बीज बचाओ आन्दोलन के संयोजक विजय जड़धारी ने केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री नई दिल्ली, माननीय श्री भूपेन्द्र यादव जी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने उत्तराखण्ड में हुई अग्नि दुर्घटनाओं के संबंध कुछ सुझाव मंत्री जी को दिए।
पत्र की शुरुआत करते हुए जड़धारी जी लिखते हैं कि सर्वप्रथम पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री बनने पर आपको हार्दिक बधाई एवं उत्तराखण्ड के टिहरी गढ़वाल में अग्नि दुर्घटनाओं के अध्ययन भ्रमण के लिए धन्यवाद । आपने अग्नि दुर्घटनाओं के संदर्भ मे अनेक सुझाव इकट्ठे किए होंगे। हमें आपके कार्यक्रम की जानकारी बाद में मिली। चिपको आन्दोलन, खनन विरोधी आन्दोलन व बीज बचाओ आन्दोलन के लम्बे अनुभव के आधार पर हम भी जंगल की आग रोकने के लिए अपने कुछ सुझाव देना अपना कर्तव्य समझते हैं। निसन्देह हिमालय क्षेत्र मे जंगलों में लगने वाली आग विगत कुछ वर्षों से भारी चिंता का विषय है, इसका समाधान अब युद्धस्तर पर होना चाहिए बरसात आने के बाद हम हर वर्ष की भांति भूल न जायें।
उत्तराखंड में हुए चिपको आन्दोलन का ज़िक्र करते हुए वो कहते हैं उत्तराखण्ड जंगलों को बचाने के लिए विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन की धरती है और टिहरी गढवाल की हेंवलघाटी जहां से आप गुजरे और आगराखाल जहां अपने मिटिंग की यहां अदवाणी गांव के जंगल में 1977-78 में चिपको आन्दोलन ने एक नारा दिया था- क्या है जंगल के उपकार -मिट्टी, पानी और बयार मिट्टी, पानी और बयार – जिन्दा रहने के आधार
इस नारे के साथ चिपको आन्दोलन का नया दर्शन निकला जिसे तब केन्द्रीय सरकार ने स्वीकार किया और 1981 मे हिमालयी क्षेत्र मे 1000 मीटर से अधिक ऊँचाई पर हरे पेड़ों के व्यापारिक कटान पर रोक लगी जो सर्वोच्च न्यायालय की दखल के बाद अब भी जारी है। उसके बाद ही वन मंत्रालय के साथ पर्यावरण जुड़ा और कुछ वर्ष पूर्व इसके साथ जलवायु परिवर्तन भी जुड़ा। चिपको आन्दोलन का एक और नारा था –
आज हिमालय की ललकार-वन पर गांवों का अधिकार पर्यावरण चेतना के पहले नारे को कुछ हद तक सरकार ने कबूल किया किन्तु दूसरे नारे को सरकार ने दर किनारे कर स्थानीय मूल निवासियों के हक हकूकों की उपेक्षा तो की ही साथ ही वन विभाग को वन और प्राकृतिक संसाधनों का मालिक बना दिया। जिसका खामियाजा है जंगल की आग बुझाने में समुदायों की उदासीनता है। पहले लोगों का प्रेम और अपनत्व जंगलों से था, आग लगने पर सभी लोग मिल जुल कर बुझाते थे, जो अब कम होने लगा है।
पूरे देश के लिए गौरव की बात है चिपको आन्दोलन की जागरूकता से उत्तराखण्ड में वनों का क्षेत्रफल बढ़कर 71.05 तक बढ़ा दिया जबकि देश के कई क्षेत्रों मे हरियाली कम हुयी है। आज चीड़ को आग के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है, लेकिन इसी चीड़ ने नंगी धरती पर स्वयं उगकर हरियाली बढाने का काम किया, लोगो के वन प्रेम ने उसे रोका नहीं समुदायों ने अपने आस-पास के सिविल सोयम व आरक्षित वृक्ष विहीन वन भूमि का संरक्षण कर बांज – बुरांश के मिश्रित सामुदायिक जंगल तैयार कर जोरदार उदाहरण पेश किए जो आज भी जारी है। पलायन को अभिशाप माना जाता है किन्तु पलायन कर गये लोगों के बंजर खेतों में प्रकृति ने पारस्थितिकी के अनुकूल हरे-भरे पेड़-पौधों से ढक कर हरियाली बढाने का काम किया, पहाड़ के किसान भी अपने खेतों में जैविक / प्राकृतिक खेती में मंडुआ झंगोरा बारहनाजा की फसलें उगाते हैं, जो C4 श्रेणी मे आती है साथ ही अपने खेतो के आस-पास व गेंढ़ पर चारा, पति, ईंधन व फलदार पेड़ भी पालते हैं। वनविभाग एवं सरकारी गैर सरकारी वनीकरणों से धरातल पर नही सिर्फ सफेद कागज की फाइलों पर हरियाली बढ़ी है। जंगलों के साथ-साथ हर तरह की जैव विविधता भी बढ़ी। जंगली जानवर गुलदार, सुअर व बन्दरों टोलियां खेती में फसलों को तबाह कर किसानों में निराशा लाने लगी, तो हर वर्ष गुलदार के हमले से दर्जनों बच्चों, महिलाओं व पुरुषों जान चली जाती है। माताओं की गोद खाली हो जाती है। ऐसे मे आम जन जंगलों को दोष देने लगे हैं। हम लोग भी लोगों को समझाने में असफल हैं।
वो आगे लिखते हैं कि सारे देश दुनिया को प्राणवायु आक्सीजन देने वाले हिमालय के जंगल, हिमालय के ग्लेशियर,, गंगा, यमुना व उनकी सहायक सैकड़ों नदियाँ, गाड़-गदेरे (गैर बर्फानी नदियां ) उत्तर भारत के जीवन का आधार है। सिर्फ हवा पानी नहीं अपितु उपजाऊ मिट्टी की आपूर्ति भी पहाड़ों से होती है। गंगा-यमुना के मैदान उपजाऊ इसी की बदौलत है और हिमालयी वनों मे लगी आग के बाद जब बारिश होती है तो मिट्टी क्षरण व भूस्खलन से पहाड़ तबाह होते हैं, और उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। नदियाँ, पहाड़ो से कंकड़ पत्थर और बालू भी बहा कर मैदानों मे ले आती हैं उपजाऊ मिट्टी पहाड़ों का मांस है पत्थर व बालू, हड्डियों का चूरा, इससे शहरी सभ्यता के प्रतीक बहूमंजिलें भवन सजित होते हैं। भागीरथी नदी पर एशिया का सबसे बडा बांध टिहरी मे बना है इससे उत्पन्न बिजली के राजस्व का सिर्फ 12 प्रतिशत हिस्सा उत्तराखण्ड को मिलता है। शेष पर केन्द्र व उत्तर प्रदेश का कब्जा है टिहरी बांध से उत्पन्न बिजली व पानी दिल्ली मे एक सीमा तक मुफ्त वितरित होती है किन्तु बांध के लिए कुर्बानी देने वाले मूल निवासियों को बहुत मंहगे दाम चुकाने पड़ते है। केन्द्र सरकार ने जैव विविधता एक्ट 2003 बनाया है, जिसके तहत जैव विविधता बोर्ड को राज्य, जिला, ब्लॉक व गाँव तक जैव विविधता व जंगल आधारित उपज का । Access and Benefit Sharing के अन्तर्गत लाभ देना चाहिए किन्तु सरकार वन विभाग जंगलों से खूब कमाई करता है किन्तु समुदायों को कुछ नहीं मिलता। उपरोक्त अनेक कारणों से जंगलों के प्रति स्थानीय समुदायों का दिन प्रतिदिन मोह भंग होता जा रहा है। वन विभाग के प्रति एवं सरकारी नीतियों के प्रति आक्रोष बढ़ता जा रहा है। आग लगने का एक कारण यह भी है।
उन्होंने स्पष्ट तौर पर लिखा कि आग स्वयं कहीं नहीं लगती, आग लगायी जाती है इसके कारणों पर शोध की जरूरत है किन्तु प्रथम दृष्टया, स्थानीय निवासियों द्वारा खेतों मे आड़ा, कटीली झाड़ी जलाते वक्त सावधानी न बरतने पर आग लग जाती है। वन विभाग सरकारी व गैर सरकारी वृक्षारोपण जो असफल रहते हैं, संबन्धित विभाग भी अपना दोष छिपाने के लिए आग लगाने में सहायक हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्र में शिकारी भी इरादातन आग लगाते हैं वन माफिया आग लगा कर वन विभाग व वन निगम के साथ साठ-गांठ कर वन संपदा नष्ट करते हैं और बाद में निलामी के जरिए सस्ते मे वन संपदा का दोहन करते है। वे इसकी आड़ मे वे अवैध वन कटान भी करते हैं। वन माफियों व सरकार में बैठे उच्च अधिकारी एवं राजनेताओं की एक बडी लावी जंगलों की आग के लिए चीड़ को दोषी मानते हुए चिपको आन्दोलन के फलस्वरुप 1981 मे हिमालयी क्षेत्र मे 1000 (एक हजार) मीटर से अधिक ऊँचाई तक व्यापारिक कटान पर लगी रोक को हटाने और जंगलों का दोहन चिपको आन्दोलन से पूर्व की तरह करवाकर अकूत धन संपदा बटोरने का सपना संजोये हैं यदि ऐसा हुआ तो यह विनाश के लिए न्योता साबित होगा ।
फिर अपने पत्र में उन्होंने कुछ सुझाव भी मंत्री जी को दिए और बताया कि ऐसी स्थिति में सरकार को क्या करना चाहिए-
1. पहले स्थानीय निवासियों को घर बनाने के लिए निःशुल्क या फ्रीग्रांट की लकडी चीड़, देवदार व अन्य प्रजाति के हरे पेड़ मिलते थे। जिसे ’हक हकूक’ की लकडी या रम्मना कहा जाता था कुछ वर्षों से यह बन्द है उसे तुरंत ग्रामीणों के लिए आरम्भ किया जाना चाहिए ।
2. आपने वन विभाग द्वारा स्थापित आग बुझाने के क्रूऊ स्टेशन का उजला पक्ष देखा किन्तु उसकी सच्चाई देखिए- पार्टटाइम मानदेय पर रखे गये फायर वाचरों को वन विभाग 380 रू० / प्रतिदिन निर्धारित करता है, किन्तु पूरे महीने के लिए नही अपितु 26 क्विन का बिल बनाते है प्रतिमाह 04 रविवार कम कर देते हैं। जैसे कि हर रविवार को आग नहीं लगेगी। पूरे वर्ष भी नहीं रखते, वन विभाग ने भारत में सातवीं ऋतु, मई-जून को फायर सीजन बना दिया है। हालांकि चिंता की बात है जलवायु परिवर्तन के कारण अब वर्ष भर हर माह भी आग लगती हैं, फायर वाचर / फायर गार्ड आग लगने पर जंगल में दिनरात भूखे प्यासे रहकर जंगल की आग बुझाते हैं और कभी-कभी अपनी जान भी दे देते है जैसे कि हाल ही में अल्मोड़ा जिले में आग बुझाते समय 04 फायर कर्मियों की जान चली गयी। फायर गार्डों को कम से कम होमगार्ड के मानकों के आधार पर मान देय दिया जाना चाहिए।
3. स्थानीय लोग अपने आस-पास के जंगलों के विशेषज्ञ होते हैं। जंगल की आग सिर्फ वही सफलता से बुझा सकते हैं। उनकी सहभागिता के बिना जंगल की आग नहीं बुझायी जा सकती । इसलिए जरूरी है ग्राम सभाओं व वन पंचायतों को आग बुझाने का बजट मिले, और उनका जंगलों से खेती किसानी, पशुपालन, घास – लकड़ी जंगली फल, फूल व साग सब्जी लेने का मजबूत रिश्ता वापिस लौट सके। जंगल से आजीविका का रिश्ता लौटाना होगा.
4. उत्तराखण्ड उत्तर भारत के लिए जिन्दा रहने के बहुमूल्य आधार अपने जंगलों से परोस कर हवा एवं पानी अपनी हरित सेवायें देश और दुनिया को दे रहा है। इसका विधिवत अध्ययन किया जाना चाहिए, कुछ अध्ययन पहले से हैं, उत्तराखण्ड को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के मानकों के अनुसार ग्रीन बोनस मिलना चाहिए। ग्रीन बोनस वन पंचायतों, को सीधे मिलना चाहिए। जिसका उपयोग आजीविका वन संरक्षण, वृक्षारोपण, जनजागरण एवं आग लगने पर उसके नियंत्रण के लिए किया जाना चाहिए।
5. उत्तराखण्ड अपने सघन वनों के कारण प्राण वायु आक्सीजन का आपूर्ति के साथ-साथ उत्तरप्रदेश व राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लिए पेयजल व सिंचाई के पानी की आपूर्ति कर बहुत उपयोगी मानवीय सेवा दे रहा है। इसलिए जरूरी है कि उत्तराखण्ड की ग्रामीण आबादी को इसके बदले ग्रीन बोनस मिले। यह बोनस यहाँ के आम निवासियों को बिजली पानी एवं गैस की आपूर्ति में सब्सिडी के मार्फत दिया जाना चाहिए। जंगल की आग रोकने का यह एक तरह का डवन. होगा यदि यह लागू हुआ तो हिमालय के वनों को अग्नि दुर्घटनाओं से बचाया जा सकता है।
6. केन्द्र सरकार व राज्य सरकार जंगली जानवर खासकर सुअर व बन्दरों से किसानों की फसल सुरक्षा की गारण्टी दें और गुलदार व तेंदुऐं के खतरे कम करने की ठोस नीति बनायी जाए। इस से जंगल सुरक्षा को बल मिलेगा। प्रभावित किसानो एवं गुलदार द्वारा प्रभावित परिवारों के लिए विशेष मुआवजा मिलना चाहिए। किसानों के लिए यह आपदा से कम नहीं है।
7. चीड़ के पेड़ों की व्यापक उपयोगिता बढ़ाने के लिए युद्धस्तर पर चीड़ की पत्तियों से बिजली कोयला और व्यापक बहुमूल्य उत्पाद बनाये जाये, उत्तराखण्ड सरकार की घोषणा चीड़ के पिरूल की खरीद व्यापक स्तर पर हो चीड़ को अग्नि दुर्घटनाओं के लिए दोषी मानते हुए की इस आड़ में चिपको आंदोलन के बाद हिमालय के जंगलो में हरे पेड़ों के कटान पर लगा प्रतिबंध न हटाया जाय। चीड़ के नये विस्तार को रोकने की योजना बनाई जाए। वरना चीड़ बांज के मिश्रित जंगलों पर भी कब्जा कर लेगा। चीर के बनों के बीच बांज- दुराध के पेड़ लगा कर मिश्रित जंगल में बदलना हो।
8. आग लगाने वालों के विरूद्ध तो कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए साथ ही आग बुझाने में सहयोग न करने वाले वन कर्मियों व ग्रामवासियों की जिम्मेदारी सुनिश्चित करते हुए दण्डात्मक कार्यवाही के लिए नया कानून बनाया जाना चाहिए।
9. जंगलों के प्रति समुदायों का अपनत्व व प्रेम बढ़ाने के लिए उपरोक्त बिन्दुओं पर यदि सरकार ध्यान देती है तो लोग अपने आस-पास के जंगलों को पालेंगे पोसेंगे। उत्तराखण्ड में खासकर टिहरी जिले के प्रतापनगर ब्लॉक व चम्बा ब्लॉक में जहाँ-जहाँ लोगों मे सामुदायिक जंगलों का संरक्षण किया है वहां के लोग अपनी जान जोखिम में डाल कर भी प्रतिवर्ष अग्नि दुर्घटनाओं से आग बुझाते हैं।
10. सामुदायिक जंगल संरक्षण का एक सफल उदाहरण टिहरी जिले के विकासखण्ड चम्बा का हमारा जड़धार गाँव का है। यहाँ पर 1980 से पूर्व में नष्ट हुए बांज बुराँश के आरक्षित जंगल को पुनर्जीवित कर लगभग 8 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल पर बांज बुराँश के मिश्रित जंगल की हरियाली लौटाने का महत्वपूर्ण कार्य ग्राम समुदाय ने किया है। पिछले 44 सालों से यहां पर वन सुरक्षा समिति अब वन पंचायत भी मुस्तैदी से दूसरे जंगलो से भी यहां आग नहीं आने देती। सिर्फ संरक्षण से करोड़ो बांज बुराँश व अन्य मिश्रित वनस्पति वाला सामुदायिक जंगल इतना सघन है कि अब यहां सूर्य की रोशनी जमीन तक नहीं जाती। इस तरह के सामुदायिक जंगल संरक्षण करने वाले ग्रामीणों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
अपने पत्र को समाप्त करते हुए उन्होंने लिखा कि उपरोक्त बिन्दुओं के अलावा भी अन्य जंगल संरक्षण के कार्यों की तलाश की जानी चाहिए और उन पर कार्यवाही होनी चाहिए। गंगा और हिमालय हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है, किन्तु देश और दुनिया को जिन्दा रखने की महत्वपूर्ण विरासत है जिसका आधार जंगल ही है, जंगल के नाश का मतलब है सर्वनाश। राष्ट्र सुरक्षा के लिए इस पर गम्भीरता से सोचा जाना जरूरी है।