केशव भट्ट
वर्ष 2001 में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान से एडवांस कोर्स करने के बाद प्रातःकालीन भ्रमण का एक नियम सा बन गया था. तब सुबह के साथी मित्र पंकज पांडे हुआ करते थे. सुबह के वक्त पहाड़ी रास्तों में गपशप करते हुए हम दसेक किलोमीटर का चक्कर लगा लेते थे. मन करता था ये रास्ते और सफ़र कभी ख़त्म न हों. हर सुबह किस्से-कहानियों और अनदेखे रास्तों-दर्रों की ही फसक रहती. नए गंतव्यों तक ट्रैकिंग की कल्पनाएं बनती-बिगड़तीं. ‘पहाड़’ के तब के अंक में गंगोत्री गर्ब्याल का यात्रा वृतांत ‘मायके की ओर’ पढ़ा तो मन ब्यास घाटी के लिए तड़पने लगा. तब 2006 में बागेश्वर में करन सिंह नागन्याल पुलिस अधीक्षक के पद पर थे. उनका गांव दारमा घाटी के नागलिंग गांव में है. दारमा और व्यास की घाटियों के ढेरों किस्से वह बड़े मजेदार ढंग से सुनाया करते थे. उनकी बातों से मन दारमा-व्यास की रहस्यमयी घाटियों में भटकने लगता. वह व्यास से सिनला पास होते हुए दारमा ट्रैक करने पर जोर देते थे. “अरे! जब दातु गांव में पहुंचोगो न.. तब सामने पंचाचूली और उसके ग्लेशियर को देखते ही रह जाओगे… और ज्यौलिंकांग में पार्वती ताल में आदि कैलाश का प्रतिबिंब के तो कहने की क्या…! और उस वक्त हवाएं रूकी हों तो फिर समझो आपके भाग खुल गए और सिनला पास से तो चारों ओर हिमालय दिखता है… समझ में नहीं आता है कि चारों दिशाओं में हिमालय कैसे फैल गया है…! एक बार जाओ तो सही वहां… बहुत आनंद आएगा…!”
वर्ष 2007 में मैंने उन्हें बताया कि हम पांच दोस्त सितंबर में इस यात्रा पर जा रहे हैं तो वह बहुत खुश हुए. उन्होंने हमें धारचूला से परमिट बनाते वक्त नोटिफाइड एरिया के परिचित लोगों के कॉलम में उनका नाम और पता लिखने की सलाह दी. हमारी यात्रा से वापस आने तक उनका तबादला देहरादून हो चुका था और अभी वह उंचे ओहदे में अपनी सेवाएं दे रहे हैं.
इस साहसिक यात्रा में मेरे साथ महेश जोशी, पूरन जोशी, पंकज पांडे और संजय पांडे शामिल हुए. 5 सितंबर 2007 को जाना तय हुवा. व्यास घाटी में ऊं पर्वत, आदि कैलाश, सिनला दर्रा पार कर दारमा से परिक्रमा करने के लिए दो टैंट, रुकसेक, रोप, स्लीपिंग बैग, मेट्रेस, किचन का सामान, जरूरी दवाइयों समेत अन्य जरूरी सामान के बोझ तैयार कर लिए गए.
नैनीताल से महेश दा पहुंच चुके थे. इस बीच पंकज के बड़े भाई के एक मित्र का एक्सीडेंट हो गया, तो वह मित्र को लेकर हल्द्वानी चले गए. उन्होंने आश्वस्त किया कि वह 5 को पहुंच जाएंगे. यात्रा एक दिन टल गई. पंकज के बड़े भाई 5 को नहीं पहुंचे तो तय हुआ कि मैं, महेश दा और पूरन 6 तारिख को निकल पड़ेंगे और आगे गर्ब्यांग में रूककर पंकज और संजय का इंतजार करेंगे. गर्ब्यांग में मित्र हीरा परिहार ‘कैलाश मानसरोवर’ यात्रा ड्यूटी में था तो उस के पास इंतजार करने की बात तय हो गई.
6 सितम्बर 2007 की वह मीठी सुबह थी, जब हम तीनों तैयार होकर सामान सहित चौक बाजार राज दा की दुकान के बाहर पहुंचे. थल के लिए गाड़ी मिलने में देर में थी तो ससुराल की वैन से उड्यारी बैंड तक जाने का निश्चय किया. मेरे ककिया ससुर हमें छोड़ने को तैयार हो गए. कुछ देर में राज दा आए और उन्होंने एक पोटली में खट्टी-मीठी टॉफी, नमकीन, चॉकलेट के साथ-साथ ‘हिमालियन मांउटेनियरर्स’ संस्था का बैनर हमें थमाया. पिंकू और संजय पहले पहुंच चुके थे. गाड़ी के आगे क्लब का बैनर लगाकर फोटो सेशन से यात्रा का आगाज़ हुआ. पिंकू और संजू कातर नजरों से हमें जाते हुए देख रहे थे. गनीमत थी कि वस दहाड़ें मार के रोये नहीं!
वैन आगे बढ़ी तो मन में दारमा-व्यास की रहस्यमयी घाटियों की अनदेखी तस्वीरें हिलोरें लेने लगीं. इराद था की दोपहर तक हम धारचूला पहुंच जाएंगे और वहां नोटिफाइड एरिया का पास बनाकर दूसरे दिन आगे बढ़ेंगे. हल्का उजाला होने लगा था और अब सड़क साफ़-साफ़ दिखाई देने लगी थी. सड़क के किनारों को टेलीफोन लाइन डालने वालों ने खोदकर भयानक बना दिया था. हर बरसात सड़कों के भ्रष्टाचार की परतें कई जगहों पर उधड़कर बाहर आ जाती हैं. लेकिन बेशर्म व्यवस्था इससे बहुत खुश होती है. इन आपदाओं में उन्हें कुबेर के खजाने के दर्शन जो होने वाले हुए.
अभी कांडा ही पहुंचे थे तो वहां का दिलकश नज़ारा देख थोड़ी देर रूक गए. नीचे कांडा पड़ाव से आगे के दर्जनों गांव घने कोहरे के आगोश में गायब हो गए थे. मीलों तक जैसे कोहरे का समुद्र पसरा हुआ था. आगे बढ़े और ओड्यारी बैंड में पहुंचकर नाश्ता निपटाया ही था कि थल जाने वाली एक मैक्स जीप पहुंच गई. चाचा जी को यहां तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद दिया और हम मैक्स में सामान सहित लद लिए. घंटे भर में जीप ने हमें थल की बाज़ार में पटक दिया. यहां पता चला कि आगे डीडीहाट के रास्ते में हुई झमाझम बरसात में धरती ने भी खूब कत्थक किया है. इस कत्थक में सड़क भी कुछ उसी लय में बह गई है. कई जीपें बीच में फंसी हुई हैं. इस बीच कुछेक जीपें आई. हमारे पूछताछ करने तक भीतर व छत में आदमजात कुछ इस तरह चिपक गए जैसे पृथ्वी में जलजला आ गया हो और सुरक्षित ग्रह में ले जाने वाला एकमात्र साधन यही हो.
आधे घंटे तक यही चलता रहा तो आखिरकार हमने भी उन्हीं की तर्ज पर जीप में कब्जा करने की ठान ली. एक जीप आई तो छत में रुकसैक रखने तक वह ठस्स हो गई. महेश दा और मैं बमुश्किल एक-दूसरे की गोद में बैठ पाए. पूरन का नसीब अच्छा था, उसे पीछे लटकने के लिए थोड़ी जगह मिल गई. बीसेक मिनट बाद ही जीप पमतोड़ी नाम की जगह में रूक गई. माजरा समझ में नहीं आया. पता चला कि आगे सड़क को गधेरे का रूप पसंद आ गया है तो उसने अपना रूप त्याग दिया है. पीडब्लूडी के बूढ़े ‘जवान’ किनारे से सड़क को काट रास्ता बनाने की कोशिश में लगे थे. सवारियां उतारकर खाली जीप पहाड़ के किनारों से चिपकते हुए किसी तरह पार हो ही गई. सड़क-गधेरा पारकर सवारियां फिर से जीप में सवार हो गईं. करीब सात किमी चलकर जीप रूकी और बाकायदा बैक होकर उसने अपना मुंह वापस घुमा लिया. हमारे नीचे उतरते ही आगे डीडीहाट से आ रही सवारियों ने जीप पर हमला बोल दिया. किसी के पास कुछ सुनने-बताने का वक्त नहीं था. जल्दबाजी और हड़बड़ी मची हुई थी. जीप चालक को किराया-भाड़ा चुकाकर चढ़ा हम सामान कांधों में लादकर पैदल आगे बढ़ चले. किलोमीटर भर चलने के बाद एक जीप दिखी तो फिर उसमें लद लिए. दो किलोमीटर चलने के बाद ही इस जीप ने भी अपनी पलटी मार ली. पायलट महोदय चालीस रूपये लेने के बाद ही माने. रुकसैक फिर से हमारे कांधों में आ गए. मुश्किल से आधा किलोमीटर चलकर घोरपट्टा पहुंचे. यहां से डीडीहाट करीब तीन किलोमीटर रह जाता है.
जीपें आपदाग्रस्तों के बीच किसी बचाव दल की तरह आतीं और और मुड़ने से पहले ही वो भर जाती थीं. हर किसी को जल्दी थी. सभ्यता और अनुशासन का मौसम नहीं था. यद्यपि हर कोई आश्चर्य व्यक्त कर रहा था- ऐसा तो उसने कभी नहीं देखा…! हमारे साइड को तो संस्कृति कभी आई ही नहीं…!! वैसे भी मैदानी क्षेत्रों की कई चीजें यहां पहाड़ में पहुंच ही नहीं पाती हैं. आप हाल तो देख ही रहे हो न पहाड़ों के यहां…!!!
चुप रहना ही सबसे अच्छा रास्ता है- इस सूत्र को पकड़कर हम तीनों बाज जैसी तेजी से आती हुई जीप पर झपट पड़े और लटकते हुए डीडीहाट पहुंच गए. यहां भी जगह-जगह सड़कें टूटी हुई थीं, खेत व मकान धँसे-बगे हुए थे. चारों ओर मायूसी व दहशत का माहौल था. सड़कों के जगह-जगह बंद होने से बीच में फंसे वाहन चालकों की मौज थी. मजबूरी में यात्री इन वाहनों में ठूँसकर तीन-चार गुना किराया देने पर मजबूर थे. डीडीहाट से फिर एक जीप ने हमें ओगला पहुंचाया. यहां भी काफी देर इंतज़ार करना पड़ा और फिर एक जीप मिली और हम धारचूला को रवाना हुए.
रास्ते में रड़ने-बगने का सिलसिला कई जगहों पर दिखा लेकिन सड़क बंद नहीं थीं. अस्कोट और फिर जौलजीबी को पीछे छोड़ जीप सरपट भाग रही थी. रास्ते भर उफनते हुए गाड़-गधेरे, काली और गोरी नदियों से मिलने को जैसे दौड़े चले जा रहे थे. दोपहर ढाई बजे के करीब धारचूला तहसील के पास चालक ने जीप रोकी हमने भी राहत की सांस ली. पहाड़ के कठिन रास्तों में पैदल चलने में जो आंनद और कौतूहल है, वह इन टूटी-फूटी खतरनाक सड़कों में अपने शरीर को दूसरे के हवाले करने वाला बखूबी समझ पाता है.
इनर लाइन पास बनाने के लिए धारचूला तहसील में पहुंचे तो वहां तमाम कर्मचारी नदारद थे. एकाध जो थे भी उन्होंने अपनी टेबल को ही तकिया मानकर मीठे सपनों में दौड़ लगाई हुई थी. पिछली रात इस इलाके के बरम गांव में भूस्खलन से उन्नीस लोग दब गए थे. लिहाजा पूरी प्रशासनिक मशीन वहीं जमी थी. काफी देर के बाद इनर लाइन पास बनाने वाली महिला कर्मचारी ने हमारी फाइल देखी. बेहद बारीकी से पन्ने पलटने के बाद भी उसे आपत्तिजनक जैसा कुछ नहीं मिला तो लगा कि जैसे ताज्जुब कर रही हो कि कैसे इन्होंने फाइल में एक-एक चीज़ परफेक्ट कर रखी है. ऊपरी कमाई का कोई रास्ता न देख उसने अनमने ढंग से कहा, “कल या परसों तक हो पाएगा” और फाइल अंदर रख ली.
नेपाल की अंतरराष्ट्रीय सीमा स्थित काली नदी के पार वाले कस्बे को दारचूला और इस पार भारतीय कस्बे को धारचूला कहते हैं. कुमाऊं मंडल विकास निगम के टीआरसी में रहने का मन बनाकर हम उसी ओर चल पड़े. एक कमरे में चार बिस्तर वाला बेड दिखा तो उस पर हम सबने हामी भर ली. सुबह से सफ़र के अनुभवों से हम सब हैरान-परेशान थे. थकावट से निजात पाने के लिए नहाने की योजना बनाई तो पता चला बाथरूम में पानी नहीं है. इन्टरकॉम पर पानी के बारे में पूछताछ की और कुछ संतोषजनक जवाब न पाकर रिसेप्शन की ओर भागे. मैनेजर ने पाइप लाइन टूटी होन की बात बताते हुए मुझे पानी की बाल्टी पकड़ा दी. बाद में पता चला कि तात्कालीन पर्यटन मंत्री प्रकाश पंत भी टॉयलट में जाने के लिए पानी का मग लेकर यहां-वहां दौड़ रहे थे. उन दिनों वह ‘उत्तराखंड में पर्यटन को कैसे बढ़ाया जाए’ की ढूंढ-खोज में छोटा कैलाश की यात्रा पर थे. अब न पंत जी रहे और न ही आज तक पर्यटन के विस्तार का उनका सपना पूरा हो सका.
बाल्टी भर पानी से हाथ-मुंह धोने को ही हम सब ने स्नान तुल्य मान लिया और पेटपूजा के लिए बाज़ार के लिए निकल पड़े. एक होटल में बमुश्किल भोजन मिला और वह भी बिलकुल बेस्वाद. भूख की वजह से उसे गले से नीचे धकेल ही रहे थे की दारचुला में इफरात में मिलने वाली शराब के नशे में चूर कुछ सूरमाओं ने नेपाली-हिंदुस्तानी में आपस में भिड़ना शुरू कर दिया. उन्हें शांत कराने के वजाय दुकानदार भी कब युद्ध में शामिल हो गया, हमें पता ही नहीं चला. बमुश्किल बिल चुकाकर हम खाना छोड़ वहां से भाग खड़े हुए.
हमारे पास समय था तो नदी पार दारचूला जाने की योजना बनी. वैसे भी पार हमारे लिए एक अजूबा विदेश ही था, जिसके बारे में बचपन से सुनते आए थे कि नेपाल के बाज़ार में मिलने वाले जूते बड़े मजबूत होते हैं. वहां तमाम अजीबोग़रीब सामान बहुत सस्ते में मिल जाता है. नेपाल की ऐसी कई सारी कहानियां मन में बसी थीं तो काली नदी के पार न जाने की कोई वजह न थी. नीचे उतर पुल के गेट पर नाम-पता लिखाते वक्त सुरक्षा कर्मियों से पूछ लिया, “कुछ सामान खरीद कर ला सकते हैं…? जब्त तो नहीं हो जाएगा.” मुस्तैद एसएसबी गार्ड ने मुस्कुराते हुए आश्वासन दिया, “पर्सनल यूज की चीज़ लाने की मनाही नहीं है, हां! बिजनस के लिए लाओगे तो ज़ब्त हो जाएगा.” झूला पुल पर आगे बढ़े. काली नदी पूरे उफान पर थी. पुल पर आने-जाने वाले लोगों का तांता लगा था. पुल पार नेपाली पुलिस से रूबरू हुए. उनसे वापसी का वक्त पूछा तो उन्होंने बड़ी हिक़ारत से टाइम बताया. पुल की दीवारों पर माओवादियों के झंडे-बैनर भी लगे दिख रहे थे.
अब हम भारत के पड़ोसी देश में थे. विदेश में होने की मेरी कल्पनाओं को तत्काल झटका लगा जब बाजार के शुरू में ही दोनों ओर शराब की दुकानों के साथ-साथ चाय के खोखों जैसे बार ग्राहकों से भरे हुए थे. इन खोमचा बारों में खोमचे की मालकिन उबले अंडे छील कर ग्राहकों को परोस रही थी, जबकि मालिक उन्हें शराब दे रहा था. सीढ़ियों से लेकर भीतर की कोठरी तक खोमचे ग्राहकों से पैक थे. मय के दीवाने मय में डूब अपनी गप्पों को गालियों से सजाकर पेश करने में मशगूल थे. मालकिन निर्विकार भाव से अपना काम कर रही थी. लगता था जैसे वर्षों से काम करते हुए उसे इसकी आदत पड़ गई थी. और वैसे भी यह उसका रोजगार था, जिससे उसकी गृहस्थी की गाड़ी चलती थी.
आगे सीढ़ीनुमा रास्ते के इर्द-गिर्द बाजार बसा हुआ था जिनमें से एक बांई तरफ ऊपर की ओर जाकर करीब सौ मीटर के बाद ही खत्म हो गया था. यत्र-तत्र-सर्वत्र शराब की दुकानें खुली हुई थीं. अद्भुत दृश्य था. यहां कोई भी बंदा कहीं पर भी एक चादर पर बोतलें रखकर अपना बार चला सकता है! साथ में एक स्टोव और अंडों का कैरेट. दीवाने आएंगे, पीने के साथ अंडे का चखना लेंगे और वहीं किनारे लोट जाएंगे. किसी को कोई शिकायत नहीं. हां… ज्यादा ग्राहक लुढ़क गए तो दुकान का स्वामी चादर और सामान समेटकर किसी दूसरी जगह बार जमा लेता है. बाज़ार से आगे ग्रामें बस्तियां और सीढ़ीनुमा खेत दिखे. वापस लौटकर दूसरी बाज़ार में पहुंचे. यहां भी काफी चहल-पहल थी. साथी पूरन ने एक दुकान से मज़बूत और बड़ी सी छाता ले ली. मैंने भी एक रोबोटिक लाइट खरीदकर विदेश में सामान खरीदने की रस्म अदा की.
मुझे उन मित्रों की बातों पर हंसी आ रही थी, जिनके मुताबिक नेपाल में खासतौर पर दारचूला में ओरिजनल और सस्ता सामान मिलता है. अब हम इस विदेशी बाजार में थे. दुकानदारों से बातचीत में पता लगा कि यहां ज्यादातर सामान दिल्ली से ही आता है. कोई चीज़ यहां सस्ती है भी तो वह है सिर्फ शराब. मज़े की बात तो यह है कि यहां के ज्यादातर व्यापारी भी भारतीय मूल के हैं, जिनके घर भारतीय धारचूला में हैं. हर रोज सुबह दुकान खोलने के लिए वे नेपाल के दारचूला में आते थे और और शाम को वापस अपने घर चले जाते.
अंधेरा घिरने लगा और दुकानों के बल्ब टिमटिमाने लगे. यहां मोबाइल की अच्छी सुविधा है, जबकि पार धारचूला में आज भी लोग नेपाली सिम से मंहगी दरों पर फोन करने को मजबूर हैं.
भारत की तरह नेपाल में भी ठगी के कई किस्से मशहूर हैं. एक बार सुना कि बागेश्वर से एक बारात धारचूला आई. कुछ लोग विदेश घूम आएंगे की तर्ज पर उस बारात में शामिल हो गए. बरात जब धारचूला पहुंची तो वे बाकी बारातियों को नाचता-गाता छोड़ काली पार दारचूला की विदेश यात्रा को निकल गए. जब उन्होंने वहां हर जगह ‘बार’ देखे तो फिर वे बाकी चीजें देखना भूल गए. खाते-पीते उन्हें पता ही नहीं चला कि पुल के गेट बंद हो गए हैं. शाम को झूमते हुए जब वे गेट के पास पहंचे तो नेपाली प्रहरी से भिड़ गए. उन्होंने खुद को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बताते हुए उनके सांथ की जा रही बदसलूकी के लिए उन्हें लताड़ना शुरू कर दिया. उन्होंने अपना मोबाइल निकालकर उत्तराखंड के तात्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को काल्पनिक फोन लगाया और कुछ देर तक बातें करने का नाटक भी किया. उनकी हरकतों को देखकर सख्त चेहरे वाले नेपाल प्रहरी भी मुस्कराए बिना न रह सके. प्रहरियों का पाला हर रोज इस किस्म के नमूनों से पड़ता ही था. उनकी हंसी का कारण यह था कि भारत के मोबाइल तो पार भारतीय धारचूला में भी काम नहीं करते हैं और यह तो फिर नेपाल था.
गेट नहीं खुलना था तो नहीं खुला. मजबूरन बराती ये कह वापस लौटे गए कि उनके साथ की गई गुस्ताखी को वे विश्व पटल में उठाएंगे. किसी को बख्शा नहीं जाएगा. उन्होंने वहीं एक होटल में कमरा लिया. रात्रि भोजन के सांथ मदिरापान के बाद उन्होंने एक नेपाली लड़के से ‘इच्छा’ जताई कि वे दिनभर की भागदौड़ी से थकान महसूस कर रहे हैं.. क्या कुछ मालिश का ‘इंतजाम’ हो पाएगा? नेपाली नौजवान मौके की नज़ाकर को भांपकर अग्रिम मुद्रा के नाम पर दो हजार की भारतीय रुपए झटक लिए. आधे घंटे का ‘इंतजाम’ के साथ आने का मीठा वादाकर नौजवान वहां से जो फुर्र हुआ तो फिर लौट के नहीं आया. उसके इंतजार में होटल के कमरे का दरवाजा खुला छोड़, बिस्तर पर अधलेटे पड़े वे साहेबान मालिश की मीठी कल्पनाओं में खोए रहे.
रात में यूपी का सीएम बनकर तांडव करने और फिर मालिश के सुनहरे ख़्वाबों खोए रहने वाले महाशय को जब साथियों ने सुबह उठाया गया तो वे हड़बड़ाकर उठे. उन्होंने अपनी जेबें टटोलीं. सब कुछ ठीक मिला तो सिसकारी भरकर बोले, “चलो यार बाकी सामान तो सुरक्षित है, दो हजार गए भाड़ में.” नाश्ते के साथ दो घूंट भरते हुए उन्होंने साथियों से इस घटना का कहीं जिक्र न करने का वादा लिया और साथी भी हर किसी को इस किस्से को सुनाने की कसम खाकर लौटे और बरसों तक चटखारे ले कर इसे सुनाते रहे.
दारचूला से एक बार फिर काली नदी के झूला पूल को पारकर हम वापस लौटे. पुल पर तैनात जवानों को अपना सामान दिखाया तो वे भी मुस्कुराते हुए बोले, “ये भी कोई सामान हुआ भला..!”
टीआरसी के पास एक ढाबे में रात के भोजन का इंतजाम कर हम अपने कमरे में पहुंच गए. रकसैक में सामान सैट करने में करीब घंटाभर लग गया. आठ बज गए थे तो ढाबे में गए. वहां भी काफी भीड़भाड़ थी. भोजन बना रही मालकिन को अपने आने की सूचना दर्ज कराई तो उन्होंने कुछ पल इंतज़ार करने का इशारा किया. ढाबे के भीतर एक केबिन में लैंडलाइन टेलीफोन सुविधा दिखी तो हम बारी-बारी से उसमें घुस गए. घरवालों से कुछ इस तरह बात की जैसे कि हम ‘उत्तर कोरिया’ में फंसे हों. बहरहाल घरवालों को कुछ लेना-देना नहीं था. वे पहले ही हमारी हिमालयी आवारागर्दी से कम त्रस्त नहीं थे. बस सूचनाओं का आदान-प्रदान भर हो गया. अब तक हमारे भोजन करने की बारी आ गयी थी. उम्मीदों के विपरीत भोजन काफी स्वादिष्ट था तो सभी ने दबाकर खाने में कोई हिचक नहीं दिखाई.
बागेश्वर जिले के लोहारखेत क्षेत्र के सज्जन तब धारचूला तहसील में तहसीलदार तैनात थे. बेहद मिलनसार और मददगार शख्स थे. रात में जब वे आपदाग्रस्त बरम से लौटे तो उन्होंने हमारी फाइल देखी और तुरंत इनर लाइन परमिट जारी कर दिए. सुबह जब मैं उनके आवास में पहुंचा तो उनके बेटे ने मुझे पास देते हुए बताया कि वह देर रात में कुछ ही घंटों के लिए घर आए थे और वापस बरम को निकल गए हैं. मैं उनके बेटे को सिर्फ धन्यबाद ही दे सका. ऐसे सरल और समर्पित अधिकारी कम ही होते हैं.
परमिट लेकर वापस लौटते वक्त जीप स्टैंड में एक जीप वाले से आगे के सफ़र का मोल-भाव तय किया और अपना सामान लेकर जीप में सवार हो गए. जीप चालक बाकी सवारियों के लिए दो-एक घंटे तक तहसील और बाजार की परिक्रमा कराता रहा. धारचूला की बाजार से अंतत: जब वो निकला तो हमने राहत की सांस ली. लेकिन यह राहत बमुश्किल तीन किलोमीटर तक ही मिल पाई. एक बैंड पर चालक एक सवारी के इंतजार में फिर से रुक गया. तभी सहयात्रियों से पता लगा कि गर्बाधार तक सड़क कई जगहों पर ध्वस्त है. बीच में जो जीपें फंसी हैं वे मोटा किराया लेकर कमाई करने में जुटी हैं. हर कोई मजबूरन इस मानवीय आपदा को झेल रहा है. करीब आधे घंटे बाद सवारी पहुंची तो चालक ने इंजन चालू किया. रास्ते में धौलीगंगा जलविद्युत परियोजना और नारायण आश्रम को जाने वाला मार्ग के बारे में साथ बैठे लोग बता रहे थे. तवाघाट से आगे मांगती से कुछ दूर जाकर जीप फिर से किनारे खड़ी हो गई. सामने भूस्खलन से सड़क गायब थी. किराया चुकाकर हमने रुकसेक अपने कांधों में टांगे और लगभग दौड़ते हुए टूटे रास्ते को पार कर गए. सामने से आने वाली जीपें आते ही भर जा रही थी. किसी तरह एक जीप में जगह मिल पाई. वह जीप भी करीब पांच किलोमीटर चलने के बाद किनारे खड़ी हो गई. सामने भूस्खलन का भयानक मंजर था. ऊपर की ओर नजर रखकर बढ़ी हुई धड़कनों के साथ उस पहाड़ को पार किया. ऊपर से लगातार पत्थर गिर रहे थे. आगे एक और जीप में सवार हुए. पांगला से पहले उफनाए हुए गधेरे ने आगे का रास्ता बंद कर दिया था. जूते, कपड़े उतार लिए गए और एक-दूसरे को पकड़कर किसी तरह इस मुसीबत को भी पार कर लिया. पानी की ठंडक ने पांव सुन्न कर दिए थे.
मुश्किल से एक किलोमीटर चलने के बाद पांगला चौकी पहुंचे. बरसात ने यहां भी कसकर कहर ढाया हुआ था. ज़मीन जैसे रगड़ती-लुढ़कती हुई काली नदी में समा जाने को आमादा थी. सड़क दलदल में बदल गई थी. बचते-बचाते इस रास्ते को भी पारकर जीप के इंतजार में खड़े हो गए. फिर एक बार जीपें आईं और एक झटके में सवारियों को लेकर चलती बनीं. बड़ी मुश्किल से एक जीप में सवार होने में कामयाब हुए तो वह भी तीन किलोमीटर आगे चलकर जवाब दे गयी. यह घटियाबगड़ था.
रास्ते में “इतना मंहगा किराया क्यों ले रहे हैं भाई साहब?” सवाल पूछते ही वाहन चालक बिफर गया, “यह नहीं पूछते ऐसी हालत में सबको ये सेवाएं कैसे दे रहे हैं? अरे! डीजल धारचूला से आ रहा है. यहां आने तक उसके दाम दोगुने हो जाते हैं. अब हम कहां से लाएं ये पैंसा.. बात करते हैं सब…!”
आगे भूस्खलन पर नज़र पड़ते ही चालक की बातों से ध्यान हट गया. समूचा पहाड़ नीचे काली नदी में मिलने को आतुर था. पत्थरों की लगातार बारिश भी हो रही थी. हर कोई दौड़ते हुए सड़क पार कर रहा था. लगभग पचास मीटर का एक पहाड़ सामने दिखाई दिया, जो सीधे नीचे काली नदी में समा गया था. हर कोई कूदते-फांदते हुए इस पहाड़ को पार कर रहा था. पल भर को सोचा और फिर रुकसैक कांधों में डालकर ऊपर पहाड़ पर नजर रखते हुए हम भी भागते हुए पार पहुंच ही गए. यहां से आगे सड़क ने पूरी तरह दम तोड़ दिया था और अब वह पदयात्रा करनी थी, जिसके लिए हम जाने कब से तरस रहे थे. घटियाबगड़ में भूस्खलन का यह भयानक मंजर देख हमारे रोंगटे अभी तक खड़े थे. बाद में गर्ब्यांग पहुंचने पर पता चला कि वहां दो लोग भूस्खलन की चपेट में आकर दब गए हैं.
घटियाबगड़ में कुछ दुकानें दिखाई दी थीं. इनमें जरूरत भर का सामान भी मौजूद था. यहां गांवों में बनने वाली कच्ची शराब, जिसे स्थानीय लोग ‘चक्ती’ कहते हैं, हर दुकान में सर्वसुलभ थी.
शुरूआत की दुकान के बाहर हमने रुकसैक किनारे रखा और वहीं बैठकर डबल चाय के साथ बिस्कुटों का नाश्ता किया. आगे कच्ची सड़क के अवशेष दिखाई दे रहे थे, जो गर्बाधार तक जाती थी. सड़क कई जगहों से भू-स्खलन की भेंट चढ़ चुकी थी. हमारे साथ कई परिवार भी आगे जा रहे थे. पता चला वे व्यास घाटी में अपने गांवों में पूजा के लिए जा रहे हैं. आधे घंटे बाद गर्बाधार पहुंचने तक हम पसीने से बुरी तरह तरबतर थे. यहां एक दुकान खुली दिखी और शेष दो-तीन दुकानें बंद थीं. यहां की दुकाएं यात्रा कैलाश यात्रा सीजन के वक्त ही आबाद होती हैं. बाकी समय दुकानदार दूसरे कामों में लग जाते हैं.
दुकान के बगल में बह रहे ठंडे धारे में मुंह धोया तो काफी राहत मिली. दुकान स्वामी धामीजी नाम के सज्जन थे. दुकान के बाहर हरी ककड़ी के सांथ चटपटा नमक देख उनसे एक ककड़ी खरीद ली. धारे का मीठा पानी, हरे नमक के साथ ककड़ी का स्वाद लाज़वाब था. धामीजी से एक और ककड़ी देने का आग्रह किया. धामीजी हम पर बिफर पड़े- एक तो खा ली, पैसा दिया नहीं…! अब दूसरी मांग रहे हो. हमने उन्हें समझाने की कोशिश की हम ककड़ी का पैसा दे चुके हैं, लेकिन वह समझने को तैयार नहीं थे. स्थानीय भाषा में गुस्से से फनफनाते हुए वह कह रहे थे कि कैसे वह नेपाल के गांव से ये ककड़ी लाए हैं. वहां बैठे कुछ ग्रामीणों ने ने उन्हें बहुत मुश्किल से उन्हें समझाया कि ये लोग पैसे दे चुके हैं. तब जाकर वह शांत हुए और उन्होंने हमें दूसरी ककड़ी दी. दरअसल माज़रा हमें बाद में समझ में आया. हुआ यह था कि धामीजी ने दोपहर तक ठीक-ठाक कमाई कर लेने के बाद थोड़ी-थोड़ी मात्रा में खूब ‘चक्ती’ डकार ली थी और तब तक वह अपनी मौज में आ चुके थे.
दूसरी ककड़ी निपटा लेने के बाद हम आगे लखनपुर-मालपा की ओर बढे. आगे दिखाई दे रहा सीधा रास्ता अचानक बांई ओर मुड़ गया. आगे जो नज़ारा था वह कमजोर दिल वालों के लिए हिलाने वाला था. चट्टान काटकर बनाए गए बेहद संकरे चंद्राकार रास्ते के ठीक नीचे काली नदी की भयानक गर्जना कर रही थी. अचानक हमारा ध्यान रास्ते में पड़ी चप्पलों की ओर गया तो हम सभी चौंक उठे. नीचे को झांका तो एक महिला बड़ी तल्लीनता से चट्टान के किनारे हरी घास में मशगूल थी. पहाड़ में महिलाओं का जीवन कितना संघर्षभरा होता है, ऐसे दृश्य इस बाद को सिद्ध कर देते हैं. मैंने सभी को चुपचाप आगे चलने का इशारा किया.
हम काली नदी के इस पार थे. अपने ऊपर के पहाड़ से रिसते हुए आ रहे पानी से भीगते हुए हम काली के उस पार नेपाल के घने जंगल की ओर उत्सुकता से देख रहे थे. सर के ऊपर टपक रहा पानी कई जगह जब झरने की शक्ल ले लेता तो हमारा छाता भी जवाब दे जाता. काली के किनारे उतरते-चढ़ते इस डरावने मार्ग को पारकर अब हम ‘शान्ति वन’ में पहुँचे. यहां घना जंगल और उसमें छाई असीम शांति मिली तो कुछ देर वहीं पसर गए.
एक जवान जोड़ा अपने झोपड़ीनुमा ढाबे के बाहर ढलती धूप में अपनी थकान मिटा रहा था. यहां चाय, पानी व नाश्ते-भोजन के अलावा पांच-सात लोगों के रहने की व्यवस्था थी. हमने ठंडा पानी पिया और चाय-बिस्किट से अपनी भूख शांत की. थोड़ी देर सुस्ताने के बाद हम आगे चढ़ाई की ओर बढ़ चले. आगे दो-तीन दुकानें और दिखीं, जहां बोझा ले जा रहे मजदूर सुस्ता रहे थे. हमारे ज्यादातर सहयात्री आगे निकल चुके थे. सामान ले जा रहे गिने-चुने मजदूर हमारे आगे-पीछे चल रहे थे. कोई तीन किलोमीटर चलने के बाद लखनपुर पड़ाव मिला. मैं दुकान के बाहर तकली से ऊन कात रही एक महिला की फोटो खींचने लगा तो वह झेंपती हुई तुरंत दुकान में समा गई. यहां भी यात्रियों के चाय व भोजन की व्यवस्था थी. यहां चाय पीने के वक्त याद आया कि दो साथी तो अपने गिलास लाना ही भूल गए हैं. हमने होटल मालिक से मनुहार की और दो गिलाश खरीद लिए.
अब सूरज अपना बिस्तर समेटने लगा था और जीप में धक्के खाने और फिर उतार-चढ़ाव कठिन पैदल यात्रा के बाद हम भी बुरी तरह थक गए थे. अंधेरा घिरने लगा और परिंदे भी अपने घोसलों में पहुंचकर चहचहा रहे थे, मानो गिनती कर रहे हों की सारे परिजन वापस लौट आए कि नहीं. हमने अपने-अपने टॉर्च निकाल लिए. मजदूरों ने बताया कि मालपा अभी करीब चार किलोमीटर दूर है. जब जाने का इरादा कर लिया हो तो परवाह किस बात की. आगे तीखी चढ़ाई शुरू हो गई थी. काली नदी अब हमसे दूर जा चुकी थी और हम घने जंगल के बीच गुज़र रहे थे. अचानक नदी का शोर सुनाई पड़ने लगा. गुर्राते हुए अपने होने का एहसास करा रहे एक गधेरे को पार किया तो सामने कुछ झोपड़ियां दिखीं. अंदर झांका तो झोपड़ी में खाने से लेकर रात गुजारने की सारी व्यवस्था दिखी. अचानक बगल वाली झोपड़ी से आवाज आयी कि यह मालपा है और आप लोगों के रहने की व्यवस्था पहली झोपड़ी में की गई है. आवाज देने वाले धारचूला से साथ-साथ चल रहे सहयात्री थे, जिन्हें नपलच्यू गांव से आगे बाईं ओर नाभी गाँव जाना था.
लगभग 2018 मीटर की उंचाई पर आज की रात हम मालपा में थे. 17 अगस्त 1998 की दुर्भाग्यशाली रात इस जगह के लिए बहुत कातिल थी, जिसके घाव आज भी यहां जिंदा हैं. रात में जब इस कैलास यात्रा पड़ाव में लोग दिन भर की थकान के बाद गहरी नींद में सो रहे थे तो ऊपर की पहाड़ियां समूचे मालपा पर बरस गईं. भीषण भूस्खलन में तीन सौ से ज्यादा लोग जिन्दा दफ्न हो गये. वक्त बीता तो धीरे-धीरे यहाँ भी जीवन लौटा लेकिन अब लोग पहले की तरह यहां बसने में डरते हैं. दो-तीन झोपड़ियां ही यहां फिर से बनी हैं. सामने एक शिव की विशाल मूर्ति स्थापित है, शायद इसे इन्होने अपना सहारा मान लिया है कि आपदा आने पर उन्हें बचा लेंगे. इसका अहसास हमें ढाबा चला रहे जोड़े की आँखों में साफ दिखाई दिया.
आज हम बहुत थका हुआ महसूस कर रहे थे. ढाबा मालिक ने झोपड़ी में एक किनारे पर हमारे सोने की व्यवस्था की. बिछाने को गद्दे और ओढ़ने के लिए कंबल भी वहां थे. हमें अपना सामान खोलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. रुकसेक किनारे रख उनसे गपशप शुरू हुई तो खाने तक चलती रही. उन्होंने चटपट हमारे लिए पहले चाय बनाई और कुछ देर बाद अंडे की भुर्जी यह कहकर परोसी कि, “अभी खाना बनने में टाईम है. दिनभर चले हो.. भूख लगी होगी. तब तक यह खालो न. “बातचीत से पता चला कि ये लोग जिप्ती गांव के हैं. पति जयमलसिंह और पत्नी हरीना देवी यहां मालपा में कुटिया बना पर्यटकों की आवभगत कर अपनी आजीविका चला रहे हैं.
भोजन कर बगल में ठहरे अन्य यात्री भी वहां पहुंच गये तो काफी देर तक बातचीत होती रही. वे बता रहे थे कि इसबार हम लोग ‘बुढ़ानीपूजा’ के वक्त में आए हैं. ‘बुढ़ानी पूजा’ में मुंडन आदि संस्कार किए जाते हैं. आटा गूंधते हुए अपनी लय में हरीना देवी बता रही थी, “पुरानी कहावतें हुई बेटा. किसी ज़माने में बताते थे कि पूजा के समय परिवार के बड़े लड़के की बलि चढ़ानी पड़ती थी. एक बार ऐसा हुआ कि एक परिवार में एकलौता लड़का था, तो उन्होंने बलि के लिए मना कर दिया. अजीब स्थिति हो गई. बुजुर्गों के रायमसवरे के बाद फिर आदमी व बकरी का खून चखने को कहा गया. समानता पाकर बकरी की बलि को ही मान्यता दे दी गई. और परिवार का एकलौता लड़का भी बच गया.’
दोनों आमा-बूबू फिर खाना बनाने में जुट गए. भाषा की भिन्नता की वजह से उनकी आपस की बातें हमारे पल्ले नहीं पड़ रही थी. हावभाव से लग रहा था वे अपनी परिवार संबंधी बातें कर रहे थे. बैठकी टेबल में रोटी, हरी सब्जी, चटनी और चावल प्लेटों में लगा तो हम सभी उस पर टूट पड़े. खाना बहुत स्वादिष्ट लगा. वो प्रेम से हमें खिलाते रहे. कुछ देर और गपशप चली और फिर वे दोनों भी खाना खा बगल में आराम करने चले गए.
सुबह बूबू ने चाय के गिलास पकड़ाते हुए हमें नित्यकर्म से निवृत होने के लिए पानी आदि के बारे में बताया. वह खुद मुंह अंधेरे ही नहा-धो और धूप-दीप करके तैयार हो चुके थे. हम तीनों भी अपना सामान समेटकर नित्यकर्म से निवृत्त हुए. चाय-बिस्किट का नाश्ता किया और आमा बूबू से फिर मिलने का वादा करते हुए मालपा से विदा ली.
लगभग तीन साल का एक मासूम बच्चा रितिक भी अपने परिजनों के साथ पैदल चलने का अभ्यास कर रहा था. आज हमें गर्ब्यांग पहुँचना था. गर्ब्यांग में ही हमें अपने पीछे छूट गये साथियों का इंतजार भी करना था. नाभीगाँव जाने वाले यात्री हमसे पहले ही निकल चुके थे. थोड़ा आगे बढ़ने पर एक समतल से जगह में हमें कुछ और झोपड़ीनुमा ढाबे दिखाई दिये. उनमें ठहरे यात्री निकल चुके थे. रास्ते के किनारे खेतों में उगल, चौलाई की फसल लहलहा रही थी. आगे कुछ दूरी पर ‘तक्तीथा’ नामका प्रख्यात झरना दिखाई दिया तो कुछ पल बैठकर उसे निहारते रहे. झरने की ठंडी फुहारें जब हमारे थके तमतमाए चेहरों पर पड़तीं तो स्वर्गिक आनंद की अनुभूति होती थी.
काली नदी के साथ ऊपर-नीचे चढ़ते-उतरते छक्कन से पहले हमें भारत तिब्बत सीमा पुलिस की एक चौकी दिखाई दी. एक दुकान में चाय पीने की मंशा से थोड़ी देर सुस्ताने के बाद हम आगे बढ़े और आधे घंटे बाद हम छक्कन पड़ाव में थे. यहाँ भी कुछ दुकानें थीं. पता चला कि बूंदी यहाँ से करीब चार किलोमीटर पर है. अब तक दोपहर हो गई थी और सूरज सर के ऊपर साफ़ आसमान में पूरी दुकान खोलके जैसे हमारी परिक्षा ले रहा था. चलते-चलते हम सब पसीने से तरबतर थे. बूंदी गांव से पहले एक गधेरा पार करना पड़ा जो आज पूरे उफान में था.
बूंदी पहुंचे तो नाभीगाँव जाने वाले कुछ और यात्री भी हमें मिल गये. इनमें एक मेरे परिचित निकल आए- नाभी के ही गोपाल सिंह नबियाल. वह तब बागेश्वर में खादी ग्रामोद्योग भंडार में कर्मचारी थे. महेशदा उनसे गपियाने में लग गए. नबियालजी से मालूम पड़ा कि धारचूला से आगेका क्षेत्र तीन प्रमुख घाटियों में बंटा है. बूंदी, ब्यासघाटी की पहली ग्रामसभा है. जिप्ती, गाला, मालपा, लमारी, छंगनरे ये सभी बूंदी के अन्तर्गत ही आते हैं. इसमें दो वनपंचायती इलाके हैं- जिप्ती से गर्बाधार तक का इलाका तथा छियालेख से गर्ब्यांग तक का इलाका. गोपालदा बड़े ही उत्साह से बता रहे थे और महेशदा उतनी ही शिद्दत से अपनी डायरी लिख रहे थे, “यहां पानी को ‘ती’, लकड़ी को ‘सिन’, चाँद को ‘ल्हा’, पत्थर को ‘उं’, सूरज को ‘मी’, घी को ‘मर’ और दूध को ‘नू’ कहते हैं. “इतने में गोपालदा के साथियों ने सामान सहित अपनी कमर कसी तो वह भी आगे मिलने का वादा कर दौड़ते हुए अपने सांथियों के साथ हो लिए.
बिस्कुट-चाय के बाद प्लेटों में सजी मैगी को भी हमने पल भर में निपटा लिया. भूख शांत हुई तो हमने भी अपने पिट्ठू पीठ पर लाद लिए. रास्ते के नीचे की ओर और आगे सामने पहाड़ी में झूलता हुआ बूंदी गांव खासा आबाद था. लोगों की मेहनत खेतों में दिखाई दे रही थी. गेहूं, फाफर, चौलाई, मूली के साथ-साथ नीचे खेतों में सेव के पड़ों में फल लदे हुए थे. काली नदी के पार नेपाल के आबाद गाँव भी दिख रहे थे. काली नदी यहां संकरे गौर्ज के बजाय काफी फैली हुई बहती है. अब छियालेख की इम्तेहान लेने वाली खतरनाक चढ़ाई सामने थी. रुक-बैठकर धीरे-धीरे हम आगे बढ़ रहे थे. एक जगह चाय का खोमचा मिला तो राहत सी मिली. चाय पीने के बहाने कुछ देर पीठ को बोझे से आराम मिल गया.
अनगितन सीढ़ियों वाले इस घुमावदार मगर खड़े रास्ते का जैसे ही अंत हुआ तो अचानक एक अद्भुत दृश्य ने हमारी सारी थकान दूर कर दी. दरअसल इस चढ़ाई का अंत दो विशाल चट्टानों के बीच गुफानुमा दरवाजे पर होता है. इससे बाहर आते ही छियालेख का मखमली बुग्याल बांहे फैलाए आपका स्वागत करता है. सामने बर्फ से लदी नेपाल के आपी और नाम्फा शिखर आपको जैसे मुस्कराते हुए देख रहे होते हैं. हमारे आगे चल रहे गोपालदा तो बुग्याल में बच्चों की तरह गुलटियां मारकर अपनी खुशी जाहिर कर रहे थे.
अप्रतिम छियालेख 3350 मीटर की ऊंचाई पर है. चारों ओर बुग्याली फूल जैसे खुश होकर झूम रहे थे. मन तो हो रहा था की यहीं अपने तंबू तान लिए जाएं, लेकिन आगे गर्ब्यांग में हीरा को आज पहुंचने का सन्देश भेज दिया था. बेहद खूबसूरत छियालेख बुग्याल को ‘रं’ समाज के लोग ‘छयेतो’ कहते हैं. छियालेख से ही इनर लाइन शुरू होती है. आईटीबीपी की चौकी पर हमने परमिट दिखाया और अपनी आमद दर्ज कराई. कुछ पल वहीं घूमते हुए व्यासघाटी के विस्तार को निहारते रहे. सामने गंगोत्री गर्ब्याल का मायका गर्ब्यांग गांव दिखाई दे रहा था. जो साठ के दसक से धंसता चला जा रहा है.
नाबी के ग्रामीण अब तक हमारे साथ हिलमिल गए थे. उनसे पता चला कि सामने व्यास ऋषि का मंदिर है और उधर बरमदेव का. छियालेख से गर्ब्यांग नजदीक लग रहा था. आगे का रास्ता भी अब समतल और राहत देने वाला था. गोपालदा ने बताया कि इसी चाल से चलते रहे तो गर्ब्यांग पहुंचने में घंटेभर से ज्यादा समय नहीं लगेगा.
आगे एक जगह बुग्याली मैदान में सुस्ताने को बैठे तो गोपालदा ने छियालेख का एक मजेदार किस्सा सुनाया. उनकी रागभाग के मुताबिक़ किसी जमाने में कोई संत-महात्मा व्यासघाटी में यात्रा कर रहे थे तो छियालेख पहुंचने तक अंधेरा घिर गया. उन्होंने वहीं रुकने का मन बना लिया. रुक तो गए लेकिन संत के पास खाने को कुछ था नहीं, तो उन्होंने घुमफिर कर किसी तरह एक चिड़िया को ढेर कर दिया. सूखी लकड़ियां बटोरकर चूल्हा बनाया और आग जलाई. अपने पिटारे से बर्तन निकाला और पास में अय्यामरती गधेरे से पानी लाए और बर्तन में चिड़िया को पकाने के लिए डाल दिया. पानी गर्म होने लगा तो उन्होंने एक पेड़ की टहनी की करछी बनाकर बर्तन में चलाना शुरू किया ही था चिड़िया फुर्र हो गई. यह चमत्कार देखकर संत की भूख मर गई. उन्हें समझ में आ गया कि इस करछी रूपी टहनी में संजीवनी शक्ति है. इस घटना का जिक्र उन्होंने किसी और से किया. घीरे-धीरे यह बात पूरी घाटी में फैल गई. जिसने सुना उसने छियालेख के बुग्याल की ओर दौड़ लगा दी. हर कोई मृत्यु पर विजय पाने के लिए लालायित था. ऊपर छियालेख से जब संजीवनी बूटी ने घाटियों से ऊपर चढ़ रहे इंसानी टिड्डीदल को देखा तो उसने भी अपना बोरिया-बिस्तर समेटा और नेपाल के छांगरू गांव की चोटी में जाकर छुप गयी.
गोपालदाने यह कहानी इतने मजेदार ढंग से सुनाई कि उनसे और भी किस्से सुनने का मन हो रहा था. लेकिन उन्हें आज गर्ब्यांग से आगे पहुंचना था. गोपालदा बच्चों की तरह खुश होकर गले मिले और कुलांचे भरते हुए आगे निकल गए.
हमने भी धीरे-धीरे गर्ब्यांग की ओर कदम बढ़ाए. एक जगह समतल बुग्याल के किनारे ऊंचे चट्टानों की बाखली दिखाई दी. नजदीक पहुंचे तो उनमें आईटीबीपी ने कुछ नंबर लिखे थे. ये चट्टानें उन हिमवीरों को चढ़ने और उतरने की ट्रेनिंग देने का एक जरूरी हिस्सा थीं ताकि दुश्मन के आने पर वे हर तरह की आपदाओं का सामना कर सकें.
आगे का रास्ता अब सर्पाकार ढलान लिए हुए था. खेत दिखने लगे तो गांव ने अपने होने का एहसास करा दिया. आगे दोराहे पर एक बुजुर्ग से रास्ता पूछा कि यहां पुलिस पोस्ट कहां है तो उन्होंने बाएं रास्ते की ओर इशारा कर दिया. पतले से रास्ते से आगे बढ़े तो अचानक सामने मित्र हीरा परिहार प्रकट हो गया. वह यहां कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग पर पुलिस ड्यूटी में तैनात था. मेरे पहले हिमालयी ट्रैक का साथी हीरा एक अच्छा पर्वतारोही रहा है और पर्वतों से प्रेम के चलते अभी वो एसडीआरएफ में है.
गर्ब्यांग में उनकी पुलिस चौकी ‘कैलाश मानसरोवर यात्रा’ के दौरान ही खुलती है, जो गांव के एक मकान में वर्षों से चली आ रही थी. यह चौकी कम गांव में उनका आशियाना ज्यादा लग रहा था. बाहर से यह मकान दो मंजिला जैसा लगा, लेकिन जब अंदर को गए तो पता चला कि यह तीन मंजिला है. बाहर आकर एक बार फिर से उसे ध्यान से देखा तो देखते ही रह गया. क्या खूबसूरत नक्काशीनुमा मकान था!
सांझ ढल रही थी और थकान भी थी तो गांव में घूमने का इरादा अगले दिन के लिए स्थगित कर दिया. नीचे एक छोटीसी क्यारी में ढेर सारी पत्तागोभी लहलहा रही थी. हीरा ने आज इसी हिमालयी सब्जी को रसोई में पहुंचा दिया. दोमंजिले के चाख में हमने मैट्रस बिछा अपना बिस्तर बना लिया. घंटेभर बाद खाना बना तो उच्च हिमालयी क्षेत्र की पत्तागोभी का स्वाद भी अमृत सामान लगा. चूल्हे में बन रही गर्मागर्म रोटियां पलक झपकते ही हमारे गले से नीचे उतर रही थीं.
सोने से पहले वायरलैस में संदेश आया कि हमारे मित्र पंकज और संजय धारचूला पहुंच गए हैं. कल वे आगे की यात्रा पर चलेंगे, तो मन खुश हो गया कि चलो अब ये पांचजनों की यह यात्रा सचमुच रोमांचक होगी.
सुबह जागे तो मौसम ठंडा और खुशनुमा था. चाय पीने के बाद कुछ देर आंगन में धूप के इंतजार में चहल-कदमी करते रहे. धीरे-धीरे धूप ने पूरे गांव में अपनी चादर फैला दी तो महेशदा ने एक थाली पकड़ उसे हुड़के की तरह थाप दे गिर्दा के बोलों को लय देनी शुरू की और हम सब भी उनके सांथ झूम उठे.
‘छानी-खरिकों में धुंआ लगा है,
ओ हो रे, आय हाय रे, ओ हो रे… ओ दिगौ लाली.
थन लगी बाछी कि गै पंगुरी है
द्वि-दां, द्वि-दां की धार छूटी है
दुहने वाली का हिया भरा है… ओ हो रे… आय हाय रे…
मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है,
गीली है लकड़ी, गीला धुंआ है,
साग क्या छौका कि पूरा गौं महका है,
ओ हो रे आय हाय रे.. गन्ध निराली…
‘गिर्दा’ के बोलों को गर्ब्यांग गांव में साक्षात महसूस किया तो कहीं भीतर तक छपछपी लग गई.
हीरा ने गांव घूमकर आने की बात कही तो हम खुश हो लिए. गुंजी वाले रास्ते में कुछ दूर जहां गांव की सरहद खत्म हो रही थी, वहीं से गर्ब्यांग के भीतर प्रवेश किया. कुछ पल थमकर गांव को निहारा तो सामने छियालेख तक नजर गई. यहां से यह गांव धंसता हुआ सा महसूस होता है. घरों के आंगन से गुजरते हुए लगा कि ज्यादातर घरों में बुजुर्ग ही थे. युवा-बच्चे कहीं नज़र नहीं आ रहे थे. शिष्टाचार अभिवादन के जवाब में वे चाय पीकर जाने का आग्रह कहते और हम, “अभी आते हैं…” कहकर सकुचाते हुए कदम बढ़ा लेते. इस गांव के पुरखों ने काली नदी के किनारे समतल जमीन देख कभी यहां अपने आशियाने बसाए होंगे. लेकिन धीरे-धीरे गांव धंसता चला गया और आज भी धंस रहा है. कई तीमंजिले घर भी इस वजह से ढह गए थे. आधे-अधूरे घर जिनमें कभी किलकारियां गूंजती होंगी.., दिनभर के थके-हारे माता-पिता उन्हें गोद में लेकर पुचकारते होंगे.., उन घरों में बन रहे पकवानों की महक फिजा में मंद-मंद बहती होगी.., कभी त्योहारों की चहल-पहल में पूरी घाटी चमक-धमकती भी होगी..
वक्त के साथ सब कुछ थमता चला गया. पुरानी यादों को संजोये बुजुर्ग साल में कुछ महिने यहां आकर खंडहर होते अपने घरों को बचाने प्रयास करते हैं. तेजी से भाग रही इस दुनिया में नई पीढ़ी का मोह अपने गांव के प्रति अब ज्यादा बचा नहीं है. लकड़ी की बेहतरीन नक्काशी वाले ये घर अब आधे—अधूरे की बचे हैं, इस बात का दुःख उन्हें है लेकिन गांव की जमीन धंस रही है तो वे भी क्या करें.
कुछ आगे को बढ़े तो एक जगह रास्ते को सीमेंट से ठीक करते हुए कुछ मजदूर दिखाई दिए. एक बुजुर्ग महिला उन्हें काम के निर्देश दे रही थी. अभिवादन के बाद पता चला कि वह ग्राम प्रधान हैं- बागेश्वरी गर्ब्याल. आंगन में चारदीवारी में बैठ उनसे बातें शुरू हुईं तो वह अपने अतीत में खो गईं. “… क्या बताऊं अब हो… यहां पहुंचने तक तो आपको पता ही चल गया होगा कि यहां कितनी परेशानियां हैं. पैदल रास्ते के यह हाल है. हां.. कभी सड़क आ जाती तो शायद कुछ भला हो जाता हमारे गांव का भी. क्यां कहें.. सरकारों को तो अपना ही घर भरने से फुर्सत नहीं है. हम खानाबदोशों के बारे में वे क्यों सोचने लगीं. हमारे बगल में चीन ने लिपूलेख की जड़ में मोटर गाड़ी पहुंचा दी है… हर साल कैलास जाने वाले यात्री वहां से गाड़ी में ही बैठकर जाते हैं… और हमारी सड़क घटियाबगड़ से आगे नहीं बढ़ पाई है, और वह भी नामभर को ही सड़क है. अब भी पैदल ही सफर करना पड़ता है. पहले जमाने में पैदल चलना उतना नहीं अखरता था. पता था इतना पैदल है. अब इस टूटी-फूटी रोड से मन कसकने वाला हुआ… अब सरकार को देखो- इस गांव में कभी हिरन नहीं दिखे लेकिन इसे मृग विहार बना दिया… यह हट जाता तो क्या पता सड़क बन जाती… हम नहीं भोगते उस सड़क को… हमारी अगली पीढ़ी तो क्या पता फिर आती गांव को देखने…”
उनके पास गांव और अपने बारे में कभी न ख़त्म होने वाली लंबी दास्तान थी. उस वक्त गलियों का काम चल रहा था तो हमने भी उन्हें ज्यादा नहीं कुरेदा. आगे बढ़े तो एक चाय की दुकान में पसर गए. हीरा ने जाते ही उन्हें काकू कह प्रणाम किया तो वो मुस्कुरा दिए. अस्सी का दशक पार कर चुके काकू उर्फ तब्दू ने चूल्हे में केतली चढ़ाकर आग तेज करते हुए बताना शुरू किया, “एक जमाने में हम तकलाकोट में व्यापार के लिए यहां से गुड़, फाफर, नपल और आलू ले जाते थे. वहां बकरियों की खूब खरीद-फरोख्त हुआ करती थी. बहुत लंबा व्यापार चलता था उन दिनों तो… अब तो खाली दिखावा रह गया है. चीन युद्ध से पहले हमारा गांव सोने की मंडी था. सारा व्यापार यहीं से होता था. नेपाल के छांगरू के लोग कीड़ा-जड़ी लेकर वहां बेचने को आते थे. चीन युद्ध के बाद व्यापार बंद हो गया और इधर हमारा गांव भी धंसना शुरू हो गया. गांव वालों को सरकार ने भाभर में जमीन दी लेकिन वह सब भी बहुत खराब रहा. हमारा मन तो अपना गांव छोड़ने को करता नहीं है. अब लोग कम रहते हैं तो ज्यादा संसाधन भी हम जुटा नहीं पाते हैं. इसलिए जाड़ों में नीचे धारचूला चले जाते हैं और फिर गर्मियों में छह-एक महिनों के लिए यहां आ जाते हैं…”
चाय बन गई थी. जड़ी-बूटियों की खुशबू से महकती चाय स्वादिष्ट लगी. चाय पीकर काकू से विदा ली और अपने ठिकाने में पहुंच गए. गांव की चहल-पहल बस इतनी ही थी.
दोपहर को फिर घूमने का मन हुआ तो गर्ब्यांग गांव से आगे काली नदी की ओर निकल गए. काली नदी में बना एक पैदल पुल बना दिखाई दे रहा था. नदी पार नेपाल में कुछ झुग्गियां दिख रही थी. सांझ होने लगी तो वापस अपने ठिकाने में पहुंचकर सामने चमकती हिमालय की ऊंची चोटी और उसके बगल में घनी हरियाली से ढके तीखे ढलान वाले पहाड़ को काफी देर तक निहारते रहा. इस पहाड़ को कुछ साल पहले ‘अमर उजाला’ ने देवी बताकर फ्रन्ट पेज में छाप दिया था. कुछ दिन बाद यह कहते हुए खेद भी जता दिया कि किसी पाठक ने फोटोशॉप से छेड़छाड़ कर भेजी थी.
‘चक्ती चलेगी’ के सवाल पर हमने हाथ खड़े कर दिए. मेरा मतलब था- नहीं और साथी लोग भी इस साहसिक यात्रा को पवित्र जानकर तौबा किए हुए थे. रात में दाल-भात बनाया गया. वायरलैस से नीचे की सूचना का आदान-प्रदान चल रहा था. चला कि हमारे दोनों साथी- पंकज और संजय बूंदी पहुंच गए हैं, कल दोपहर तक वे भी गर्ब्यांग पहुंच जाएंगे. भोजन के बाद हम कुछ देर तक गपियाते रहे. हीरा ने धारचूला जाना था तो वह अपनी तैयारियों में जुटा था.
सुबह हीरा ने अपना पिट्ठू लादा और हमसे विदा लेकर धारचूला को निकल गया. उसे शाम तक धारचूला पहुंचना था. नाश्ते के वजाय हमने आने वाले साथियों के सांथ दोपहर में भोजन करने का मन बनाया और आगे की तैयारियों में जुट गए. इस बीच एक पोर्टर ने संजय का रुकसेक लाकर रखा और बताया कि वह पीछे से आ रहा है. दोपहर तक पंकज और संजय गर्ब्यांग पहुंचे तो उन्होंने गुंजी तक चलने के लिए हड़बड़ी दिखानी शुरू कर दी. बड़ी मुश्किल से उन्हें भोजन के लिए राजी किया. लगातार चलने से संजय के पांवों में छाले पड़ गए थे और उसका रुकसेक भी उसकी हाइट के हिसाब से काफी बड़ा था. उन दोनों के पास पर्वतारोहण का सामान भी काफी था जिसे बाद में हमने आपस में बांट लिया.
भोजन करने के बाद हीरा के साथियों से विदा लेकर हम पांच जनों की टीम गुंजी की ओर निकल पड़ी. रास्ता तिरछा और शांत था. जगह-जगह शिव के नारे लिखे हुए थे. तीन घंटे की पदयात्रा के बाद में नपलच्यू गांव में थे. गांव काफी खूबसूरत था. खेतों में जंबू के अलावा अन्य फसलें लहलहा रही थी. गांव का प्रवेश द्वार काफी खूबसूरती से बनाया गया था. मुश्किल से चार परिवार गांव में दिख रहे थे. गुंजी सामने कुट्टी यांगती नदी के पार दिखाई दे रहा था. गांव से नीचे पुल तक हल्का उतार के बाद गुंजी के लिए हल्की चढ़ाई थी. गुंजी गांव की बाखलियों के बीच से होते हुए दाहिनी ओर पर्यटक केंद्र की ओर चले. रास्ते में एक छप्परनुमा दुकान में बैठी दुकानस्वामी हम ग्राहकों को देखकर खुश हो गई. अभिवादन के बाद उसने हमारे लिए बैंचे बिछा दीं.
दरअसल, व्यास-दारमा के इस ट्रैक में हम राशन लेकर नहीं लाए थे. सिर्फ आपातकालीन भोजन ही हमने बचाकर रखा था. इस ट्रैक की पूरी जानकारी के बाद ही राशन नहीं ले जाने का ये निर्णय लिया गया, क्योंकि इस मार्ग में हर जगह आवास और भोजन की व्यवस्था है. हमारे पास टैंट, स्लीपिंग बैग, मैट्रस, रोप, छोटे बर्तन और एक छोटा स्टोव ही था. हर जगह गांव के स्थानीय पड़ाव में रुकने का मन बनाया था. इससे एक तो स्वादिष्ट भोजन मिल जाता है और स्थानीय लोग बड़ी आत्मीयता के साथ घुलमिल जाते हैं.
सांझ ढलने लगी तो सूरज भी अपनी दुकान समेटने लगा. गुंजी गांव की ओर दूर कई लोगों का हुजुम सा दिखाई दिया तो कौतुहलवश हम भी उसे देखने को रुक गए. जयघोष के साथ झुंड करीब आया तो पता चला कि यह काफिला पर्यटन मंत्री प्रकाश पंत का है. सर पर साफा बांधे हुए पन्त जी की चाल में गजब की तेजी दिखाई दी. वह छोटा कैलास की यात्रा पूरी कर लौट रहे थे.
दुकानस्वामिन अर्चना गुंज्याल, गुंजी गांव की ही थी. वह यहां यात्रा सीजन में अपने छोटे भाई के साथ सुबह से रात तक काम में जुटी रहती थी. अंधेरा घिर आया था. भोजन में दाल-भात और टपकिया के साथ मिली तीखी चटनी ने दिनभर की थकान दूर कर दी. सोने के लिए बैंचों को आपस में जोड़कर डबलबैड बना हमने अपने मैट्रस और स्लीपिंग बैग निकाल लिए. अर्चना बहन ने भी बगल में दो बैंचे जोड़कर अपना और छोटे भाई का बिस्तर निकाल लिया. अर्चना से बातचीत से पता चला कि आगे कालापानी और नाभीढांग में दो-एक दिन बाद यात्री पहुंचेंगे. इसलिए वहां के पर्यटक आवास अभी खाली मिलेंगे. इस पर मैंने सभी को छाता, विंडचेटर/जैकेट, तौलिया, वाटर बोटल सहित कुछ बिस्कुट-टॉफी जैसे कुछ जरूरी सामान सांथ ले जाने और टैंट सहित बाकी सामान यहीं रखने का सुझाव दिया. इतना सामान एक छोटे रुकसेक में आ जाएगा जिसे हम बारी-बारी से ढो लेंगे. सभी तैयार हो गए सिवाय पंकज के. मुश्किल से उसे मनाया लेकिन सुबह उसने महेश दा, पूरन, संजय समेत खुद की पीठ को मैट्रस और स्लीपिंग बैग से लाद ही दिया. मैं खाली हाथ रहा.
गुंजी से निकलते-निकलते आठ बज गए. आगे लंबे मैदान में एक जगह एक शिलापट्ट स्थापित था. ऐसा लग रहा था शायद यह तिब्बती भाषा में लिखा होगा. गुंजी में कुछ नौजवान मिले, जो तिब्बत के तकलाकोट कस्बे में कारोबार करने जाते हैं. सामने से घोड़े में तेजी से एक नौजवान आता दिखाई दिया. हमारे रुकने का इशारा करने पर उसने फुर्ती से आगे जाकर अपने घोड़े को मोड़ा और हमारे बगल में आकर खड़ा हो गया. उसने अपने घोड़े को प्यार से पुचकारा तो घोड़े ने भी हिनहिनाकर अपनी खुशी जाहिर की. घोड़े और मालिक की गहरी दोस्ती देखने लायक थी. उसने बताया कि गुंजी में साल में एक बार घौड़ों की दौड़ होती है और वह अभी उसी का अभ्यास कर रहा है.
हमने उससे हाथ मिलाया और उसे घुड़दौड़ में सफल होने दुआएं देते हुए आगे बढ़े. मैं खाली हाथ था और इस कारण इस मिश्रित जंगल के बीच गुजरने का आनंद ही कुछ अलग था. रास्ते में एक जगह आईटीबीपी का एक जवान गश्त को गए आपने सांथियों के इंतजार में चाय-नाश्ता लिए बैठा दिखा. हमने उसे अभिवादन किया तो उसने भी प्रेमवश हमें चाय, नमकीन परोसनी शुरू कर दी. हमारे लाख मना करने पर भी वह माना नहीं. कुछ पल उसके साथ भी गपशप हुई. आगे नाभी जाना है. कहते हुए हम जवान के गले मिले और आगे बढ़ गए.
आगे का रास्ता हल्का उतार-चढ़ाव लिए हुए रास्ता काली नदी के साथ-साथ था. इस समतल जगह में काली का बहाव कल-कल करता है. उसके आकर्षण में हमने भी जूते उतार लिए और काली के पानी ठंडक लेने नदी में उतर गए. बर्फीले पानी में पांव डालते ही जैसे थकान काफूर हो गई. हरी घास में आधे घंटे तक पसर मीठी झपकी ले ही रहे थे कि पंकज ने देरी का वास्ता दे सबको जगा दिया.
कुछ देर बाद रास्ता उंचाई की ओर जाते हुए संकरा हो गया था. नीचे गहरे में काली अनमनी से बहती नज़र आ रही थी. सामने एक तंग घाटी में रंग-बिरंगी झंडियां दिखाई दीं. अनुमान लगाया कि इसे कालापानी होना चाहिए. नदी पर बने पुल के पास पहुंचे तो अनुमान सही साबित हुआ. आईटीबीपी ने इस जगह को काफी सुंदर ढंग से सजा रखा है. आगे काली मंदिर के पास एक प्राकृतिक स्रोत से निकल रही पानी की पतली धार को काली का उद्गम बताया जाता है. मंदिर के आसपास गलीचे बिछाकर सजाया गया था. मंदिर के बगल में बने हॉल में हारमोनियम, तबला और ढोलक रखे हुए थे. मन तो हुआ कुछ देर महफिल जमा ली जाए लेकिन नाभी पहुंचना था और हमें मालूम नहीं था कि वहां पहुंचने में कितना वक्त लगेगा. आगे आईटीबीपी के बैरियर पर परमिट सम्बंधी औपचारिकता पूरीकर जैसी ही आगे बढ़े तो वहां दर्जनभर से ज्यादा रैनबसेरे दिखे. यह पांखा नाला पड़ाव था. कुछ खाने-पीने पर सहमति बनी तो एक दुकान में घुसे. पता चला यहां सिर्फ मैगी ही मिल सकती है. जब तक मैगी तैयार होती हम उस बाजारनुमा अनजानी गलियों में निकल आए. सभी घरों में में भेड़-बकरियों के मांस को माला बनाकर सुखाया जा रहा था. महक नाकाबिले बर्दाश्त थी तो वापस मैगी की दुकान में लौट आए. इस दुकान में कपड़े, जूते आदि दूसरा सामान भी था जिसे दुकानदार तिब्बती बता रहे थे. संजय ने अपने लिए जूता खरीद लिया.
मैगी को हलक से उतारकर आगे नाभीढांग की ओर बढ़े. आगे का रास्ता अचानक ही फैलता चला गया, बिलकुल तिब्बत के पठारों की तरह. हल्की चढ़ाई थी लेकिन नजारे इतने खूबसूरत थे कि थकान जैसे भाप की तरह गायब हो जा रही थी. अब कैसा नज़ारा होगा का आकर्षण हमें आगे खींचता जा रहा था. पठारों के नए-नए रूप हमें रोमांचित कर रहे थे. एक समतल सी जगह में पत्थरों से बने कुछ पड़ाव दिखाई दिए. यहीं पर नाभी से आ रहे कुछ ट्रैकर भी मिले. इनसे पता चला कि नाभी के लिए अब घंटेभर का रास्ता बाकी बचा है. उन्होंने बताया कि बादलों की वजह से वे ॐ पर्वत का नज़ारा लेने से वंचित रह गए. वैसे भी इस बार बर्फबारी कम होने से ॐ पर्वत में बर्फ भी कम ही है.
आगे हल्की चढ़ाई और फिर हल्के उतार के बाद आपस में सटी हुई चार छोटी-छोटी झोपड़ियां दिखाई दीं. इनका इस्तेमाल यहां से गुजरने वाले मजदूर और व्यापारी रैनबसेरे के तौर पर करते हैं. यहां से आगे तीखी चढ़ाई शुरू हो गई. चढ़ाई खत्म होते ही सामने आईटीबीपी का बैरियर था. जवानों ने हमारे परमिट चेक किये और अपने रजिस्टर में हमारी आमद दर्ज. हमें बताया गया कि हमारा परमिट यहीं तक का है. आगे लिपुलेख के रास्ते में बने मंदिर से आगे जाने की इजाज़त हमें नहीं है. साथ ही नीचे उनके कैंप की ओर नहीं जाना है.. और इधर नहीं जाना है.. उधर नहीं जाना है….!
हमने उन्हें बाकायदा फौजी सैल्यूट देकर आश्वस्त कराया कि हम नियमों का पालन करेंगे तो वो हंस पड़े. आगे केएमवीएन के टीआरसी बैरकों में पहुंचे तो वे खाली मिले. वहां ड्यूटी दे रहे मैनेजर ने हमारे लिए एक बैरक खोल दी. क्या शानदार बैरक थी! तो ये है नर्म गद्दे के साथ गर्म रजाई! मैंने अपना छाता किनारे रख दिया. बाकी साथी भी अपने रुकसेक किनारे रख पंकज को घूर रहे थे.
साथियों की त्योरियां चढ़ने पर पंकज मुस्करा दिया. उसने सफाई दी, “अरे! कोर्स में यही सब सिखाया जाता है… क्या पता कब क्या मुसीबत आ जाए… इसलिए यह सब जरूरी होता है… वैसे भी आगे सिनला पास पार करना है तो आप सभी की एक तरह से फिटनेस भी जरूरी थी.” उसकी बातें सुनकर सभी हंस पड़े कि अच्छा बेवकूफ बनाया… भट्टजी ने भी तो कोर्स किया है और वो सिर्फ छाता लेकर आए हैं…!
इससे पहले कि बात ज्यादा बढ़ती, बैरक के बाहर से पंकज ने आवाज दी, “सब बाहर आओ.. जल्दी…” हम हड़बड़ाते हुए बाहर निकले तो उसने सामने की ओर इशारा किया. वाह! क्या अद्भुत नजारा था!! ॐ पर्वत तक बाहें फैलाए घाटी जैसे हमें अपनी ओर खींच रही थी. ॐ पर्वत में बर्फ कम थी लेकिन इस जगह प्रकृति का के इस शृंगार को हम देर तक निहारते रहे. घाटियों को निग़ाह में रखते हुए अपनी दाहिनी ओर ओर देखा तो एक पर्वत का आकार पेट की नाभी की तरह दिखाई दिया. लिपुलेख दर्रे की ओर हमें मंदिर तक जाने की इजाजत थी तो उस ओर निकल पड़े. मंदिर के पास एक हेलीकॉप्टर का कंकाल दिखाई दिया. बारी-बारी से सभी उसमें सवार होकर ‘साउथ इंडियन मूवी’ के हीरो की तरह फोटो खिंचाते रहे. बाद में पता चला कि 1993 में इस हैलीकॉप्टर से कुछ प्रशासनिक अधिकारी यहां सैर के लिए आए थे. अचानक हैलीकॉप्टर का संतुलन बिगड़ गया और किसी तरह पायलट उसे इन चट्टानों में उतार पाने में कामयाब हुआ और एक बड़ी दुर्घटना होते-होते रह गई. हैलीकॉप्टर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया लेकिन अधिकारियों की जान बच गई और फिर वे पैदल गुंजी लौटे. बाद में इन अधिकारियों में जान बचाने के एवज में यहां एक शिव मंदिर बनवा डाला.
नाभीढांग से आगे लिपूलेख के दर्रे के तिरछे रास्ते पर दर्जनभर घोड़े-खच्चर व्यापारियों का सामान लादे तकलाकोट से वापस लौट रहे थे. लिपूलेख की मोहक घाटी हमें अपनी ओर खींच रही थी लेकिन सरहद की बेड़ियों में जकड़े हम वापस बैरक की ओर लौट आए. रात्रि भोजन के लिए टीआरसी में मालूमात की तो पता चला की तकलाकोट की बंद गोभी के सांथ रोटी, चावल-दाल का इंतजाम हो जाएगा. एक डाइट साठ रुपये लगेंगे. साठ रुपये! तब बहुत ज्यादा लगे. इससे पहले हर पड़ाव में हम तीस-चालीस रुपए में खा और रह रहे थे, यहां रहने का किराया भी अलग से देना था. खाना रात आठ बजे निर्धारित था तो हम तब तक के लिए अपने बैरक में घुस गए. बाहर बहुत ठंडक थी. बैरक में कुछ देर गपियाते हुए ठंड से राहत मिली. पुरदा किस्सों की पूरी खान थे तो उसके किस्से सुनकर हम सभी पेट पकड़ दोहरे होते रहे.
आठ बजने को आए तो हम टीआरसी के डायनिंग हॉल में घुस गए. कड़ाके की ठंड से सिहरन हो रही थी. थोड़ी ही देर में भोजन सज गया. तकलाकोट की तिब्बती बंद गोभी के साथ भारतीय आटे से बनी रोटियों के स्वाद से तो जैसे मजा आ गया. साठ रुपये डाइट की भरपाई के लिए हम भोजन पर पिल पड़े. रोटियां आनी बंद हो गईं और एक डोंगे में चावल आया तो उसे भी निपटाकर आवाज मारी. थोड़ा सा चावल फिर आया और फिर रसोइए महाराज ने हाथ जोड़ लिए कि अब सब खत्म हो गया. वह हैरत में था कि इस उंचाई में इन लोगों ने इतना कैसे खा लिया, जबकि उंचाई में तो भूख घटती चली जाती है. अब उसे कैसे समझाते कि हम नाजुक कैलास-मानसरोवर यात्री नहीं बल्कि ठेठ पहाड़ी पर्वतारोही हैं और ऊपर से साठ रुपए का हिसाब भी पूरा करना है.
बैरक में रजाई ने ठंड को दरवाजे से बाहर निकाल फैंका था तो हिमालय की गोद में गहरी नींद के आगोश में मीठे सपनों में देर तक खोये रहे.
सुबह उठे तो मौसम निहायत खुशनुमा था. चाय पीकर हमने वापसी की राह पकड़ी. कालापानी पहुंचने पर पता चला कि आगे कहीं गर्म पानी का स्रोत है. पुल पार कुछ दूर गए ही थे कि एक जगह पर नजर पड़ी, ‘सल्फर के गर्म पानी का स्रोत.’ नीचे काली नदी को एक पतले से रास्ते से उतरते चले गए. दो बाथरूम दिखे. बाहर एक नल से गर्म पानी का स्पर्श हुवा तो झटपट कपड़े उतार स्नान का आनंद लिया. धारचूला के बाद आज नहाने का मौका मिला था.
आगे गुंजी तक का पैदल सफर कब तय किया पता ही नहीं चला. दोपहर एक बजे हम सब अर्चना बहन की कुटिया में थे. उसने हमारे लिए खाना बनाना शुरू किया तो गपशप भी शुरू हो गई. तिब्बत के व्यापार पर उसका मत था कि अब खाली दिखावे का व्यापार रह गया है. असली व्यापार तो सन बासठ की लड़ाई से पहले हुआ करता था. लोग एक-दूसरे पर भरोसा करते थे. अब तो बस सरकारी टाइप का व्यापार है. अब लिपुलेख दर्रे पर भेड़-बकरियों के आने-जाने के लिए एक स्प्रे वाला एक कालीन बिछा रहता है. भेड़-बकरियां इधर-उधर गई नहीं कि पड़ी गालियां. वह तो अच्छा है कि उनकी गालियां समझ में नहीं आती हैं.. लेकिन उनके तमतमाए चेहरे से पता चल ही जाता है कि ये आर्शीवाद तो दे नहीं रहे होंगे… अब तो खाली कैलाश दर्शन के बहाने ही व्यापार हो रहा है. यहां से तकलाकोट सामान ले जाने तक काफी महंगा हो जाता है.. अब इस जगह में सड़क तो हम लोगों के लिए सपना जैसी हुई.. रास्तों के हाल तुम लोगों ने देख ही लिए होंगे न…
खाना बन चुका था और खाना परोसते हुए अर्चना के किस्से भी थम गए. दिन ढलने में अभी समय था तो आगे कुट्टी की ओर बढ़ने का निश्चय किया. अर्चना बहन से विदा लेकर हमने अपना रुकसेक उठाया और आगे नाबी गांव की ओर निकल पड़े. गुंजी गांव की गलियों से गुजरते हुए देखा कि यहां ज्यादातर मकान तीन मंजिले हैं. घरों के आगे ऊंचे खम्भों में रंगीन कपड़े बंधे हुए थे. अभी कुछ दिन पहले गांव में बौराणी पूजा हुई थी. दूर-दराज पलायन कर चुके परिवारों के सदस्य भी इस सालाना पूजा में शिरकत करने जरूर आते हैं.
घंटे भर में हम नाबी गांव की सीमा में थे. ऊपर की खड़ी चट्टानों को देखकर हमने गांव से आगे रुकने का मन बनाया. नाबी गांव में पंचायत घर के आंगन में बनी दुकान में कुछ देर रुक चाय पी. बुजुर्गों से ज्यादा बातें नहीं हो पाईं. रास्ते में टैंट लगाने का विचारकर कुछ जरूरी सामान ले लिया और दो-एक किलोमीटर चलने के बाद टेंट लगाने की सही जगह की तलाश में पंकज आगे चला गया. कुछ देर बाद उसने आवाज दी कि यह जगह टैंट लगाने के लिए सही है तो हम भी आगे चल पड़े. जगह शानदार थी. दोनों टैंट तान दिए गए. स्टोव, बर्तन निकालकर मैगी बनाने की तैयारी करनी शुरू की, लेकिन स्टोव ने काम करने से मना कर दिया. बाहर चूल्हा बनाकर सूखी टहनियां जलाईं और जब मैगी खदबदाने लगी तो फटाफट उसे उदरस्थ कर लिया. सामने शांत बहती कुट्टी नदी और चांद की मंद रोशनी में अन्नपूर्णा समेत कई चोटियां जैसे हमें पुकारती सी महसूस हो रही थी. टैंट में आज पहला दिन था और हम काफी देर तक बाहर बैठकर आग सेंकते हुए ठंड का मजा लेते रहे…
सुबह जागे तो बाहर का नजारा शांत था. सर्पाकार कुट्टी यांग्ती नदी के सामने सूरज की किरणों से सुनहरी आभा लिए धवल हिम शिखर लुभा रहे थे. ये अन्नपूर्णा व आपी-नाम्फा के शिखर थे. टैंट पैक करने के साथ-साथ मैगी का नाश्ता भी हो गया. इस बार न जाने कैसे स्टोव मैगी बनाने के लिए राजी हो गया था.
बड़े रुकसेक की वजह से संजय को चलने में परेशानी हो रही थी. सिनला पास पार होने में अभी तीन दिन बाकी थे. मुझे डर था कि रुकसेक की वजह से संजय कहीं पहले ही बीमार न पड़ जाए. या अन्य कोई मुसीबत उठ खड़ी हुई तो पूरी टीम को वापस लौटना पड़ेगा. इसलिए मैंने उसके साथ अपने हलके रुकसैक की अदला-बदली करने की योजना बनाई.
सामान समेटकर हमने आगे की राह पकड़ी. दो-एक घंटे चलने के बाद नम्फा नाला नामक जगह पहुंचे. यहां रास्ते के दाईं ओर एक ढाबा दिखाई दिया तो वहीं का रूख कर लिया. यहां अच्छी-खासी भीड़ थी. ज्यादातर यात्री छोटा कैलास की यात्रा से वापस लौट रहे थे. युवा होटल मालिक परिवार सहित यात्रियों की आवभगत में जुटा था. भोजन के लिए मालूमात करने पर उसने एक ओर इशारा किया. पता चला कि यहां सैल्फ सर्विस है. बर्तन लो और एक जगह पर रखे हुए भोजन में से जितना चाहिए निकाल लो. रोटी, सब्जी, दाल, चावल के साथ सलाद-चटनी भी थ. छक के जीमने के बाद बिल पूछा तो पांच डाइट का मात्र डेढ़ सौ रुपया. यकीन नहीं हुआ तो हमने फिर पूछा. उन्होंने बताया कि तीस रुपया डाइट है. इस दुर्गम इलाके में इतने कम रुपयों में इतना बढ़िया खान! उन्हें धन्यवाद देकर हमने अपने रकसेक उथाए और कुट्टी गांव की ओर बढ़ना शुरू किया.
रास्ते में एक अणवाल अपने भेड़ों के कारवां के साथ मस्ती में आता हुआ दिखाई दिया. कुट्टी गांव का रास्ता हल्का उतार-चढ़ाव लिए हुए . संजय के रुकसेक ने मुझे परेशान कर डाला. उसके बेढब रुकसेक से मेरी चाल धीमी हो गई थी. रास्ते में एक जगह पंकज ने मजाक किया, “अब तुम बूढ़े शेर हो गए हो.. अब हिमालय तुम्हारे बस का नहीं…” यह बात मजाक में कही गई थी, लेकिन एक तो रुकसेक और दूसरा उंचाई की वजह से मैं चिड़चिड़ा गया था. हांलाकि पंकज के मजाक का मैंने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन गुस्सा दिमाग में भर गया. कुट्टी गांव नज़र आने लगा था. खेतों के बीच गुजरते हुए रास्ते में गांव की सरहद के पास एक शानदार गेट बना हुआ था. रेलवे का एक ट्रैकिंग ग्रुप भी छोटा कैलास की यात्रा पर था. हमारे साथ मेहश दा के झक् सफेद बाल और दाढ़ी को देखकर सभी हैरान थे इतनी उम्रदराज बुजुर्ग भी इस कठिन यात्रा पर हैं. सभी ने उनके साथ फोटो खिंचवाए ताकि अपने बैठक में टांगें. हम यह सब खामोशी से देख रहे थे. उनमें कई महेश दा से काफी ज्यादा उम्र के थे लेकिन यहां फिलहाल महेश दा ही सबसे उम्रदार नौजवान थे.
रेलवे वालों से विदा लेकर हम खेतों के बीच बने रास्ते से कुट्टी गांव में दाखिल होते हैं. गांव के अंतिम छोर में एक ढाबे का बोर्ड- ‘देख भाई देख’ दिखाई दिया तो मुस्कुराते हुए वहीं की ओर चल पड़े. ढाबे का मालिक नौजवान गज्जू था. उसकी दो साल की प्यारी सी बिटिया टेप में बज रहे गानों से ताल मिलाकर मजे से नाच रही थी. गज्जू के आंगन में बैठकर जानकारी ली तो उसने प्रेम से बताया कि बगल में उसका घर है, एतराज न हो तो वहीं रह सकते हैं. अभी कुछ यात्रियों को खाना खिलाना है उसके बाद हम सभी के लिए घर में ही खाना बनेगा. इससे बढ़िया स्वागत और क्या हो सकता था.
बच्ची अपने नेपाली गीतों में ही खोई हुई थी. तभी मेरे मित्र डी.एस.कुटियालजी आते दिखे. मैं उनकी ओर लपक लिया. वह तब बागेश्वर में वायरलेस विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर थे. मैंने उन्हें बताया था कि इस बार मैं अपने साथियों के साथ व्यास-दारमा घाटी में आ रहा हूं. वह हमारा इंतजार कर रहे थे. चाय के बाद उन्होंने गांव में घूमने का आग्रह किया और हम अपना सामान वहीं छोड़ उनके साथ हो लिए. गांव की बाखलियों से होते हुए हम उनके पुश्तैनी मकान में पहुंचे. इस बार वह अपने मकान की मरम्मत के लिए लंबी छुट्टियां लेकर आए थे. मकान की हालत ठीक नहीं थी और घर में भी कोई नहीं था. कुटियालजी हमें गांव की ग्रामप्रधान रसमा कुटियाल के वहां ले गए. रास्ते में उन्होंने हमें गांव के पंचायतघर में रहने को कहा लेकिन तब तक हमारी गज्जूभाई से उसके पास में ही घर में रहने की बात हो चुकी थी. पचास का दसक पार कर चुकी रसमा कुटियाल के चेहरे में हमें देखते ही एक आत्मीय मुस्कान उभर आई. व्यास, दारमा, जोहारआदि क्षेत्रों में अतिथि का स्वागत घर में बनी मदिरा-चकती (जाण) या छांग आदि से करने की परंपरा रही है. कुटियालजी और प्रधानजी की आपसी बातों से मुझे यह समझ में आया तो हम सभी बोल उठे कि चकती फिर कभी. फिलहाल यहां की चाय पीने का मन है.
रसमा कुटियाल एक जागरूक महिला थीं. बातचीत में वह हमें कुट्टी का इतिहास भी बताती जा रही थीं- ‘कुट्टी नदी को यहां कुट्टी मांगती के साथ ही काली नदी के नाम से पुकारा जाता है. सामने ‘गालथांग’ यानि सिनला पास है. पहले इस रास्ते से भी दारमा को आना-जाना लगा रहता था. चीन की पम्पा, यरपा, ज्ञानिमा आदि मंडियां हुआ करती थीं, जहां दोनों देशों के व्यापारी कारोबार करते थे. वहां जाते वक्त लम्पिया व मकस्यंग दर्रों को पार करना पड़ता था. भारत की सीमा में निरकुच मंडी में भी काफी व्यापार होता था. लेकिन 1962 की लड़ाई के बाद सब बंद हो गया. 1990 में एक बार फिर से व्यापार के लिए लिपुलेख को खोला गया. लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही.’ पीछे की ओर इशारा कर उन्होंने बताया कि, ‘इस कुट्टी पर्वत के बगल में गंधारी दर्रे से एक रास्ता तिब्बत को जाता है. हमारे दादाजी लोग किस्से सुनाया करते थे कि एक बार किसी महिला के बच्चे के इस मार्ग में गिर जाने से मौत हो गई तो उसने इस रास्ते को श्राप दे दिया, तब से यह रास्ता बंद हो गया है.’ उनके किस्से मानो इतिहास और मिथकों का उलझा हुआ मिश्रण थे.
पुरानी यादों में डूबी हुई वह बता रही थीं- ‘पहले हम गांववाले बर्फबारी से बचने के लिए धारचूला में चार महीने के लिए चले जाते थे. अब तो यहां कम और नीचे धारचूला में ही ज्यादा रहना होता है. धारचूला में 1950 के बाद लोगों का गांव छोड़कर बसना शुरू हुआ जो अब तक जारी है. धारचूला में कुटियाल और गर्ब्याल खेड़ा हम लोगों के ही हुए. जब रजवारों का राज चलता था तब हम उन्हें टैक्स दिया करते थे. होने को तो हमारी कर्मभूमि यह व्यास घाटी ही हुई, लेकिन अब रिश्तों की जड़ें मुनस्यारी, दारमा, चौंदास के साथ गढ़वाल तक फैल गई हैं. यहां व्यासघाटी में ‘रं’ कल्याण संस्था कई काम कर रही है.’
रसमा कुटियालजी के पास किस्सों का खजाना भरा पड़ा था. अंधेरा घिरने को आया तो उनसे इजाजत मांगी. कुटियालजी एक बार फिर हमारे साथ गज्जू के घर तक आ गए. कुछ देर ठहर वह हमसे विदा ले नीचे गांव को चले गए. हमने गज्जू से फाफर की रोटी के बावत पूछा तो उसने अपनी पत्नी से रं भाषा में कुछ कहा और बोला- ‘आप लोग कमरे में चलें खाना वहीं बनेगा. ‘गज्जू के दोमंजिले मकान की सीढ़ियां चढ़कर अंदर गए तो मकान उनका भी मरम्मत की मांग करता दिखा. एक कमरे को हमने अपना आशियाना बना लिया. मैटरस, स्लीपिंग बैग से हमने बिस्तर तैयार कर लिया. कुछ देर बाद गज्जू भी ढाबे में सबको खाना खिला कमरे में आ गया. चाख के बीच बने चूल्हे में हरी सब्जी बना दी गई. बच्ची थककर सोने लगी तो उसे दूध पिलाया गया. उनींदे से उसने आधा-अधूरा दूध पिया. एक परात में फाफर को गीलाकर चूल्हे में तवा चढ़ा. उसमें फाफर के घोल से रोटीनुमा आकार बना मजेदार रोटियां बननी शुरू हुई. हम सब उन्हें यह सब करते देखते रहे. गज्जू ने थालियां निकाल सब्जी परोसी और एक-एककर फाफर की गर्मागर्म रोटियां देनी शुरू कर दीं. हरी सब्जी के साथ उन रोटियों का स्वाद अद्भुत लगा. उस वक्त चाख में खाना खाते वक्त उस परिवार के प्रेम को सिर्फ महसूस ही किया जा सकता था. उनके व्यवहार से कहीं से भी यह नहीं लग रहा था कि कहीं दूर से कुछ अपरिचित लोग उनके घर में आए हैं.
खाना खा हम अपने बिस्तरों में घुस गए. जल्द ही नींद की थपकी हमें मिल गई. सुबह सिर में कुछ टकराने पर टार्च लगाकर देखा तो पाया कि मांस की अनगिनत लड़ियां टंगी हुई थीं. दरअसल उच्च हिमालयी क्षेत्र छः महिने बर्फ से ढके रहते हैं और तब खाने के लिए यहां के वाशिंदे अपने लिए सूखा मीट और अन्य साधन जुटाकर रखते हैं ताकि ठंडे महीनों में कोई दिक्कत न हो. अब ज्यादातर परिवार जाड़ों में नीचे धारचूला चले जाते हैं लेकिन सूखा मांस रखने की उनके पुरखों की यह परंपरा आज तक भी जिंदा है.
गज्जू भाई ने सिर्फ खाने के ही पैसे लिए तो हम भी अपने पास से हल्दीराम की मिठाई का डिब्बा चुपाचाप उनके चूल्हे के पास छोड़ आए. उनसे विदा लेकर हम आगे ज्यौलिंगकांग की ओर बढ़ चले. गांव के छोर में आईटीबीपी के कैंप में भी अपने आगमन की सूचना दर्ज कराई. संजय के रकसेक का बोझ मुझे तेज चलने नहीं दे रहा था. सभी मुझे पीछे छोड़ काफी आगे निकल गए थे.
कुट्टी से ज्योलिंगकांग करीब 13 किमी का रास्ता शांत और धीरे-धीरे ऊंचाई लिए है. कुट्टी गांव की सीमा पर पानी के दो धारे दिखाई दिए. एक को पीने का पानी भरने और दूसरे को नहाने और कपड़े धोने के लिए लिहाज से इस्तेमाल किया जाता था. कचरे के लिए बाहर बकायदा एक कूड़ादान बना दिखा. गांव वालों की सफाई के प्रति जागरूकता देख अच्छा लगा. आगे एक उफनते हुए गधेरे के किनारे घराट में गेहूं की पिसाई चल रही थी. गांव पीछे छूट गया था और आगे हिमालय की विस्तृत घाटी में कंदराएं बांहें फैलाकर जैसे हमें पुकार रही थीं. पंकज, महेशदा और पूरन काफी आगे निकल गए थे. मैं और संजय साथ-साथ चल रहे थे. संजय को इस बात की शर्मिंदगी हो रही थी कि उसके रकसेक की वजह से मुझे परेशानी उठानी पड़ रही है. हांलाकि मैंने ऐसा कतई जताया नहीं था.
आगे दूर हमारे तीनों साथी चीटियों की तरह रेंगते हुए दिखाई दे रहे थे. सर्पिल घाटी के पार वे हाथ से इशारा कर हमें जल्दी आने को कह रहे थे लेकिन हम रफ़्तार बढ़ाने की स्थिति में नहीं थे. यह जगह हुड़का धार थी. हमारे वहां पहुंचने पर पंकज ने हमें जूस पिला तृप्त किया तो थोड़ी राहत मिली. सामने आईटीबीपी के हट दिखाई दे रहे थे. निर्खुचा नाला पार कर ऊपर एक छोटे से बुग्याल में पहुंचे तो बांई ओर एक हिमपर्वत को देख हम सबने उसे ही छोटा कैलाश मान दंडवत किया और फोटो खींचकर तृप्त हो लिए. बाद में पता चला कि छोटा कैलाश तो आगे है, यह तो निर्खुच पर्वत था जिसे यहां के वासिंदे निकरचुरामा कहते हैं. पंकज, महेशदा और पूरन ने फिर रफ़्तार पकड़ ली. हम आईटीबीपी के कैंप के पास पहुंचे तो पंकज दौड़ता हुआ आया और उसने जबरन मेरा रकसेक ले लिया. अतिरिक्त बोझ से राहत मिलने पर अब मेरी चाल भी तेज हो गई थी. कुछ ही पलों में हम ज्योलिंगकांग में थे. आईटीबीपी में अपनी आमद दर्ज कराकर आगे टीआरसी में रुकने का फैसला किया.
आज मैं काफी चिड़चिड़ा हो गया था. इसकी दो वजहें थीं- एक तो उंचाई और दूसरा पंकज के फैसले लेने से दल में बाकी तीन साथी उहापोह की स्थिति में थे कि किसकी सुनें. उनकी नजर में हम दोनों ही पर्वतारोही थे. उम्र में बड़ा होने की वजह से मैंने खुद को स्वघोषित टीमलीडर मान लिया था. इस अभियान के लिए जानकारी जुटाने में मैंने मेहनत भी काफी की थी. पंकज के फैसले लेने से गूंजी से ही मुझे चिड़चिड़ाहट होने लगी थी पर मैं शांत बना रहा. टीआरसी की एक बैरक में कुछ फौंजियों के साथ हमें भी जगह मिल गई तो अपना सामान वहीं रख हम आगे पार्वतीताल देखने चले गए. कुछ दूर आगे जाने पर बाईं ओर बादलों के बीच छोटा कैलाश के दर्शन हुए तो जैसे सारी थकान काफूर हो गई. सचमुच यह बिल्कुल कैलाश पर्वत की तरह दिख रहा था!
‘जल्दी करो आगे पार्वतीताल देखकर लौटना भी है, सांझ हो रही है.’ पंकज की आवाज से हम सभी चौंक पड़े. खाली हाथ थे तो चाल में तेजी भी थी.
‘अरे! यह क्या है?’ पूरन चिल्लाया तो हम उसकी ओर देखने लगे. जमीन में बने एक बिल में ‘फिया’ की न जाने कैसे मौत हुई थी. हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले ‘फिया’ खरगोश की तरह बिल बनाकर रहते हैं. उसे देखकर लगा कि किसी ने इसे पत्थर से घायल कर दिया हो और अपने घर के दरवाजे में पहुंचने पर इसने दम तोड़ दिया. मन अजीब सा हो उठा.
तिरछी चढ़ाई पार कर आगे पहुंचे तो पार्वतीताल का अदृभुद सौंदर्य देख कदमों की रफ़्तार थम गई. छोटा कैलाश का प्रतिबिंब उसकी लहरों में हिलोरें ले रहा था.
लगभग दो किमी की परिधि से घिरा पार्वतीताल बेहद खूबसूरत था. ताल किनारे चहल—कदमी करते हुए मैं सभी साथियों को पंचस्नान करते देख रहा था. वे श्रद्धा में डूब—उतरा रहे थे. पूरन और महेशदा ने बकायदा बोतलों में घर के लिए पवित्र जल भी भर लिया. कुछ देर बाद वे वापस शिव मंदिर के पास आए और मंदिर के अंदर गए. मंदिर में लगा बोर्ड बता रहा था कि यह मंदिर 1972 में बना और अभी 2002—03 में इसका पुनरुद्धार किया गया. यह मंदिर कुट्टी की महिला मंगल दल की देख-रेख में है.
मैं खामोश होकर छोटा कैलाश के दाहिनी ओर आगामी कल तय किये जाने वाले रास्ते को निहार रहा था. यह सिनला पास था जिसे पारकर हमें आगे दारमा घाटी में उतरना था. मुझे यह पास बेसिक माउंटेनियरिंग कोर्स की भाषा में ‘हाईटगेन’ करने जैसा महसूस हो रहा था. सूकून देने वाली बात यह थी कि इस दर्रे में बर्फ नहीं दिख रही थी, वरना इसे पार करने के बारे में सोचना पड़ता.
सिनला पास पार करना है, यह सुनकर महेशदा, पूरन और संजय थोड़ा चिंतित प्रतीत हो रहेथे. मैंने उनसे कारण पूछा तो सबके अपने—अपने सवाल थे. वहां सांस अटक जाती है बल.. आक्सीजन कम होते जाती है बल… चला नहीं जाता है बल…!
मैं हैरान—परेशान कि उनके दिमाग में ये बे—सिर पैर के खयाल कहां से आ रहे हैं. पूछने पर उन्होंने बताया कि पंकज ने बताया कि आधी रात में उन्हें चलना पड़ेगा नहीं तो बाद में कई दिक्कतें आ जाएंगी.. और भी बहुत कुछ कहा बल!
मैंने उन्हें शांत कर बताया कि ऐसा कुछ नहीं है. यह दर्रा बहुत ही आसान है, कुछ उंचाई में हम जाएंगे और फिर उसे पारकर नीचे उतर जाएंगे दारमा घाटी में. यह एक तरह से ट्रैकिंग ही है, जैसी हम रोज करते आ रहे हैं. जहां तक सांस की दिक्कत वाली बात है, वह बीस हजार फिट के बाद आती है. और मैं अपने कोर्स में साढ़े तेइस हजार की उंचाई पर जा चुका हूं बिना आक्सीजन के.
उन्होंने सहमती में सर हिलाया तो सही लेकिन उनकी बैचेनी अभी गई नहीं थी. वे सब असमंजस में थे कि दो लीडरों में किसकी बात पर भरोसा किया जाय. ज्योलिंकांग में कुछ दुकानें भी थीं. यात्रा सीजन अब खत्म होने को था तो ज्यादातर कपाट बंदकरअपने घरों को लौट चुके थे. बस एक ही दुकान खुली थी. पंकज उस दुकानदार से रास्ते के लिए आलू के परांठे बनाने की बात तय करने लगा. उसी वक्त एक शख्स हमसे पूछने लगे कि हमें जाना किधर है. उन्होंने अपना नाम मानसिंह कुटियाल बताया और वह कुट्टीगांव के ही निवासी थे. हमने उन्हें बताया कि हम सिनला होते हुए दारमा जा रहे हैं तो वो सतर्क हो उठे. उन्होंने कहा कि, वह हमें दर्रा पार करवा देंगे. इसके एवज में वह 1800 रुपये ही लेंगे. फिर वह शुरू हो गए कि दर्रा कितना खतरनाक है…रास्ता भटकने वाला है… ऊपर से पत्थरों की बरसात तो इतनी होती है कि बस पूछो मत…और हवा तो ऐसी चलती है कि अब गिरे तब गिरे…
मानसिंह की बातों से साथियों की दहशत बढ़ने लगी. मैंने उन्हें समझाया कि हम माउंटेनियर हैं और हिमालय को बखूबी जानते—समझते हैं. मैंने कुट्टीगांव के कई परिचितों का हवाला दिया तो झेंपते हुए बात बदलकर कहने लगे-वह दरअसल मैंने कई बंगालियों को दर्रापार कराया है न…अब आप सब तो यहीं के हुए…दर्रा इतना भी टफ नहीं है… सुबह आराम से जाना… रास्ते में मार्क लगे हैं…’ हमसे हाथ मिलाकर वह छूटते हुए बोले, ‘कभी मिलना हो धारचूला में…मेरा टूर का काम है वहां…’
अंधेरा घिरने लगा तो मानसिंह से पीछा छुड़ाकर हम वापस टीआरसी के बैरकों में लौट आए.
टीआरसी की मैट्रस बिछी हुई थी तो मैं चुपचाप हो उसमें लेट गया. बाकी साथी बाहर ही थे. आधे-एक घंटे बाद मुझे बताया गया कि सुबह दो बजे उठकर ढाई बजे दर्रे की चढ़ाई शुरू कर देंगे… एक दुकानदार को रास्ते के लिए पराठे—अचार को बोल दिया है… जितनी जल्दी संभव हो, हमें निकल जाना है… उनकी बातें सुन मैं और चिड़चिड़ा गया कि उच्च हिमालय में पहली बार आए साथियों के मन में डर बिठाना क्या सही है. कुछ देर में साथी आए और मुझे भोजन के लिए कहने लगे. मैंने मनाकर दिया लेकिन वह नहीं माने. मजबूरन मैं खाने के लिए टीआरसी की रसोई में गया तो सही लेकिन खाना मुश्किल से ही खा पाया. ऊंचाई में होने और मेरी बातों को नहीं सुने जाने की वजह से मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था, लेकिन टीम को सकुशल दर्रा पार करा उन्हें उनके घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी के चलते मैं चुप ही रहा.
बैरक में आज आर्मी के एक साहब भी रुके थे. वह अपनी टीम के साथ एलआरपी के अभियान पर थे. एलआरपी मतलब, ‘लांगरूटपेट्रोलिंग.’ आर्मी समेत आईटीबीपी के गश्तीदल सीमाओं की देखरेख के लिए हर हमेशा निकलते रहते हैं. इनका अभियान महीनों तक चलता है. इसी में एक और अभियान होता है, ‘एसआरपी.’ शॉटरूट पेट्रोलिंग. यह अभियान मात्र एक या दो दिन का होता है.
साथी लोग बैरक में लौट आए तो महेशदा और पूरन ने भजनों से समां बांध दिया. मुझे महसूस हुआ कि इस उंचाई में अपने प्राणों के डर को कम करने के लिए वो भक्ति का सहारा लेने में लगे हैं. कुछ देर बाद भजन बंद हुए तो मैं अपने स्लीपिंग बैग में यह कहते हुए घुस गया कि-सुबह मुझे डिस्टर्ब मत करना, हम सब साढ़े पांच के बाद मूव करेंगे.’
सुबह चार बजे से अफरा—तफरी मची हुई थी. पूरन ने डरते हुए मुझे उठाने की कोशिश की लेकिन मैं नहीं उठा. पांच बजे मैं उठा तो देखा कि सभी तैयार बैठे हैं. मैं फ्रैश हो साढ़े पांच बजे चलने के लिए तैयार हो गया. रकसेक कांधों में डाल हम सभी ज्योलिंगकांग से आगे सिलना दर्रे की ओर बढ़ चले.
पंकज, पूरन और महेशदा तेजी से चल रहे थे. उनके पीछे कुछ दूरी पर संजय था और सबसे पीछे बेढब रकसेक को लादे मैं चल रहा था. मौसम खुशनुमा था तो मुझे अब चिंता नहीं थी कि हम दर्रे के पार बेदांग में कब पहुंचे. धीरे—धीरे उंचाई शुरू होने लगी और इधर सूरज ने भी छोटे कैलाश में अपनी किरणें बिखेरनी शुरू कर दी. यह दृश्य देखकर संजय और मैं ठिठक से गए. संजय अफ़सोस कर रहा था कि उसके रकसेक की वजह से मुझे परेशानी झेलनी पड़ रही है. मैंने उसे समझाया कि हिमालयी पथारोहण में एक—दूसरे की मदद करना यात्रा का एक आम अनुभव है. कुछ आगे बढ़े तो ग्लेशियर का वह मुहाना दिखाई देने लगा, जहां से कुट्टी यांगती नदी ग्लेशियर के आंचल को झटककर अपनी देहरी लांघती हुयी बाहर निकलती है.
आगे ग्लेशियर में एक गहरे हरे रंग की झील दिख रही थी, जिसे यहां गौरीकुंड का नाम दिया गया है. हमारे दाहिनी ओर कई जगहों पर लाल रंग से रास्ते के निशान बनाए गए थे. चलते—रुकते हुए संजय और मैं धीरे—धीरे आगे को बढ़ रहे थे. बाकी तीनों साथी हमसे मीलभर आगे निकल चुके थे. पंकज के साथ महेशदा और पूरन भी आज बाज की तरह उड़ान भरते नज़र आ रहे थे. चलते हुए हमें लगभग पांच घंटे हो चुके थे. अब सिनला दर्रा सामने दिखाई देने लगा था. तीनों साथी वहां पहुंचकर हमारा इंतजार कर रहे थे. दर्रा अब तकरीबन दोसौ मीटर रह गया था. चट्टानों के टूटने से पत्थर, रेत और कंकड़, मोरेन में बदल चुके थे, जिसमें चलना रेत के उंचे टीले में चलने जैसा था. पांव बार—बार पीछे फिसल जाते थे. सांसों को थामते हुए एक जगह रुका तो देखा कि पंकज तेजी से नीचे आ रहा है. पास आकर उसने मुझसे रकसेक देने को कहा लेकिन मैंने मना कर दिया. उसने जिद की तो मैं फिसलनदार मोरेन में ऊपर की ओर को यह कहते हुए दौड़ पड़ा कि, ‘अभी मैं बूढ़ा नहीं हुआ हूं.’ इस बार मैंने दर्रे के शिखर पर जाकर ही दम लिया. वह संजय का रकसेट लेकर ऊपर पहुंचा. हम करीब 5496 मीटर की उंचाई पर थे. इस दर्रे को पार करने को लेकर मैं अब आश्वस्त हो गया था. समय भी काफी था. चारों ओर हिमालय की उंची चोटियां जैसे हमें देखकर मुस्करा रही थीं. मित्र और बड़े भाई करन सिंह नगन्यालजी की यहां के बारे में कही बातें याद हो आई.
इस उंचाई में सभी खुश थे और मैं गुस्से से भरा था. मैंने लाइटर निकाला और सिगरेट जलाने की कोशिश की. इतनी उंचाई पर लाइटर ने भी काम करने से इनकार कर दिया. अपने पिटारे से माचिस निकाल मैंने एक के बाद एक दो सिगरेटें फूंक दी. साथी लोग मुझे फोटो खिंचवाने के लिए कहते रह गए, मैं उठा नहीं. दरअसल इस दर्रे के आगे अब चिन्हित रास्ता नहीं था. पुराने सिनला यात्रिओं के अनुभवों से मैंने जानकारी जुटा रखी थी. इसलिए मैं खामोशी से इंतज़ार कर रहा था कि देखें अब ये क्या करते हैं. पंकज काफी देर तक रास्ता ढूंढता रहा. रास्ता होता तो मिलता न. बाद में जब पूरन और महेशदा ने नाराजगी जताई तो मैंने उन्हें अपने पीछे मेरी ही तरह चलते हुए आने का ईशारा किया तो वे खुश हो गए. गहरे और तीखे पहाढ़ी ढ़लान में अंग्रेजी का जैड बनाते हुए मैं नीचे को बढ़ता चला गया और सभी मेरे पीछे आते रहे. मील भर बाद हम मोरेन के अथाह सागर के बीच थे. चलने में परेशानी हो रही थी तो मैंने सभी को, पांव को नीचे को धकेलने के बाद दूसरे पांव से भी वैसे ही करने को कहा. तरीका आसान था तो हमने घंटेभर में मोरेन को पार कर लिया.
अब बुग्यालशुरू हो गया था तो हम कुछ देर आराम के लिए बैठ गए. सामने लंबा ग्लेशियर इस तरह पसरा हुआ था जैसे कोई बड़ा जिन्न अपनी चारपाई में आराम फरमा रहा हो. परांठे निकले और आपस में बंटने लगे. मैंने मना कर दिया. खाने का मेरा मन भी नहीं था और अभी गुस्सा भी काफूर नहीं हुआ था. करीब आधे घंटे बाद आगे बेदांग की ओर बहते नाले का किनारा पकड़कर हम आगे चल पड़े. मेरे व्यवहार की वजह से पंकज ने चुप्पी ओढ़ ली थी.
लगभग तीनेक किलोमीटर चलने के बाद एक-दूसरे का हाथ पकड़कर हमने नाला पार कियाऔर 3982 मीटर की उंचाई पर बने आईटीबीपी कैंप में अपनी दस्तक दी. ज्योलिंगकांग वाली पोस्ट ने यहां सूचना नहीं भेजी थी तो वे सभी हमारे अचानक आने से हैरत में थे.
‘क्यों आए… कैसे आए…परमिट दिखाओ…’ के सवाल उठने लाजमी थे. इस पर हमने उन्हें अपने परमिट दिखाए. रजिस्टर में दर्ज करते हुए जब उन्हें भान हुआ कि हममें से दो पत्रकार हैं तो उनका व्यवहार बदल गया. एक जवान दौड़कर साहेब को हमारी सूचना दे आया तो साहब भी तुरंत आ गए. परिचय के आदान—प्रदान के बाद पता चला कि वह इस पोस्ट में तैनात इंस्पेक्टर कमलजीत सिंह हैं. वह हमें अपनी बैरक में ले गए. बैरक के बीच में बुखारी जल रही थी तो वहां अच्छा—खासी गर्मी थी. थोड़ी देर में कॉफी—बिस्किट आ गए. कुछ देर बातचीत के बाद हमने उनसे टैंट लगाने की इज़ाज़त चाही तो उन्होंने तत्काल एक बैरकनुमा बड़े हॉल में हमारे रहने की व्यवस्था के लिए जवानों को बोला. हमने उन्हें बताया कि हमारे पास पर्याप्त सामान है लेकिन वह माने नहीं. बैरक में अंदर गए तो देखा कि यह नई-नई बन रही थी.बैरक क्या थे पूरा हॉल था. वहां एक ओर बैरक बनाने वालों का भी आशियाना दिखा. दो जवान एक बड़ा सा स्टोव हमें दे गए. वहां चारपाईयों में हमने अपना सामान रख दिया. बाहर हल्की बारिश होने लगी थी तो स्टोव में मैगी बनानी शुरू कर दी. अब अंधेरा घिरने लगा था. बाहर से कुछ आवाजें सुनाई दीं तो बाहर झांका. आईटीबीपी वालों की शाम की रौलकॉल चल रही थी, जिसमें उन्हें रात्रि ड्यूटी के साथ अन्य निर्देश दिए जा रहे थे. बारिश में भीगते हुए वे भी नारे लगाने के बाद सरपट अपनी बैरकों में भाग लिए.
पंकज चुपचाप था और उसकी चुप्पी का कारण मैं समझता था. मैगी बनने के बाद मैंने उसे मैगी दी तो उसने मना कर दिया. इस पर मैंने गूंजी से अब तक की सारी बातों पर अपना पक्ष रखते हुए कहा कि, ‘अब यह रकसेक मेरे बस का नहीं है. मुझे यह अभियान पूरा कराना था अब तो वापसी में नीचे ही जाना है, जिसने ले जाना हो ले जाए.. छोड़ना हो छोड़ जाए.. अब मैं अपना रकसेक ही ले जाउंगा.. बहुत हो गया! ‘बमुश्किल पंकज माना तो मैगी को मिल-बांटकर हम सब ने अपनी भूख शांत करने के बाद सो गए. दिनभर थके थे तो नींद भी जल्द आ गई.
सुबह अलसाये से उठे और चाय बनाकर पी. तैयारी के बाद पोस्ट कमांडर से मिलने गए तो उन्होंने मुस्कुराते हुए विदा किया. आज यहां बैरकों को साफ किया जा रहा था. पता चला कि कुछ दिनों में यहां सेकेण्ड कमांडेन्ट साहब का दौरा है तो उनके स्वागत की तैयारियां चल रही हैं. सामने पंचाचूली समूह के तीन पर्वतों का नज़ारा कुछ अलग ही दिखाई दे रहा था. वे पहरेदार की तरह सीना ताने प्रतीत हो रहे थे.
बेदांग से दस किमी आगे ‘गो’ गांव तक का रास्ता ढलान लिए हुए मिला. मैंने अपना रकसेक पीठ पर लादा तो महेशदा ने अपना रकसेक संजय को देकर संजय वाला रकसेक ले लिया. आधा किलोमीटर चलने के बाद उन्होंने वो रकसेक किनारे रखकर अपने हाथ खड़े कर लिए. ‘बापरे अजीब रकसेक है यह. नीचे घुटनों के पीछे मार रहा है और ऊपर सिर में अलग झटके दे रहा है. दिमाग में घंटे जैसे बज रहे हैं. मेरे बस का तो नहीं है यह.’
कुछ दूर तक पंकज ने भी कोशिश की. बाद में मैंने पूरन को कहा कि सबने ट्राई कर लिया है अब बस तुम ही बचे हो. पूरन तुरंत तैयार हो गया. कुछदेर बाद उसने भी उस भीमकाय रकसेक को पटक दिया तो हम सब हंस पड़े. लेकिन उसने हार नहीं मानी. उसने मुझसे छोटी रस्सी मांगी और रकसेक को उल्टाकर आधे रकसेक के पेट में रस्सी से गांठ लगा आधा कर लिया. अब रकसेक छोटा और सही हो गया था. उसने हंसते हुए उसे कांधों में डाल लिया. आगे एक छलछलाता गधेरा मिला तो सामान किनारे रख उसके झरने में स्नान कर हमने अपनी थकान मिटाई.
आज सब खुश थे. मेरी चिड़चिड़ाहट भी अब गायब हो गई थी. आगे रास्ते में भोजपत्र का जंगल मिला. धौलीगंगा नदी के उस पार तेदांग, धाकर, सिपू गांव दिखाई दे रहे थे. नीचे उतरकर नदी में बने झूलापुल को पार किया. यहां से दातुगांव के लिए तीन किलोमीटर की मीठी चढ़ाई थी.
पुल पार एक दुकान में चाय पीने वक्त तक कुछ सुस्ता लिए. धीरे—धीरे चढ़ाई में चढ़ना शुरू किया. जगह-जगह रास्ते के किनारे में पड़ने वाली चट्टानों में स्लोगन लिखे हुए थे- ‘निराश न हो आगे सुंदर नजारा मिलेगा. ‘घंटेभर बाद एक मोड़ पर थकान मिटाने के लिए रुका ही था कि पंकज दौड़ते हुए आया, ‘जल्दीआओ…जल्दीआओ…’ उसके उकसावे पर जल्दी से मोड़ पार किया तो सामने के नज़ारे से मैं भौच्चका रह गया.
सामने पंचाचूली बांहें फैलाए दिखी. उसका ग्लेशियर किसी खौलते हुए लावे की तरह डरावना प्रतीत हो रहा था. कुछ पलों तक उसे निहारने के बाद तन्द्रा टूटी तो दांई ओर जसुली दताल की एक खूबसूरत मूर्ति दिखाई दी, जिसके हाथों से अशर्फियां बरस रही थीं.
दातूं गांव की जसुली दताल बहुत दानी थी. लोग उसे जसुली शौक्याणी या जसुली बुढ़ी के नाम से भी बुलाते थे. उस जमाने में बुढ़ा और बुढ़ी एक पदवी होती थी. गांव के सयाने व समझदार लोगों को इस पदवी से नवाजा जाता था और सभी उनका सम्मान किया करते थे. कहा जाता है कि, दारमा घाटी के दातूं गांव की निसंतान जसुली काफी अमीर थी. एकलौते बेटे की बचपनमें ही मृत्यु हो जाने से वह जीवन के अंतिम दिनों में इस कदर निराश हो गई कि उसने अपना सारा पैंसा, जेवर-जवाहरात, धौलीगंगा में बहा देने का फैसला किया. उस जमाने में दारमा की यात्रा पर निकले अंग्रेज कमीश्नर रैमजे ने घोड़े—खच्चरों में लदाये सामान देखा तो वो चौंके. घोड़े—खच्चरों के साथ चल रहे ग्रामीणों ने उन्हें पूरी कहानी बताई तो वह तत्काल जसुली शौक्याणी के पास पहुंचे और उसे समझाया कि नदी में सारा धन बहा देने के बजाय उसे किसी अच्छे काम में लगाए. कहते हैं कि जसुली ने अपना सारा धन कमिश्नर रैमजे को सौंप दिया.
पहाड़ में तब सड़कें नहीं थीं और तीर्थ व व्यापार के लिए यात्राएं पैदल ही की जाती थीं. रैमजे ने जसुली शौक्याणी के धन से कुमाऊं व नेपाल के कुछ हिस्सों में प्रमुख मार्गों पर यात्रियों के रात्रि विश्राम के लिए दो सौ ज्यादा धर्मशालाएं बनवाई. ये धर्मशालाएं हल्द्वानी से कैलास मानसरोवर मार्ग के व्यासघाटी में गुंजी तथा नेपाल के महेन्द्रनगर व बैतड़ी जिलों में बनाई गई थी. कैलास जाने वाले यात्री, भेड़पालक व व्यापार के लिए मैदानी क्षेत्रों में पैदल आने-जाने वाले व्यापारी इन्हीं धर्मशालाओं में रात को ठहरते थे. इन धर्मशालाओं की जगहों का चुनाव मुसाफिरों की सहूलियत को ध्यान में रखकर किया गया. मसलन इन्हें जलस्रोतों के पास बनाया गया और एक धर्मशाला से दूसरी का फासला नौ मील रखा गया. चार से लेकर बारह कमरे वाली इन धर्मशालाओं में मेहराबदार नुमा दरवाजे बनाए गए. यात्रियों और उनके खच्चर-घोड़ों के रात बिताने को अलग-अलग कमरे हुआ करते थे. आज भी कुमाऊं में अनेक जगहों पर जसुली शौक्याणी के धर्मशालाओं के खंडहर मिल जाते हैं.
हम करीब आधे घंटे तक वहीं बैठकर कभी पंचाचूली तो कभी जसूली बुढ़ी की मूर्ति को निहारते रहे. आगे दातूं गांव की गली में इकलौती दुकान खुली मिली. दुकान स्वामी से भोजन के बारे में पूछताछ की तो उन्होंने हामी भर दी. रकसेक किनारे रख हम वहीं आगे मैदान में चहल—कदमी करने के बाद मैदान में ही पसर गए. आधे घंटे तक दुकान में कोई हलचल होते न देख दुकान स्वामी से भोजन के बारे में पूछा तो वह बड़े प्रेम से बोले, ‘आजकल सीजन कम है तो दुकान में खाना बनाना बंद कर दिया है. आपका खाना घर में बन रहा है… बस थोड़ी देर में तैयार हो जाएगा.’ उनकी आत्मीयता देख महेशदा उनसे गपियाने में लगे और उन्हें नैनीताल समाचार के कुछ अंक भी दे दिए. समाचार पत्र देख उन्होंने तुरंत ही उसकी सदस्यता भी ले ली. उनके घर से आवाज आई तो वो हमें घर में ले चले. दो मंजिले एक चाख में कालीन बिछे हुए थे. हम आराम से पालथी मार उसमें बैठ गए. थोड़ी देर में उनकी पत्नी चावल, दाल और हरे टपकिये के साथ चटनी परोस गई. खाना किसी फाइव स्टार रेस्टोरेंट से भी कई गुना आगे का था.
हम पांच लोगों से खाने के उन्होंने मात्र डेढ़ सौ ही लिए. ऊपर से पचास रुपये नैनीताल समाचार की सदस्यता में चढ़ा दिए. हमें कुछ अजीब सा लगा तो उनकी दुकान से बेज़रूरत कुछ सामान भी खरीद लिया. उनसे विदा लेकर हम दुग्तूगांव की ओर जाने वाली पगडंडी में आगे बढ़ गए. आज सब फिट थे तो वक्त देख आगे नागलिंग गांव का लक्ष्य कर लिया. रास्ते में आईटीबीपी का एक दल बेदांग की रेकी को जाते हुए मिला. दोपहर की गर्मी में पंचाचूली ग्लेशियर से निकलने वाली धौलीगंगा भी पूरे उफान के साथ कीचड़ समेटे हुए ढलान में दौड़ती चली जा रही थी. घंटेभर चलने के बाद दुग्तूगांव की सीमा शुरू हो गई. कुछ लोग खेतों में काम करते दिखाई दिए. आगे एक बाखली में तीन-चार दुकानों की बाजार में बुजुर्गों की गप्पें चल रही थीं. उन्हें देख कुछ देर रुकने का मन हो गया. एक दुकान में चाय पीते हुए गांव के बुजुर्ग मानसिंह दुग्ताल से बौखलाई नदी के बारे में बातें होने लगीं. उन्होंने बताया कि, ‘दशकों पहले पंचाचूली का ग्लेशियर टूटा तो ग्लेशियर से कुछ आगे बसा लगभग सौ मवासों का गांव उसमें दफन हो गया. आज तक भी कोई नहीं मिला.. कभी—कभार नदी में बर्तनों के बहने की आवाजें सुनाई देती थी.. अब वह भी बंद हो गई हैं.’
‘आगे नागलिंग गांव कितने घंटे में पहुंच जाएंगे?’ पूछने पर उन्होंने बताया कि दो-एकघंटे का ही रास्ता है बस. बालिंग गांव के हरे भरे खेतों से होते हुए नागलिंग गांव में पहुंचने में हमें तीन घंटे लग गए. चौड़ा सा मैदान पारकर बाईं ओर एक दुकान में गए. परिचय देने के बाद वहीं रहने की भी बात हो गई. दुकान स्वामी हमारे मित्र करन सिंह नगन्याल के चचेरे भाई निकले तो आत्मीयता बढ़ गई. चचेरे भाई से नगन्यालजी का घर देखने की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने हमारे साथ एक बालक को भेज दिया. सांझ हो गई थी और नीम अंधेरे में भी चढ़ाईवाली गलियों से गुजरते हुए महसूस हो रहा था कि गांव काफी संपन्न है. नगन्यालजी का घर गांव के अंतिम छोर में था. मकान की मरम्मत चल रही थी. बगल में रह रहे उनके रिश्ते—नातेदारों को दुआ—सलाम कर हम वापस अपने ठिकाने में आगए.
खाने में आज एक—एक रोटी के साथ भरपूर दाल—चावल मिला. थकान के साथ-साथ भूख भी जोरदार थी तो छककर आनंद लिया. सुबह धारचूला की ओर निकलने का मन बनाकर होटल के लकड़ी के दोमंजिले चाख में अपने मैटर्स—सिलिपिंग बैग बिछाकर हम मीठे सपनों में खो गए.
बाद में जब इस यात्रा के बारे में नगन्यालजी से बातें हुवी तो उनके पास उनके बचपन के ढेरों किस्सों की खान मिली. बकौल उन्हीके..
‘गाँव की पवित्र शिला, जिसको प्राचीन समय से ही नाम दिया गया है ‘कुन्ती—ला’ बचपन में मैंने गांव के बुजुर्गों से इसी शिला मे बैठकर जिज्ञासा जाहिर किया था कि इसका नाम कुन्ती—ला क्यों पड़ा. तब नब्बे साल के एक बुजुर्ग ने बताया कि गांव मे दो बहने रहती थी कुन्ती घनारी, उन्हीं के नाम के कारण कुन्ति—ला (शिला) पड़ा। ये बात लगभग 45 बर्ष पहले की है. आज जब हम पढ़ लिख गये और पुराण, महाभारत के बारे मे जो थोड़ा—बहुत जानकारी है तो लगता है कि जब पांडव यायावर की जिन्दगी व्यतीत कर रहे तो कहीं उनके तमाम पड़ावों मे से एक नागलिंग भी तो नही था… उस बुजुर्ग ने भी अपने बुजुर्गों से यही कहानी सुनी थी…
दारमा व जोहार घाटियों वालों के लिए तिब्बती व्यापारिक मंडी सिल्ति तथा ग्यानिमा थी और व्यास वालों की तकलाकोट मंडी हुवा करती थी. वेदांग दारमा मे भी एक मंडी थी जहां तिब्बत के व्यापारी आते थे. 1962 के युद्ध के बाद तो व्यापार तो बंद हुवा ही इसके साथ ही आवागमन भी प्रतिबंधित हो गया. युद्व के बाद तो चीन की सीमा में भारत वासियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा. पहले कैलाश मानसरोवर जाना आम बात होती थी.. मेरी माँ पांच बार गई थी और पिताजी प्रत्येक वर्ष व्यापार में जाते ही थे. तब बाल्यकाल मे मां द्वारा तिब्बत, कैलाश, मानसरोवर के बारे मे बताया करते थी और पिताजी तिब्बत व्यापार में कठिनाई तथा कजाखी लुटेरे ‘ग्यमी’ के आतंक के बारे में बताते थे.. घर आने के बाद मॉ—पिताजी की यात्राओं के वो डरावने किस्से आज भी चलचित्र के मानिन्द आंखों के सामने दिखने लगते हैं. मैं बच्चा ही था तो तिब्बत नहीं ले जाया गया. घर आने पर उनकी रहस्यमयी बातों से मैं कभी परिलोक में तो कभी दानवों के बीच भयानक डरावने वातावरण में पहुंच जाता था.उनके किस्से मैं इतनी एकाग्रता से सुनता था कि, आज के वक्त में जो लोग तिब्बत हो आये हैं उनके साथ भी अच्छी चर्चा कर लेता हूँ.
एक बात और.. बहुत समय पहले तब मानसरोवर यात्री दारमा से होकर भी जाते थे, तब उस वक्त कैलाश तीर्थयात्रियों का एक दल जो साधुओं का था, नांगलिग तिज्या फू मे रूका. तब दारमा वासी कूमांग कूंचा जाने की पृथा नही थी बारहो मास दारमा ही रहते थे. उन तीर्थयात्रियों मे से एक साधु गम्भीर रूप से बीमार हो गया था. बीमार साधु ने सहयात्रियों से कहा कि मैं तो चल पाने में अक्षम हूँ, आप लोग तीर्थ यात्रा कर आओ वापसी तक मैं बचा रहा तो मैं आप लोगों के साथ ही बापस जाऊंगा, अन्यथा…
छह माह बाद जब साधुओं की टोली बापस जब नांगलिग आया तो देखा उनका साथी साधू पहले से ज्यादा स्वस्थ्य दिखाई दिया. आपस मे कुशलता पूछने के बाद नागलिंग मे ही छूट चुके सांथी साधू ने उनसे कैलाश यात्रा के बारे मे पूछा. इस पर कैलाश गये यात्रियों ने बताया कि उस रास्ते में जाने के बाद जब कैलाश के दर्शन होते हैं तो हर कोई उसे देखता रह जाता है.. बहुत ऊंची बर्फीले चोटी है, उससे पहले समुद्र की तरह बहुत बड़ी झील है. उसमें स्नान करने के बाद कैलाश की परिक्रमा किया और कई कहानियों को बताते वक्त वो ये बताना नहीं भूलते थे कि वो तिज्या फू मे भी रूके थे..
उन्होंने साधू से पूछा कि वो स्वस्थ कैसे हुए और उसके बाद क्या किया. साधू ने बताया कि ये भूमि ऐसी है जहाँ सात बार सूर्योदय होता है तथा सात बार ही सूर्यास्त भी होता हैं.. ‘सात बार घाम झिलकनछै सात बार घाम बूड़नछै.’ यहां के लोग भोजन में च्यगड़ी म्यिगड़ी का सेवन करते हैं. वैसे जो मैंने सुना उस किस्सों को ही बताता हूं. हुआ यह कि स्वास्थ्य लाभ के बाद साधू कभी—कभी गांव मे भी आने जाने लगा था. एक बार गाँव में ज्यमा बनाते देखकर पूछा कि यह क्या बना रहे हो उस गांव वासी ने ज्यमा का कुमाऊंनी शब्द नही आने के कारण यूं ही घुमावदार तिब्बत मे बहने वाली सिल्ति यांग्ति का डिजाइन च्यंगड़ी म्यिगड़ी कह दिया था..
इस वर्णन को सुनकर मानसरोवर से वापस आये यात्री दंग रह गए. वो बोले, हमने इतनी कठिन यात्रा की लेकिन उसके बाद भी इतना दुर्लभ दृश्य देखने से वंचित रह गए…
बाद में गांव वालो ने ‘तिज्या’ मे रुके साधुओं की खूब आवभगत भी की.
सौंग प्यि जन का नजारा दिसम्बर और जनवरी मे ही दिखाई देता है.
हे ह्या मूदार बिरमी जो रौकश्यन…
दल्ला (धारचूला का स्थानीय उच्चारण) 1968 में, मैं कक्षा एक मे पढ़ने गया तब मैंने देखा कि वहां सारे मकान एक मंजिला होते थे वो भी पाथर वाले. नेपाल जाने के लिए लकड़ी का डरावना पुल था… तब दल्ला खुला—खुला सा महसूस होता था.. अब तो दल्ला ऊंची—ऊंची ईमारतों के कारण दमघोटू हो गया है. क्या कहें अब के वक्त में तो वो रूहानियां कहानियां बस किस्से ही रह गए हैं…
पंकज अब अपनी रौ में आ गया था. सुबह, ‘जल्दीउठो’ के नारे के बाद उसने कमान अपने हाथ में ले ली. मैं मुस्कुरा दिया. चाय पीने के बाद हमने नागन्यालजी से विदा ली और नागलिंग गांवे के किनारे से ढलान का रास्ता पकड़ लिया. खेतों को पार कर आगे पहुंचे तो ऊपर से झरते हुए एक खूबसूरत झरने के दीदार हुए. मैं और महेशदा कुछ पल रुके तो पकंज ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए चेताया कि आज बीस किलोमीटर चलना है. नागलिंगसेसैला, उर्थिंग, बोवलिंग होते हुए दर तक लगभग 18 किमी पैदल चलना था. तब दर तक सड़क पहुंची थी. अब तो दातूं गांव तक कच्ची सड़क बन गई है. करीब नौ बजे सैला पहुंचे तो एक मकान के आंगन में बैठकर दिन का भोजन करना तय हो गया. आसपास नजर घुमाई तो अहसास हुवा कि सैला गांव काफी ऊंची व तीखी चट्टानों की जड़ पर है और जिस आंगन में हम बैठे थे, वहां दो मंजिले मकान में पोस्टआफिस व दुकान के साथ-साथ रहने की भी व्यवस्था थी. बैठे-बैठे सैलागांव के सुंदर सिंह सैलाल से गपशप चलने लगी. उन्होंने बताया कि सैला के पार ‘चलगांव’ में चलालों के करीबन पच्चीस मवासे रहते हैं. गांव अब भी पूरी तरह आबाद है. नीचे धौलीगंगा गर्जना करते हुए अपनी आमद दर्ज करा रही थी. पार चलगांव आने—जाने के लिए नदी पर टूटे-फूटे तख्तों व लकड़ी के टुकड़ों को मिलाकर बना कच्चा झूलापुल सिहरन पैदा कर रहा था. पता चला कि 1996 में आई धौलीगंगा की बाढ़ पक्के झूलापुल के साथ-साथ ढाकबंगले व कई खेतों को भी बहा ले गई.
भोजन तैयार हुआ तो हम बाहर ही थाली लेकर बैठ गए. ट्रैकिंग में भोजन इतना स्वादिष्ट लगता है कि वर्णन करने में गूंगे से गुड़ से स्वाद बताने वाली जैसी बात हो जाती है. भोजन के बाद निकलने के लिए रकसैक पीठ पर लाद आगे बढ़े ही थे कि आईटीबीपी चैकपोस्ट पर एकाएक मित्र कंचन परिहार पर नजर पड़ी. कंचन बागेश्वर से ही था और आईटीबीपी में इस जगह पोस्टिंग पर था. हम सब गले मिले. रकसैक फिर से नीचे उतारकर उसकी बैरक में घुस गए. इस दुर्गम इलाके में दोस्तों से औचक मुलाकात हो जाने से वह अभी तक सहज नहीं हो पा रहा था. उसकी तो खैर ड्यूटी थी, जहां का आदेश मिला बोझा—राइफल कांधे में टांग निकलना पड़ता है. हम पहले ही भूख से ज्यादा खाना खा चुके थे तो यहां कुछ लेने का सवाल ही नहीं था. लेकिन दोस्त मानने को तैंयार नही था और उसने अपने किट से ड्राईफ्रूटस, जैम, चाकलेट, जूस आदि जबरदस्ती हमारे रकसैक में डाल दिए. आज धारचूला तक जाना है पर उसने रुकने के लिए ज्यादा जिद नहीं की. इसके बाद भी उसका मन नहीं माना तो मेरा रकसैक अपने कंधे में डाल, ‘थोड़ा आगे तक आता हूं, ‘कहते हुए हमारे साथ करीब तीन किलोमीटर दूर उर्थिंग तक आ गया. उर्थिंग में एक बड़ा सा मैदान और तीखी चट्टानें दिखाई दीं. कंचन ने बताया कि यहां टूर वाले कैंप लगाते हैं और इन चट्टानों में रॉकक्लाइंबिंग कराते हैं.
ऊपर रास्ते से कुछ खच्चरों को आते देख हमने कंचन से कहा कि, ‘क्या ये सामान ले जाने को तैयार हो जाएगा, हम भी टाइम पर पहुंच जाते.’ कंचन को खच्चर वाला जानता था तो आसानी से सौदा तय हो गया. रकसैक ढोते—ढोते अब तक हम खुद ही खच्चर जैसे बन गए थे. ऐसे में वे खच्चर हमें उस वक्त अलादीन के जिन्न की तरह लगे. खच्चरों पर सामान लदवाकर और कंचन भाई से विदा लेकर हम अब हवा हो गए.
उतार—चढ़ाव भरे रास्तों को पारकर बोवलिंग गांव की बाखलियों से गुजरते वक्त देखा कि इस गांव में बिजली के पोल तो दिख रहे थे लेकिन बिजली का दूर-दूर तक पता नही था. एक बुजुर्ग मिले तो उनसे इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यहां तीस परिवार रहते हैं. अब गांव में पोल खड़े हो गए हैं तो हमारे चले जाने तक बिजली भी सायद आ ही जाएगी.
गांव से आगे का रास्ता भूस्खलन से टूटा हुआ था. किलोमीटर भर की तिरछी ढलान लिए इस रास्ते की सेहत ठीक नहीं थी. रह-रह के मिट्टी—पत्थर गिर रही थी. ऊपर की ओर नज़र गड़ाए लगभग भागते हुए हमने इसे पार किया. हमारे निकल आने के बाद पंचाचूली बेस कैंप के ट्रैक पर जा ट्रैकरों का एक दल इस भूस्खलन की चपेट आ गया और उनके एक सदस्य की मौत हो गई थी.
आगे सड़क के अवशेष दिखाई देने लगे थे जो दर नामक जगह तक थे. दर में पहुंचते ही आरईएस के अधिकारी जीवन सिंह धर्मशक्तू से मुलाकात हुई. वह यहां बेदांग के दौरे पर निकले थे. हमारे सिनला से आने की बात जान वह बहुत खुश हुए. उन्होंने सिनला दर्रे में बने लाल निशान के बावत जानना चाहा तो हमने बताया कि वे अभी बने हैं, उनसे हमें बहुत मदद मिली. उन्होंने पुराने लोगों का जिक्र कर बताया कि, ‘हिमालय की कठिन चढ़ाई और दर्रे पार करने के लिए बुजुर्ग लोग अपने साथ सूखीलाल मिर्च रखते थे और रास्ते में जहां आक्सीजन की कमी होती थी वे सूखी मिर्च चबाना शुरू कर देते थे. मिर्च लगने के बाद हू—हा होने पर सांस की प्रक्रिया तेज हो जाती थी और फेफड़ों को ज्यादा आक्सीजन मिलने से आदमी भला—चंगा हो जाता और कूदते—फांदते दर्रे को पार कर लेता था. ‘धर्मशक्तूजी ने यह किस्सा इतने मजेदार ढंग से सुनाया कि हम काफी देर तक हंसते रहे.
हमारे अलादीनी जिन्न खच्चर भी सामान समेत पहुंच चुके थे. उन्हें यहां से सामान लेकर वापस लौटना था. नीचे सड़क में पहुंचे तो पता चला कि आज विश्वकर्मा दिवस की वजह से सभी चालक अपने वाहनों की पूजा में मग्न हैं. रकसैक कांधों में डाल सड़क पर पैदल मार्च शुरू कर दिया. घंटेभर बाद एक जगह जीप दिखी मगर उसके मालिक ने भी विश्वकर्मा पूजा का हवाला देकर आने से मना कर दिया. हम आगे बढ़ने लगे तो उसने चारसौ रूपयों में बात तय की. सामान समेत खुद को उस जीप में लादकर आगे बढ़े तो बीसेक मिनट बाद ड्राइवर ने जीप किनारे लगाकर धोषणा की, ‘लोजी आगे रोड बंद है.’ बाहर आ देखा तो आगे सड़क गायब थी. तीन किलोमीटर के चारसौ रुपये जीप वाले ने हमारी मजबूरी का फायदा उठाकर ले लिए और उस पर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. चढ़ने—उतरने का यह सिलसिला आगे तवाघाट तक चलता रहा. जगह-जगह सड़कें गायब थी. उनके बीच फंसी जीपों का मनमाना किराया और पैसे कमाने के चक्कर में उनकी रफ्तार हमें डराती रही, लेकिन उन्हें इससे कोई मतलब नहीं था. किसी तरह शामको धारचूला पहुंचे तो सांस वापस लौटआई. होटलों के खस्ता हाल देखकर टीआरसी को ही भागे. आज यहां पानी की समस्या नहीं थी. विदेश जाने का अब मन नहीं था तो होटल में खाना खाकर मीठी नींद के आगोश में हो लिए. सुबह बागेश्वर की बस में बैठे तो अब इतने दिनों की यात्रा के बाद बिछड़ने की पूर्व बेला में गुजरे वक्त को यादकर हम बे—सिर—पैर के किस्सों में टाइम पास करने लगे. शाम को बागेश्वर पहुंचने पर सभी अपने-अपने घोंसलों को उड़ गए. महेशदा ने भी दूसरे दिन नैनीताल का रास्ता पकड़ा.
व्यांस—दारमा घाटी की यह रोमांचभरी यात्रा भूले नहीं भूलती. मन बार—बार गुंजी, कालापानी, कुट्टी में ही उड़ता रहता है. इस यात्रा में मुझे हिमालय को नए तरीके से समझने के साथ धैर्य बनाए रखने की अद्भुत सीख मिली जिसे मैं अब अपने हिमालयी अभियानों में बखूबी इस्तेमाल करते आ रहा हूं. हम होंगे सिनला पार एक दिन…!
One Comment
PS Bhandari
यह यात्रा वृतांत पहले भी पढ़ी थी और आज सुबह साइक्लिंग कर वापस लौटने पर फिर दुबारा इस बडे और लंबे और रोचक यात्रा संस्मरण को पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर सका और सुबह के एक्सरसाइज के गीले कपड़ों में ही इसे पुनः पढ़ने बैठ गया। इसे पढ़ते पढ़ते मुझे ऐसा लग रहा था जैसे में अपनी 2015 के कैलाश मानसरोवर यात्रा पर पुनः निकल पड़ा हूं। बहुत ही रोचक और विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। अभी पिछले महीने ही आदि कैलाश की रोड द्वारा यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पर यात्रा करने के पश्चात ऐसा महसूस हुआ जैसे कुछ मिसिंग था। वास्तव में ट्रैक द्वारा आदि कैलाश और ॐ पर्वत और कैलाश मानसरोवर की दुर्गम या असाध्य पैदल यात्रा के अपने ही खट्टे मीठे अनुभव होते हैं, और अब वहां तक रोड बन जाने के उपरांत यहां जा कर ऐसा लगता है जैसे यह यात्रा अब touch and go या लक्जरी trip हो गई है , जिसको हर कोई सहूलियत के हिसाब से जब मर्जी कर सकता। यहां तक रोड बनने से जहां एक ओर आस पास के गावों के युवकों को, लोगों को रोजी रोटी और अन्य सुविधा प्राप्त हुई है परंतु दूसरी ओर रोड निर्माण से आदि कैलाश, ॐ पर्वत और कैलाश मानसरोवर यात्राओं की दुर्गम यात्राओं का आनंद एक दम ही खत्म हो जाएगा. ……खैर जब कुछ मिलता है तो कुछ खोना भी पड़ता है, पर ज्यादा मिला या कम यह तो समय निश्चित करेगा। बहुत सुंदर संस्मरण के फिर से बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद।