछूता होना नहीं हो सकता। असली सवाल यह है कि आधुनिक संविधान की इबारत से जो शब्द गढ़े गए वह भारतीय थे या नहीं? लोकतंत्र की संस्थाओं को भारतीय संदर्भ के अनुरूप ढाला गया या नहीं? भारतीय संविधान निर्माण के पीछे जो दर्शन था उसके मूल में भारतीय विचार परंपरा की छाप थी या नहीं?
सवाल को इस तरह पूछने से हम संविधान का भारतीय मर्म समझ सकते हैं। इस अर्थ में संविधान सिर्फ दो साल में नहीं बल्कि सौ साल में लिखा गया था। भारत का संविधान किसी एक व्यक्ति, पार्टी या विचारधारा से पैदा नहीं हुआ। यह दस्तावेज आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन की पूरी परंपरा का कपड़ा छान निचोड़ है। यह परंपरा एक प्राचीन सभ्यता द्वारा आधुनिकता से मुठभेड़ का उद्यम है। इस मंथन में भारतीय समाज ने अपने अतीत और वर्तमान में श्रेष्ठ की पहचान कर उसे अंगीकार किया और साथ ही अपने भीतर के सड़े गले अंशों को त्यागा। इस वैचारिक संघर्ष में भारत ने एक अपनी देशज आधुनिकता का निर्माण किया। हमारा संविधान इस ठेठ भारतीय आधुनिकता की अभिव्यक्ति है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारतीय गणतंत्र के स्वधर्म को लिपिबद्ध करती है। उसके शब्द पश्चिमी राजनीतिक चिंतन से आयातित प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन हमने इन शब्दों को भारतीय अर्थ में परिभाषित किया। स्वतंत्रता के विचार की जड़ में व्यक्तिवादी उन्मुक्तता नहीं बल्कि समुदाय से भीतर और उसके साथ हासिल की गई आज़ादी है। समता के विचार की जड़ में करुणा का भाव है। सहअस्तित्व के विचार की जड़ में मैत्री का दर्शन है। स्वयं बाबासाहब ने कहा था कि ये कोई ना समझे कि मैंने लिबर्टी, इक्वलिटी और फ्रटर्निटी के विचार फ्रांस से लिए हैं, मैंने इन्हें अपने गुरु गौतम बुद्ध से सीखा है।
इसी तरह भारतीय संविधान का संस्थागत ढांचा पश्चिम की लोकतांत्रिक व्यवस्था को हमारी जरूरत और हमारे दर्शन के अनुरूप ढालता है। यूरोप के इकहरे राष्ट्र-राज्य की नक़ल करने की बजाय हमने विविध भारती की संकल्पना के अनुरूप अपनी संस्थाओं का निर्माण किया। अमरीका के संघीय ढांचे को अपनाने की बजाय हमने अपनी परिस्थिति के अनुरूप यूनियन ऑफ़ स्टेट्स बनाया। फ्रेंच सेकुलरवाद की जगह अपने सर्वधर्मसमभाव के दर्शन के आलोक में बहुधार्मिक समाज की मर्यादा तय की। और हाँ, अस्पृश्यता का उन्मूलन और जाति व्यवस्था को उखाड़ने का संवैधानिक संकल्प भी हमारे अपने समाज की संत परंपरा का हिस्सा है जिसने सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ जंग लड़ी।
यूँ कह लीजिए की भारतीय संविधान की भारतीयता कुछ ब्रेड पकौड़े जैसी है। एक विदेशी ब्रेड को देसी घोल में डुबाकर उससे एक खाँटी भारतीय स्वाद का व्यंजन तैयार कर देना हमारी भारतीयता है।