राजीव लोचन साह
नरेन्द्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बने हुए तीन महीने भी नहीं हुए हैं, मगर उनके शासन में बहुत बड़ा फर्क दिखाई देने लगा है। अब तक वे एक बहुत ताकतवर और जिद्दी प्रधानमंत्री थे। वे किसी की राय लिये बगैर जिस तरह से चाहते फैसले लेते और एक कदम भी पीछे नहीं हटते। संसदीय विपक्ष हो या बाहर से राय देने वाले विशेषज्ञ, नरेन्द्र मोदी टस से मस नहीं होते थे। एकमात्र अपवाद शायद तीन कृषि कानूनों को वापस लिया जाना था। मगर उसके लिये हजारों किसानों को साल भर से अधिक समय तक सड़कों पर आन्दोलन करना पड़ा और सैकड़ों की संख्या में अपना बलिदान करना पड़ा, तब जाकर मोदी जी को प्रतीति हुई कि उनकी तपस्या में कुछ कमी रह गई होगी। उनका सबसे खतरनाक और विवादास्पद निर्णय था नोटबन्दी लागू करना, जिसने देश की अर्थव्यवस्था को जड़ों तक हिला कर रख दिया था। मगर उनके इस तीसरे कार्यकाल में तीन महीने के भीतर तीन फैसले वापस लिये गये हैं। अगस्त प्रारम्भ में केन्द्र सरकार वक्फ संशोधन कानून संसद में लायी, मगर विरोध की आवाजें उठती देख कर उसे तत्काल एक संसदीय समिति को समीक्षा के लिये सौंप दिया गया। इसी तरह सरकार ने मीडिया को काबू में रखने के लिये एक ब्रॉडकास्ट सर्विसेज रेगुलेशन एक्ट बनाने की पहल की थी। मगर विरोध को देखते हुए फिलहाल वह कोशिश भी रोक दी गई है। इसी तरह यू.पी.एस.सी. का 45 पदों पर नियुक्ति का विज्ञापन भी विरोध को देखते हुए फटाफट वापस ले लिया गया। ये तीनों घटनायें नरेन्द्र मोदी सरकार के चरित्र के एकदम विपरीत हैं। या तो मोदी अब महसूस करने लगे हैं कि विरोध के बीच जिद में अपनी मनवाने की राजनीति उनकी गठबंधन सरकार के लिये सम्भव नहीं है। या उनमें विरोध झेलने की अब शक्ति नहीं बची। प्रतिपक्ष के जायज सुझावों का सम्मान करना एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। मगर अच्छा यह होगा कि सरकार कोई कानून बनाने कर कोशिश करने से पहले उस पर व्यापक चर्चा करवा ले।