कमलेश जोशी
मानव इतिहास की सबसे बड़ी खोजों में से एक खोज रही है पहिये का आविष्कार. पहिये की खोज ने मनुष्य के जीवन को इतना सुगम बना दिया है कि यदि सात समुद्र पार किसी देश में जाना हो तो पहिये के सहारे रनवे पर दौड़ते हवाई जहाज से चंद घंटों का हवाई सफर तय कर उस देश पहुँचा जा सकता है. आदिम काल से अब तक मनुष्य की तमाम यात्राओं में पहिये ने अलग-अलग तरीके से अपनी भूमिका निभाई है. आज दो पहिया और चार पहिया वाहन आम बात हो गयी है. लेकिन ज़्यादा समय नहीं बीता जब दो पहिया वाहन होना बड़ी बात हुआ करती थी. आजादी के बाद भारत की ग्रामीण पृष्ठभूमि को यदि देखें तो बैलगाड़ी के रूप में दो पहिया वाहन सबसे ज़्यादा प्रचलित हुआ. डनलप टायर उस समय भारत में इतना बड़ा ब्रांड था कि ग्रामीण लोग बैलगाड़ी को बैलगाड़ी न कहकर डल्लब (डनलप का अपभ्रंश नाम) कहा करते थे. छोटी-बड़ी यात्राओं के लिए बैलों को डल्लब में जोत दिया जाता और मीलों की यात्राएँ तय की जाती.
आजादी के बाद जहाँ एक ओर साल 1951 में हरियाणा के सोनीपत में जानकीदास कपूर ने ऐटलस साइकिल इंडिया लिमिटेड के नाम से भारत की पहली साइकिल कंपनी की शुरूआत एक टिन शेड के नीचे की तो वहीं दूसरी ओर साल 1956 में लुधियाना में हीरो साइकिल कंपनी की मुंजाल परिवार द्वारा नींव रखी गई. जो बाद में भारत की सबसे बड़ी साइकिल मैन्युफ़ैक्चरर कंपनी बनी. साल 1961 में ऐटलस ने दस लाख साइकिलें बनाने का दावा कर एक विज्ञापन पोस्टर निकाला जिसने समाज में फैले उस मिथक को तोड़ने की कोशिश की जिसमें महिलाएँ साइकिल में सिर्फ पुरूषों के पीछे बैठ सकती थी. साड़ी पहनी एक महिला को बहुत ही सहज रूप में साइकिल में बैठा दिखाया गया और शुरूआत हुई महिलाओं के अलग साइकिल सैगमेंट की. साल 1982 के दिल्ली एशियाई खेलों में ऐटलस रेसिंग साइकिल सप्लाई करने के लिए आधिकारिक रूप से चुनी गई. वहीं इस दौरान हीरो इतनी बड़ी कंपनी बन गई कि साल 1986 में हीरो का नाम सबसे बड़ी साइकिल मैन्युफ़ैक्चरर कंपनी के रूप में गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकॉर्ड में दर्ज हुआ. आज भी हीरो कंपनी लगभग 18500 से ज्यादा साइकिलें प्रतिदिन मैन्युफ़ैक्चर करती है जबकि दुर्भाग्यवश कोरोना महामारी के बाद ऐटलस को वित्तीय घाटे के कारण अपनी कंपनी बंद करनी पड़ी.
लगभग 90 के दशक तक भी साइकिल भारत के ग्रामीण इलाकों की लाइफलाइन थी. उस जमाने में साइकिल का होना गर्व की बात होती थी. यहाँ तक कि शादी-ब्याह में दहेज में साइकिल दिये जाने का प्रचलन था. हीरो और ऐटलस की साइकिल बाजार में धूम थी. जैसे आज छोटे बच्चों की जिद होती है साइकिल उस जमाने में बड़े बच्चों की जिद हुआ करती थी. जितना कठिन आज के दौर में मध्यम आय वर्ग के माँ-बाप के लिए बच्चों को मोटरसाइकिल दिलवाना है उतना ही कठिन उस दौर में साइकिल दिलवाना होता था.
साइकिल सीखना भी किसी मैकेनिकल इंजीनियरिंग से कम नहीं था. शुरूआत कैंची से होती थी. कई महीने कैंची चलाने के बाद डंडी तक पहुँचा जाता था और डंडी में महारत हासिल होने के बाद ही गद्दी नसीब होती थी. कैंची से गद्दी तक का यह सफर सैकड़ों बार गिरने, चोट खाने और शरीर में घाव लगने के बाद ही पूरा होता था. आज की साइकिलों के मुकाबले पुरानी साइकिलें काफी मजबूत और बहुउपयोगी होती थी. कुंटलों के हिसाब से लोग साइकिलों से ही माल ढुलाई कर लिया करते थे. गाँवों में साइकिल न सिर्फ यात्राओं के लिए उपयोग में लाई जाती थी बल्कि जानवरों के लिए चारा व घर का सामान ढोने के काम भी आती थी. उस समय में साइकिल की बार-बार चैन उतरना, पहिये में लहर आ जाना, साइकिल के कुत्ते फेल हो जाना (जिसमें चैन खुद ब खुद चलने लगती है और पैडल रुकते नहीं हैं) आदि कुछ ऐसी समस्याएँ होती थी जिनसे आम चालक को कई बार जूझना भी पड़ता था.
बाजारवाद के बढ़ने के साथ ही मोटरसाइकिल ने जोर पकड़ना शुरू किया और लोग साइकिल से दूर होने लगे. बच्चों में तो फिर भी साइकिल की उत्सुकता बनी रही लेकिन युवाओं की पहली पसंद मोटरसाइकिल हो गई. मोटरसाइकिल के बढ़ते क्रेज को देखते हुए साइकिल निर्माता कंपनियाँ फ़ैंसी व गियर वाली साइकिलों से साथ बाजार में उतरी जो काफी हद तक सफल रही. आज का युवा फ़ैंसी साइकिलों की तरफ ज़्यादा आकर्षित होता है जबकि प्रौढ़ लोगों को पुरानी साइकिल ही पसंद आती है. मोटरसाइकिल बाजार को बढ़ता देख हीरो ने साइकिल बनाने के साथ-साथ मोटरसाइकिल बनाने के क्षेत्र में भी कदम रखा और साल 1984 में जापान की होंडा कंपनी के साथ साझेदारी की जो लंबे समय तक भारतीय बाजार में अपना प्रभुत्व जमाने में कामयाब रही. साल 2011 में हीरो और होंडा अपनी 26 साल की साझेदारी के बाद अलग हो गए. इसके बाद हीरो ने अकेले दम पर अपने मोटरसाइकिल व साइकिल बाजार को आगे बढ़ाया.
मोटर वाहनों के बढ़ते प्रभुत्व और प्रदूषण को देखते हुए साइकिल की अहमियत समझ में आने लगी है. साइकिल न सिर्फ पैट्रोल-डीजल जैसे कार्बन उत्सर्जकों की खपत को कम कर पर्यावरण की रक्षा करती है बल्कि लगातार साइकिल चलाने वाले शारीरिक रूप से तंदुरुस्त व मोटापे से होने वाली बीमारियों से भी बचे रहते हैं. साइकिल को पर्यावरण हितैषी व सतत विकास के प्रतीक के रूप में देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने साल 2018 में 3 जून को विश्व साइकिल दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की तथा विश्व को ग्लोबल वार्मिंग व सतत विकास में अपना योगदान देने व जिंदगी में सकारात्मक बदलाव लाने के संदेश को दुनिया भर में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित किया. आज की आराम पसंद जिंदगी में हम लोग इतने आलसी हो गए हैं कि छोटी से छोटी दूरी तय करने के लिए भी मोटरसाइकिल या कार का इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते. यह आराम पसंदगी ही है जिस वजह से तमाम बीमारियाँ हमारे शरीर में घर कर रही हैं और बढ़ते प्रदूषण के कारण वैश्विक तापमान वृद्धि हो रहा है. आज विश्व साइकिल दिवस पर हमें इस बात के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिये कि रोजमर्रा की छोटी-छोटी दूरियों को तय करने के लिए साइकिल का इस्तेमाल करेंगे और पैट्रोल डीजल जैसे कार्बन उत्सर्जक ईंधनों का कम से कम इस्तेमाल कर पर्यावरण संरक्षण में अपना छोटा सा योगदान देंगे. आने वाली पीढ़ी का भविष्य हमारी इन छोटी-छोटी कोशिशों पर टिका है. हमें यह सुनिश्चित करना चाहिये कि हम जब भी इस भौतिक संसार को छोड़कर जाएँ, आने वाली पीढ़ी के लिए आज से बेहतर और खूबसूरत दुनिया छोड़कर जाएँ.
One Comment
Raman Kattal
A bicycle is a very good option. It is eco-friendly healthy riding. When I go to Delhi every time I watch many individuals ride small blue bicycles. Small battery is used in these bicycles. Why don’t the authority makes bicycle mandatory though it can make some parts pollution free.