हिमाशु जोशी
पुलिस सुधार में देरी का नतीज़ा है यह मुड़भेड़
● कानपुर एनकाउंटर देश के पूरे पुलिस ढांचे पर सवाल है।
● आज़ादी से अब तक 33000 से ज़्यादा पुलिसकर्मी अपने कर्तव्य के दौरान शहीद हुए हैं।
● पुलिस के मानवाधिकार पर चर्चा कम ही की जाती है।
● पुलिस सुधार की रिपोर्टें सरकारी दफ्तरों की अलमारियों में धूल फांक रही हैं।
कानपुर में एक शातिर अपराधी विकास दूबे को पकड़ने गयी पुलिस टीम पर हमला किया गया जिसमें आठ पुलिसकर्मी शहीद हो गए।
60 से ज्यादा दर्ज मुकदमों वाला अपराधी विकास दूबे पुलिस के छापा मारने की सटीक सूचना मिलने पर भागता नही है और घात लगा कर पुलिस टीम पर हमला करता है तो इस पर हमारे पूरे पुलिस ढांचे पर ही सवाल उठता है। यह बात तहकीकात के बाद सामने आ ही जाएगी कि इस वीभत्स घटनाक्रम के पीछे कोई विभीषण शामिल था या नही पर यह समय भारत की पुलिस के ढांचे पर चर्चा का सबसे उपयुक्त समय है ताकि फिर से कोई जाबांज़ पुलिसकर्मी ऐसे अपराधियों से निपटने में अपनी जान ना गंवाएं।
*पुलिसकर्मियों की भुला दी गयी शहादत*
गुलाम भारत में जलियांवाला बाग हत्याकांड को पुलिस द्वारा गुलाम भारतीयों पर किए गए सबसे बड़े अत्याचार के रूप में याद किया जाता है।
आज़ाद भारत की बात करें तो 2 मई 1987 को मेरठ के हाशिमपुरा कांड में पुलिस की गोलियों से 42 लोगों की जान चली गयी थी।
23 जुलाई 1999 को तमिलनाडु के मन्जोलाई में पुलिस के लाठीचार्ज की वज़ह से 17 मौतें हुई थी।
तमिलनाडु के ही थूथुकुड़ी में 22 मई 2018 को स्टरलाइट कॉपर के खिलाफ किए गए प्रदर्शन में हालात बेकाबू होने पर पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में 13 मौतें हुई थी।
कोरोना काल में पुलिसकर्मियों पर कोरोना के प्रसार को रोकने की बड़ी जिम्मेदारी है। लॉकडाउन का सख्ती से पालन कराने के लिए पुलिसकर्मियों का जनता के साथ सीधा संपर्क है। सैंकड़ों पुलिसकर्मी अपने कर्तव्य का पालन करने के दौरान कोरोना पॉज़िटिव पाए गए हैं।
अकेले महाराष्ट्र में ही कोरोना की वजह से 30 पुलिसकर्मी शहीद हुए हैं।
गृह मंत्रालय , भारत सरकार से जुड़ी पुलिस की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार आज़ादी के बाद से 33000 से ज़्यादा पुलिसकर्मी अपने कर्तव्यपालन के दौरान शहीद हुए हैं।
*पुलिस के लिए मानवाधिकार*
2008 से 2009 तक आयोजित ‘ह्यूमन राइट्स वाच फ़ील्ड’ की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश के एक पूर्व महानिदेशक का कहना है कि यदि आप एक अमेरिकी पुलिसकर्मी को यहाँ ले आए तो वह एक दिन में ही आत्महत्या कर लेगा। यहाँ 8 या 10 घण्टे की ड्यूटी शिफ्ट नही है यहाँ के पुलिस कर्मियों को 24 घण्टे काम करना पड़ता है।
संयुक्त राष्ट्र के सुझाए मानकों के अनुसार प्रति एक लाख व्यक्तियों पर 222 पुलिस बल होना चाहिए और पब्लिक रिलेशन सोसायटी ऑफ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार भारत में यह संख्या प्रति लाख पर मात्र 137 की है।
कम रैंक के पुलिस अधिकारी बैरकों की गन्दी शौचालय से रोज़ रूबरू होते हैं और अपने लिए सिर्फ एक बेड की जगह में आपस में नोकझोंक करते हैं और तंग रहते हैं। जिस ठंड में एक बेसहारा, सड़क में सोने वाला व्यक्ति सुबह मृत मिलता है उस ठंड में पुलिसकर्मी बिना छत के रात भर हमारी सुरक्षा के लिए गश्त करते हैं।
‘ह्यूमन राइट्स वॉच फील्ड’ के अनुसार बहुत से पुलिसकर्मी प्रतिष्ठा का प्रतीक वीआईपी सुरक्षा में लगे हुए हैं। कानून व्यवस्था बनाने के लिए भर्ती हुआ पुलिसकर्मी किसी का निजी सुरक्षाकर्मी बन जाता है।
मानवाधिकार का संरक्षण सिर्फ विकास दूबे जैसे अपराधियों के लिए ही होता है और पुलिसकर्मियों के मानवाधिकार की कभी चर्चा नही की जाती है। मानवाधिकार उल्लंघन पर पुलिस के ऊपर मजिस्ट्रेटी जांच का प्रावधान है और इन आरोपों की वज़ह से कई पुलिसकर्मियों का पूरा जीवन बर्बाद हो गया है। बहुत से पुलिसकर्मी मानवाधिकार उल्लंघन पर मुकदमों का सामना कर रहे हैं तो कुछ सलाखों के पीछे अपनी ज़िंदगी काट रहे हैं।
*पुलिस सुधार पर धूल फांक रही रिपोर्टें*
7 फरवरी 1979 को श्री धर्मवीर की अध्यक्षता में छह लोगों की समिति ने सरकार को राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट सौंपी थी।
आयोग द्वारा दिए गए सुझाव निम्न हैं-
– सभी राज्यों में पुलिस संघ की मान्यता।
– कांस्टेबलों को अकुशल कर्मचारियों की जगह रखने के बजाए उन्हें कुशल कर्मचारी माना जाए।
– पुलिस के अराजपत्रित कर्मचारियों को रियायती दर पर चावल, गेंहू, चीनी जैसी आवश्यक वस्तुओं का वितरण किया जाए।
– सभी पुलिसकर्मियों को सप्ताह में एक दिन आराम दिया जाए और उनसे आठ घण्टे का कार्य लिया जाए। अतिरिक्त ड्यूटी के लिए पुलिसकर्मियों को वित्तीय मुआवजा दिया जाए।
दिसंबर 1993 को तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एनएन वोहरा ने अपनी रिपोर्ट गृहमंत्री को सौंपी थी। रिपोर्ट में कहा गया, ‘इस देश में अपराधी गिरोहों, हथियारबंद सेनाओं, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले माफिया गिरोहों, तस्कर गिरोहों, आर्थिक क्षेत्रों में सक्रिय लॉबियों का तेजी से प्रसार हुआ है।
इन लोगों ने विगत कुछ वर्षों के दौरान स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों, सरकारी पदों पर आसीन लोगों, राज नेताओं, मीडिया से जुड़े व्यक्तियों तथा गैर-सरकारी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के साथ व्यापक संपर्क विकसित किए हैं।’
इस रिपोर्ट पर गम्भीरता से कार्य किया जाता तो आज शायद हमारे यह आठ पुलिसकर्मी भी शहीद नही हुए होते।
रिटायर्ड डीजीपी जूलियो एफ रिबेरो की अध्यक्षता वाली समिति ने अक्टूबर 1998 में पहली रिपोर्ट दी। इसने हर राज्य में पुलिस परफॉर्मेंस ऐंड एकाउंटिबिलिटी कमीशन (पीपीएसी) और हर जिले में पुलिस शिकायत अथॉरिटी (डीपीसीए) बनाने की सिफारिश की।
मार्च 1999 में सौंपी दूसरी रिपोर्ट में केंद्रीय पुलिस समिति बनाने, जांच और कानून-व्यवस्था के लिए अलग-अलग बल तैनात करने, हर राज्य में पुलिस भर्ती बोर्ड बनाने जैसे सुझाव दिए गए।
पुलिस सुधार पर बात हो और उसमें प्रकाश सिंह का नाम शामिल ना हो यह बात निराश कर सकती है।
पुलिस सुधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने 22 दिसम्बर 2006 में प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ पर एतिहासिक निर्णय देते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को सात अहम सुझाव दिए थे। इन सुझावों के प्रमुख बिंदु हैं-
– हर राज्य में एक सुरक्षा परिषद का गठन।
– डीजीपी, आईजी व अन्य पुलिस अधिकारियों का कार्यकाल दो साल तक सुनिश्चित करना।
– आपराधिक जांच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून व्यवस्था के दायित्व से अलग करना और एक पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन।
राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल पुलिस सुधार कार्यक्रम की समन्वयक देविका प्रसाद की एक रिपोर्ट के अनुसार पुलिस सुधार अब भी सिर्फ कागजों पर ही हैं।
*पुलिस सुधारों को लागू करने का सही समय*
भारत में मोदी सरकार आने के बाद से सुशासन पर ज़ोर दिया गया है। लॉकडाउन में हम सुशासन स्थापित करने के लिए पुलिस की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है यह देख ही चुके हैं।
देश में सुशासन लाने के लिए पुलिस ढांचे में सुधार की सख्त आवश्यकता है।
‘द सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़’ की ‘भारत में पुलिस की स्थिति रिपोर्ट 2019 : पुलिस की पर्याप्तता और कार्य करने की स्थिति’ रिपोर्ट में पुलिस के बारे में कहा गया है कि एक तिहाई पुलिस अफसरों ने यह माना है कि यदि उन्हें समान वेतन और सुविधाओं वाली कोई अन्य नौकरी दी जाए तो वह अपनी पुलिस की नौकरी छोड़ देंगे।
हमारी पुलिस आधुनिक हथियारों से लैस अपराधियों से लड़ने में कितनी सक्षम है यह हमें कैग की एक रिपोर्ट से पता चलता है। कैग के अनुसार राज्य के पुलिस बलों के पास हथियारों की भारी कमी पायी गई है।
कांस्टेबल पुलिस की रीढ़ की हड्डी होता है। जमीनी स्तर पर उसे ही सारे कार्य करने करने होते हैं। उन्हीं कांस्टेबलों की शैक्षिक योग्यता मात्र बारहवीं कक्षा है और उनसे हम डॉक्टरों, वकीलों, इंजीनियर, नेताओं और इन शातिर अपराधियों से निपटने की उम्मीद रखते हैं।
पुलिस ट्रेनिंग में सिर्फ शारीरिक क्षमता को बढ़ाने पर ही ज़ोर दिया जाता है यह अंग्रेजों के गुलाम भारत के लिए सही था पर अब पुलिसकर्मियों को नए-नए तरीकों से किए जा रहे साइबर अपराधों से निपटना पड़ रहा है।
एक कांस्टेबल अपनी सेवा के दौरान सिर्फ एक बार प्रोन्नत किया जाता है यह बात उसके प्रदर्शन पर विपरीत असर डालती है।
देश की सीमाओं पर तैनात जवानों की तरह ही देश के अंदर हमारी सुरक्षा में 24 घण्टे मौजूद पुलिसकर्मियों की स्थिति पर सरकार द्वारा कोई ठोस निर्णय लिए जाने का शायद यही सबसे सही समय है।
यही कानपुर एनकाउंटर के शहीदों को हमारी ओर से सच्ची श्रद्धांजलि होगी।