डॉ. प्रयाग जोशी
सन् 2008 में उत्तरकाशी के गंगोत्री बांक से पैदल चलकर अलकनंदा गल होते हुए बद्रीनाथ के रास्ते चमोली निकलने का इरादा लेकर नैनीताल के अनूप साह, प्रदीप पाण्डे और शेखर पाठक ने साहसिक और जोखिम भरी यात्रा में जाने का निर्णय किया था। अनुमानतः एक सौ कि.मी. लम्बी यात्रा है यह। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद वहाँ की दो सदानीरा इन पवित्र नदियों के जलागमों और उनके ग्लेशियरों को देखने के कौतुक, साहस, क्षमतादि कूबतों को हिमश्रृंगों की तरफ अजमाने के अभियानिक आयोजन जितने ही लोकप्रिय होते जा रहे हैं, उतनी ही उस विधा में रोजगारों की तलाश भी जारी है वहाँ के नौजवानों की। यह प्रशंसनीय है।
हिमानियों का भाषा-भूगोल रचने, हिम श्रृंगों की गणना करने, उनकी सही-सही ऊंचाई नापने, वहाँ की बपर्फानी दरियों, तालों, दलदलों और उनके गर्भ में जमा हुई हिमराशि की परतों का काल निर्धारण और नाम-निर्धारण करने के लिए पहुँचने वाली टीमों को खुद रास्ता भी इजाद करना पड़ता है। वहां सतत बरसने वाली बर्फ को साफ करते रहने, वहाँ ठहरने के लिए सुरक्षित स्थान ढूँढने और काम करने लायक परिस्थितियों के निर्माण की बहुत दुश्वारियां होती हैं। ऐसे कामों को अंजाम देने वाली एजेंसियों की उत्तराखण्ड में भारी जरूरत है।
बहरहाल जिस कालखण्ड में उक्त विवेचित यात्रा की गई वहाँ ‘माउण्टेन शेफर्ड’ नाम की एजेंसी सेवादारी कर रही थी जिसने 9 सितम्बर से 19 सितम्बर के बीच यात्रा कराने की जिम्मेदारी ली।
एजेंसी ने तीन ट्रैकरों के साथ छः सहायक सहयोगी लड़कों को यात्रियों के साथ भेजा। दसवां लड़का गाइड था। यह दल अकेला नहीं था। साथ में एक और सात सदस्यीय आस्ट्रियायी ट्रैकरों का भी था। उनके लिए बत्तीस सहयोगी भारवाही, गाइउ वगैरह नियुक्त किए थे एजेंसी ने। वे सब मिलाकर 39 की संख्या के हो गए थे। दोनों दलों की कुल मिलाकर उनन्चास संख्या की मूर्तियों ने उनन्चास हवाओं की तरह नंदनवन से कालिन्दी खाल व चतुरंगी हिमानी तक की यात्रा मजे से की। कालिन्दीखाल से आगे राजखरक से घासतोली के बीच उन्हें खराब मौसम की वजह से दृश्यहीनता झेलनी पड़ी। चौबीस घण्टे तक लगातार जारी रही हिमवर्षा में चलना पड़ा। वजन घटाने के लिए भारी सामान जहाँ तहाँ छोड़ना पड़ा। 19 सितम्बर की सुबह बची-खुची सूजी-पजीरी और निःशेष स्टाक में रहे मेवा मिष्ठानों का नाश्ता तो मिला। अगले दिन की दुपहरी तक उसी पर निर्भर रहने की मजबूरी आ गई। नौबत यहाँ तक आ गई कि किताब के लेखक को मात्रा एक छुहारे को मुँह से चुभलाते-चुभलाते अपने को उर्जस्वित करते रहना पड़ा रातभर भी। जहाँ निरंतर गिरती बर्फ में ‘ह’ की आवाज बुदबुदाने की बनिस्पद अपने किए हुए उच्छिष्ट-अमेध्य को दफनाने से भी कष्टकर था, अपनी कूबत की क्षमता को अजमाने लेखक ने यात्रा-गाईड हरीश से आईसऐक्स मांगा और कदम रखने की जगह बनाने के लिए बर्फ में ज्योंही चोट मारी, दस-बाहर चोटों में ही हांफ उठनी शुरू हुई। कपड़ों के भीतर पसीना छलक आया। लक्षणों का अनुमान कर टीम को ‘क्वथनांक’ की उष्मा से सीसी के फट जाने की जैसी अनहोनी की आशंका हुई। कारण उसके, परिपार्श्व और परिस्थितिज थे। ‘आरवाताल’ की जगह रातवासा किया जा सकता था। उन्होंने ऐेसा न करके जल्दी-जल्दी दो हाल्टों का एक हाल्ट बनाकर एक दिन बचाना चाहा। स्थान-स्थिति और दूरियों का सही ज्ञान नहीं था। रात जैसा ही दिन और दिन भी रात जैसा ही। भू-भौतिकी मालूम नहीं। 49 सदस्यों की टीम में कोई ऐसा न था जो कभी वहाँ गया हो। बर्फ के नींचे आरवा का दरिया है कि अलकनंदा का, यह भी संदेहास्पद था। सन्न थे सभी अपने-अपने में डूबे हुए। सभी के दुःखों का एक दुःख था गन्तव्य पर किसी तरह पहुँच जायें सही सलामत।
चलते-चलते एक नेपाली नदी में गिर पड़ा। उसने पलटा खाया और उठ खड़ा हो चलने में लग गया। एक आस्ट्रियायी व्यक्ति का ब्यौलिपिटार जैसा टिन का बक्सा नदी में गिर पड़ा और उलट-पलट कर बहता जाता रहा। उसे देखते हुए चलते जाने के सिवाय कोई क्या कर सकता था? एक हम सफर साथी की, जोड़े की एक छड़ी गिर गई। उसने लपक कर उठाने में क्षण भर की विलम्ब न किया तो हाथ आ गई। नहीं तो वह भी चली जाती। किसी एक का और बह गया सामान। किसी ने पत्थर के ऊपर, भीगे हुए कपड़ों का गट्ठर रख कर छोड़ दिया और आगे जाता बना। सभी समझ रहे थे हल्का सामान ढोने में ही खैरियत है। ये सब इवेंण्ट इकट्ठे एक जगह के नहीं, ठौर-ठौर घटित होते जा रहे थे रास्ते चलते। ट्रैकर लोग टूटी माला के मनकों की नाईं बिखरे-बिखरे थे। पर नेहरू पर्वतारोहण संस्थान की दी हुई रस्सी से जुड़े हुए फोटोओं में वे आकर्षक दिख रहे हैं। वे अब-जब क्लोजअप होते तो एक दूजे से फुसफुसाते हुए हुस्स-हुस्स पूछते थे घास तोली पहुँचने में कितने घण्टे और लगेंगे?
सुबह के 5 बजने को थे। राजखरक से चलने के बाद 24 घण्टे में वे घासतोली की में जहाँ पहुँचे थे। घासतोली का आई.टी.बी.पी. और सेना का बेस यहाँ से 5 कि.मी. दूर था। इन्होंने वहाँ एक विशालकाय पत्थर के क्रोड में कुछ घण्टे रूककर रात गुजारने का निश्चय किया। काफी राहत हुई। दूसरे लोग जो अज्ञात बयाबान के दूसरी तरफ से टौर्चो की रोशनी फैंक रहे थे, बोले ऊपर से लैण्ड स्लाइड हो रहा है, उधर मत जाओ। शेखर पाठक को मलाल है कि वे उस मातृछाया जैसे बोल्डर पत्थर की फोटू नहीं खींच पाए जिस के आसरे टीम ने कुछ घण्टे दम साधी थी।
वर्षा फिर शुरू हो गई थी। दूसरी, तीसरी तरपफ बिखरे-ठहरे साथी ट्रैकर अपनी-अपनी दिशा की खोज में थे। वहाँ से नेपाली साथी लौट रहे थे। लेखक के मन में झुरझुरी उत्सुकता थी पूछने की कि उन्होंने क्या देखा लैण्डस्लाइड में ? गोरखों ने बताया कि वे तीन मृतकों को देख आए हैं। सुबह होते-होते उन्होंने अपने प्रिय सेवादार खीमराज की मृत देह देखी। जब पूछा कि अभी उनके कितने लोग लापता हैं तो उन्होंने बताया आठ। अगले दिन छः मृतकों के शव मलवे से निकाले जाने की खबर मिली।
दस दिनों चली उक्त यात्रा के दौरान लिखे गए रूक्कों की पुस्तकीय वस्तु रूप में विस्तारित सामग्री का प्रकाशन ‘हिमांक से क्वथनांक तक’ शीर्षक से 2024 में ‘नवारुण : 303 जनसत्ता अपार्टमेण्ट्स, सेक्टर-9 वसुधारा गाजियाबाद ने किया है। नवारुण की वैबसाइट www.navarun.com है और इनसे मोबाइल नं 9811577426 पर पुस्तक के लिये सम्पर्क किया जा सकता है। हिमालय के ट्रैकरां, साहसी घुमक्कड़ों, उत्तराखण्ड की यात्रा पर आने वाले पर्यटकों और यात्रा साहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए 425 रुपये मात्रा मूल्य की यह किताब साहित्यिक विधा में लिखी गई उत्तराखण्ड पर पठनीय एक जरूरी सचित्र गाइडबुक भी है। वह वहां अद्यावधि संचालित हुए ट्रैकिंग अभियानों का इतिहास और उत्तराखण्ड पर लिखी गई यात्रा विधा की साहित्यिक कृति तो है ही। किताब के पृष्ठों पर क्रमवार छपे अरुणोदय में दिखते शिवलिंग पर्वत की दिव्य चोटी से लेकर चतुरंगी गल, सतोपंथ पर्वत, आरव्रा नदी के जलागम, बासुकीताल, कालिन्दी खाल से लिया गया कामेट शिखर आदि के आर्ट पेपर पर छपे हुए चित्रा संग्रहणीय तो है ही नित्य चित्र में दर्शनीय भी हैं। तीन चित्र वहाँ के प्राकृतिक पुष्पोद्यनों के हैं। पत्थरों पर उगी पुष्पावली का चित्रा तो हर वनस्पति विज्ञानी की बैठक में टांगने के लिए जैसा है। स्वामी सुंदरानंद के खींचे श्वेतश्याम सुरालय के चित्र हैं। घास चरते, सोये हुए और चलते हुए भी भरलों की दांगें हैं। हरी चोचों वाले कौवे हैं। गरुड़ हैं, डफिया मुनाल हैं। गौरैयायें हैं। भरलों के साथ घास कुतरते सफेद चूहे हैं। त्रिलोचन की कविता के जैसे ‘सब सुंदर जगरूप सुंदर हैं।’
किताब का वर्ण्य विषय डायरी के मानिंद है। शिल्प उसका, विगताख्यान को समकाल से जोड़ता चलता है। सन् 2008 में जो अनागत था, बाद के वर्षों में समकाल हो गया। शेखर पाठक सतत यात्री रहे हैं उत्तराखण्ड की धरती के ही नहीं मानसरोवर वाले तिब्बत-नेपाल-भारत-चीन, भूटान और नैनसिंह मिलम्वाल के समग्र काम के पढ़े, लिखे, खोजे छपे-छपाए की धरती के भी। प्रस्तुत किताब में उस समस्त की झाई, धूप छायी आनी स्वाभाविक थी, आई है। शेखर के पास जैसे मन्तव्य वस्तु की कभी कमी नहीं वैसे ही लिखने के लिए संचित सामग्री भी इतनी प्रभूत होती है कि किताब में यह, भरे हुए वर्षाती नौले के पानी की तरह छलक-छलक पड़ी है। उत्तराखण्ड में विभिन्न मांगों के लिए विगत एक सौ वर्षों से चलाए जाते रहे सामाजिक आंदोलनों, अभियानों और लोकयानों के इतिहासों का अध्ययन जिस प्रकार शेखर पाठक को पढ़े बिना अधूरा रहता है उसी प्रकार गोमुख से सतोपंथ तक की बांक को जिन-जिन लोगों के चरणों ने नापा उनके इतिवृत्त को पढ़े बिना इस किताब की अन्तर्वस्तु की समझ अधूरी रहेगी। खुदा का जिक्र अधूरा है मुस्तफा के बगैर।
किताब के शुरू के चालीस पृष्ठों में टिहरी से लेकर गंगोत्री तक के आधुनिकीकरण के दो शानदार अध्याय हैं। चीड़बासा, भोजबासा और गंगोत्री के वनों की पुनर्जीवंतता देखकर आनंद हुआ। 1967 में मैंने उस हिस्से को खल्वाट होते हुए देखा था। गंगोत्री नेशनल पार्क में हरीतिमा छाई है। हर्षवती और रतनसिंह के योगदान सुनते तो थे, देखने और पढ़ने में आए।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद हुए भौतिक विकास और उसके परिणामों का लेखक ने मित्रास्यचक्षुषा अवलोका है। भौगोलिक क्षमता से अधिक विकास लाद देने वाली सरकारी योजनाओं पर असरहीन गुस्सा भी जगह-जगह फूटता हुआ दिखाई देता है, अन्यथा वहाँ सब भव्य है। वास्तविक भव्यता गंगोत्री से आगे चीड़वासा, भोजबासा, नंदनवन और तपोवन में है, इसे कौन नकार सकता है। भोजवासा से तनिक उदीची में गोमुख का भयभंजक चित्र देखते रहने का मन करता है नन्दनकानन व तपोवन की गुफाऐं, ओड्यार, झोपड़ियाँ, कुटियायें, आधुनिकता की धज दिखा रही है। स्नान, शौच, विश्रामादि के इन्तजामातों ने दिव्यता को बदरूप नहीं होने दिया है। वहाँ के भरलों की दांगें, पीलीचौंचों के कौवौ के झुण्ड, चेतक हेली काप्टर जैसी रेंगती चीलें, फुदकती चिड़ियायें, इधर-उधर कुछ ढूंढ़ती छिपकलियां, चूहों और चीटियों ने भी परिपूर्ण प्राकृतिकता को भरा-पूरा रखने में अपना योगदान किया है। बंदर, सुअर, शाही, बाघ, बघेरे अभ्यारण्य में चले गए है। या माल-भाबर और दून-देहली की तरफ पलायन कर गए हैं। वहाँ न सुरंगों के बैठने का खतरा है न नदियों के बंधानों के फूटने का। न गाड़ियों का जाम है। बहरहाल चरणन चल कर जाइये नन्दन-कानन तपोवनन।
मैंने प्रस्तुत आलेख में नन्दनकानन से घासतोली तक के वृत्तांत को ही आँखें किरकिरी करते करते पहले इसलिए हेरा कि गोमुख तक इस तरफ से और बसुधारा तक उस तरफ से मेरा देखा हुआ था। विवेचित किताब में, वर्तमान यात्री-दल अनकनंदा नदी में कहाँ पर आकर मिलता है, यह जानने की उत्सुकता थी। यात्रा की समाप्ति राजखरक के पास भू-स्खलन वाली दुर्घटना में न होती तो वह यात्रा माणा तक मजे की होती।
बद्रीनाथ-माणा से होकर स्वर्गारोहिणी की ओर ले जाने वाला हिमोड़ सतोपंथ कहलाता है। लोकश्रुतियों में, पाण्डवों की अंतिम शरीर-यात्रा इसी क्षेत्र में हुई थी। पांच हजार वर्ष बहुत बड़ी अवधि नहीं है। हिमालय की उम्र के सामने वह बहुत छोटी है। आज की दुनियां के सिंगापुर, गाजियाबाद, मुंबई, दुबई आदि शहरों की बहुमंजिली इमारतों की कतारों के जो चित्रा टीवी की स्क्रीनों में देखते हैं, उन्हीं की तरह के लाखों वर्ष पुरानी दरियों के घांघलों के बीच खड़े सूखे सॉलिड कार्बन डाइआक्साइड के दो चित्र किताब के पन्नों में दिखे उनमें शेखर ने सहस्त्र कमलदल की सी आकृतियों की कल्पना की। उसी तरह की कल्पना लोक जीवन में भी पाण्डवों के प्रति व्याप्त है। कहा जाता है पाण्डव गलने के लिए ही सतोपंथ की तरफ गए थे। जबकि वहाँ चीजें गलती नहीं। ‘ब्रह्मकमल’ बनने और ‘गलने’ की श्रुति को कई नजरों से देखा जा सकता है। एक बात निर्विवाद हो सकती है कि सतोपंथ से कालिन्दी खाल तक आया-जाया जा सकता रहा है बहुत प्राचीन काल से भी। पुराकथाऐं, लोककथाऐं, पुराणकथाऐं, केदारनाथ से कैलास तक के महाहिमालय की दरियों को आवाजाही विहीन नहीं मानतीं। कैलास तो राजधानी है यक्षों की। ‘कैलास’ अकेला वही शिखर नहीं है जिसे देखने आजकल पर्यटक जाते है। हर पर्वत शिखर कैलास है जैसे कि हर नदी गंगा है। ये नाम, मात्र एक के लिए रुढ़ नाम नहीं हैं। सामान्य नाम है सब के लिए। नाम एक के लिए विशेष तब होते हैं जब विज्ञान को, ज्ञान परिभाषित करता है।
मेरा ख्याल है, कालिन्दीखाल नाम भी ऐसे ही किसी ने रख दिया और वही चल पड़ा है। कालिन्दी नाम यमुना का है। क्या यमुना का पानी वहां है या यमुना का जलागम उस खाल से या उसके मोरेन से है? यमुना का मूल ‘यामुन’ पर्वत से माना गया है। लोक भाषा में उसे बंदरपूछ कहा गया है। मानसखण्ड का रिव्यू करने गोपालदत्त जी ने मुझसे कहा। मैंने बहुत द्रविड़ प्राणायाम किया उसमें आए भूगोल के पहाड़ों को समझने के लिए। वह लेख छपा भी है पर मैं उससे संतुष्ट नहीं हूँ। इस किताब के बारास्ता-बेरास्ता जो भी पर्वत शिखर, खाल-ताल, ह्यूंगल और दरियां आई हैं उनके नाम वही है, कहना निर्विवाद नहीं होगा। जब तक सर्वे नहीं होता, नक्शे नहीं बनते, आधिकारिक तौर पर अधिकृत स्थान-नाम सार्वजनिक नहीं होते, हमें यह अनुमान करने की छूट होनी चाहिए कि इसी रूट पर इन्द्र के खजांची एक यक्ष का आवास था। ‘चैत्रारथ’ उसके बगीचे का नाम था। ‘चैत्रारथ’ का यों भी अर्थ कर सकते हैं कि बसंत ऋतु जो भारतीय पंचांगों में बैषाख तक जाती है उस ऋतु-रूपी रथ में वह बगीचा देखने आता था। फूल तो जैसे वहाँ खिलते थे, दुनियाँ में और कहां खिलते होंगे! वर्षात भर वह वहाँ मौज करता होगा। कालीदास ने एक और यक्ष की राजधानी अलकापुरी की वहां उपस्थिति मानी है। अलका नाम उसकी पत्नी या प्रेमिका का है। वह अलकनंदा नदी के नाम से नामित है। जैसी महादेव की मायापुरी, पार्वती की मैयापुरी हरिद्वार में है वैसी ही यक्ष की अलका की पुरी का अनुमान अलकनंदा बांक में न करें तो कहाँ करें?
हिम-शिखरों के टूट-टूट कर नींचे लुड़कने से बने ग्लेशियर, राड़, रौड़, रौखड़, भांखड़, रेहड़ और भीमाकार बोल्डरों से मिलकर बने गाद के अंबार की उपरली सतह निरंतर बढ़ते रहने की मिजाज की होती है। निचली परत द्रवित होकर चूते रहने की। उसमें सोते, छोये, धारे, चोपटाल, गुल-गुल बहते पानी के शोर और ताल-तलैयों की स्थान-स्थिति बनते-बिगड़ते रहने की होती है। जब पाण्डव वहाँ गए थे तब हिमश्रृंग इतने ऊंचे न रहे होंगे। इस बात की संभावना भूगर्भ वाले भी करते हैं। उनका यह भी मत है कि हिमालय ऊंचे होते जा रहे हैं और उत्तर की तरफ खिसक भी रहे हैं। अनुमानतः कहा जा सकता है उस काल में दो पहाड़ों के बीच की घाटियों की गहराई उथली रही होगी।
बहुत बर्फ गिरी। शिखर टूट कर नीचे खाल में आ गया मलवा। खाल के किनारे और ताजी गिरे मलवे के बीच ‘करघ-करघ’ बच-बच कर चलने की चेतावनी दे रही है दरी के मुंह की तरफ उड़कर आ रही वह हवा जो कोहरे को उड़ाकर ला रही है। शेखर ने पूछा है ये बादल कहाँ से आ रहे हैं? कालीदास कह रहे हैं दरी के मुँह की तरफ से आ रहे हैं जिस पर एवलांस गिरा है। वह आज की रात, कल या एक आध महीना पहले गिरा भी हो सकता है। दो चार वर्ष या करोड़ों वर्षों पूर्व में भी, इससे क्या फरक पड़ता है? फरघ् करघ् शब्द जो हमारी कुमाउंनी में है, उसी को करन्ध्र बनाया है कवि ने-
यः पूरयन् कीच करन्ध्र भागान् दरी मुखोच्छेद्य समीरणेन्।
दरियां जहां आयत्त रही होंगी वहां यक्षों की बस्तियां होगी। उनके नगर ऐसा ही विवृत घाटियों में रहे होंगे। उस प्रांतर में इन्द्र की हुकूमत होने के उल्लेख मिलते हैं। वह यक्ष-जाति का योद्धा है। रावण को जब सूचना हुई कि उसके पास सोने के भंडार है तो उसने वहां धावे मारे। कुबेर के पुष्पक विमान को उड़ा लाया। एक समय तो उसने कैलास को ही अपना गढ़ बना लिया था। उसका नाम त्रिकूट रखा था उसने। पुराकथाओं के प्राक् इतिहास में ही नहीं, दो-ढाई हजार वर्ष पुराने समय से वहाँ ‘सि×जा’ नाम के खश राज्य की राजधानी होने के प्रमाण मिलते हैं। गोपेश्वर के कत्यूरी राज्यों का क्षेत्र विस्तार भी इस तरपफ कम हिमालय के पार ही ज्यादा विस्तृत मालूम पड़ता है।
नृवंश में जाने पर बात अधिक स्पष्ट होती है डोकियो और धागला सिंगमा जैसे गोत्रों के सैकड़ों नेपाली जातियां उन्हीं यक्षों की वंशधर हैं, जो डांडों-काठों और हिम-पथों पर घुरड़-कागड़ों की तरह चढ़ने-उतरने की अभ्यस्त हैं। वे हीरे के वर्मों से पखाणों में सूराख करते थे। फिर उन सूराखों में सरिया फंसाकर उनके ऊपर तख्ते रखकर चलने का रास्ता बनाते थे। अघट्ट घाटों को पार करते थे। जैसे आजकल बीसियों मंजिल ऊंचे अपार्टमेंण्ट्स की छत पर मोटी रस्सियों पर बंधी बहंगी पर बैठकर मजूर बिल्ड़िगों की पुताई के लिए धरातल की तरफ उतरते हैं वैसे ही वे लोग कांठों में मध्ुमक्खी के छत्तों से शहद और चट्टाओं से शिलाजीत निकालते थे। पुरचूंड़ियां जैसी बर्फानी नदियों का पानी छानकर सोना इकट्ठा करते थे। अम्रक व हड़ताल जैसे खनिजों को निकालते, सिंधरफ और कस्तूरी व रिखतीती जैसी चीजों को सुखा-संवार कर बिक्री के लिए तैयार करते थे। उन्हीं लोगों के जीन की पहिचान हमें हमारे समय के पर्वतारोही शेरपा लड़कों के खून के परीक्षण में करनी चाहिए। मुझे यह ख्याल आया एडमंड हिलैरी के साथ प्रस्तुत किये गए तेलजिंग नोरके के चित्र को देखकर। उसके शरीर, मुखमुद्रा और अभिमान-विहीन बड्प्पन की व्याख्या नहीं हो सकती। जीने का नाम मरना है उनके लिए। मरना-जीना क्या है उनके लिए? मैं नारायण नगर में 1955-56 में छः या सातवें दर्जे का विद्यार्थी रहा होऊँगा। जुलाय के महीने, चिण्डों की माला को कॉखों में बाँधकर काली की उत्ताल तरंगों में तैरकर पढ़ने के लिए वार आये देवेन्द्र और निरंजन पाल व उक्कू के घनश्याम जोशी के मुख से सुनता था काली में बहकर आने की दुस्साहस भरी अपनी करनियों की गाथाऐं। ऐसी गाथाऐं जीने का नाम ही मरना है। ‘हमरो तेजजिंग शेरपा ने हिमालचोर्यो चमासूर्या’ गीत की स्वर लहरी तब से कांनो में गूंजती रही थी। एक ही पंक्ति याद थी। प्रस्तुत किताब में पूरा गीत मिल गया। आनंद आ गया हो।
हम अंग्रेजों के काम को देखते हैं, पढ़ते हैं और उनके नामित स्थानों के ही आदी हो जाते हैं। राजखरक और घासतोली नाम खुद वहाँ तक पशुचारण में लोगों के आने-जाने की निरंतरता की सूचना दे रहे हैं। फिर भी हमें यकीन नहीं होता कि मिलम और गोंखा के शौकों की भेड़-बकरियां चरने समगों से होकर घासतोली तक को आती ही थी गैर-शौकों के हिमालयी रहवासियों की गाय-भैंसे भी वहाँ चारण के लिए लायी जाती होंगी। खरकों में वर्षा ऋतु में लाये जाते थे दुधारू पशु। राजखरक तो बड़ा नाम है!
आज के दौर में जिस प्रकार नन्दनवन और तपोवन देखने के लिए जाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है वैसी ही वसुधारा, घसतोली और राजखरक तक की आवत-जावत सीमित प्रतिबंधों के साथ चलते रहनी चाहिए। हमें मौसम के परिज्ञान के लिए वहाँ सशक्त यांत्रिक सिस्टम उपयुक्त स्थान पर स्थापित करना पड़ेगा। उस तुषाराद्रि में सूरज, चौबीसों घण्टा हवा-पानी से जिस तरह के खेल रचाता है, उसका अध्ययन यन्त्रों की मदद से ही सटीक हो सकता है। प्रकृति का सूक्ष्म्यावलोकन भी साहित्य में जरूरी है।
मुख्य कमाल तो वहाँ उष्मा, पानी और हवा का ही है। ये तीनों पदार्थ भौतिक है। अलौकिक नहीं। पर न जाने ये कितने रूप बदलते हैं। सभी रूप किसने देखे? हाँ पानी के द्रव, ठोस और गैस रूप सामान्य आदमी भी समझता है। हवा और पानी की भाप से बादल बनते हैं। हवा भी पदार्थ रूप ही है। मिश्रित पदार्थ। बादल ठण्डी वस्तु के सम्पर्क में पुफहार, वर्षा, कोहरा, धुंध, पाला और बपर्फ क्या क्या बना देते हैं, इतना तो लोकज्ञान से भी समझ में आ जाता है।
लोक जिन घोडों की कथाऐं गढ़ता है उनमें सबसे पहले सूर्य के ही गुण-सूत्रा जोड़ता है। सूर्यवंशी होते हैं उनके घोड़े भी। उनको उड़ने की सामर्थ्य से मंडित करती है हवा अपने गुणसूत्र देकर। सूर्यवंशी-वायुपंखी बनते हैं घोड़े। वे तभी उड़ पाते हैं। मिथक का निर्माण हो जाने पर उसके मुंह में दूध पिए हुए लोहे की बनी छुरी डाल दी जाती है। उर्जावान उड़ता घोड़ा, धरती-अंबर एक करने की सामर्थ्य पा जाता है तो भाषा के मौखिक श्रोतों की कहानियों का श्रोता भी ‘तात्पर्य’ गढ़ लेता है उनमें खुद-ब-खुद अपने मन का। सुनने वाले का मन भी अपना करिश्मा आरोपित करने के लिए स्वतंत्र होता है। जैसे कि प्रस्तुत किताब में उल्लिखित नीलेश के पास गर्म लिवास के अभाव, जूते-जुराब, टोपी मफलर की जुगत न होने, ओढ़ने के लिए पंखी-नमदा और बिछाने की गुदड़ी और तगड़ी खुराक न मिलने से ऊंचाई पर बर्फानी परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करने की ऊष्मा न बची थी। जिससे उसके जीवन के वृत्त का अंत समीप आ गया। मेरे लिए यह यथार्थ घटना लोककथा से ग्रहीत कुमाऊं की जागर गाथा के बिम्ब को समझने का माध्यम बन गयी। वह लड़का सुदूर गुजरात से धंधे की खोज में उत्तरकाशी तक पहुंच गया था। उससे भी आगे डोडीताल किसी की बोझी-बर्घरी पहुंचाने गया होगा। अमोड़ा गॉव का हम उम्र विजय उसका दोस्त हो गया। दोनों ने गंगोत्रा-गोमुख की लाइन में डोट्याली शेरपाओं जैसी ध्याड़ी से कुछ कमाने की सोची। गोमुख में आस्ट्रियायी ट्रैकरों का बड़ा दल मिला। उसमें एजेंसी ने बहुत शेरपाओं को काम पर लगाया। अपने जैसे लोगों की बड़ी बारात में नीलेश और विजय भी चल दिए थे। बहुत आगे चले गए। कालिन्दीखाल से वापस आ रहे लोगों के साथ उन्हें भी लौट आना था। वे लोटे नहीं। उन्हें आगे देखने का कौतूहल था। एक बार देख लेंगे तो अगली बार भी आते रहेंगे, यह आकांक्षा रही होगी। आकांक्षा में ही भावी जीवन की रोजी का मन्सूबा रहा होगा। वे आगे ही बढ़े। अंधेरे में, ठंडक में, भीगे हुए थिलगों और खाली पेट। मुझे हिमालय की दुर्लभ धूप में तपे गरम ऊनी वस्त्र की उष्मा के लिए बेचैन अर्जुन की याद आई। पाण्डवेंण जागर गाथा में जगरिये यह प्रसंग गाते है। घाम में सुखाई हुई आराम देह माण है वह।
मैंने गर्ब्यांग ब्यांस-चौदांस की तरपफ से आने-जाने वाले, घोड़े-खच्चरों और गधों पर लदे हुए सामान और उनके मालिकों के कंधों पर पड़ी भीगी हुई ऊंनी मंडियों को देखा था। उन काफिलों को याद करके ‘घाम तापीं मांण’ के अर्थ बुझाता रहा था पहेलियों की तरह। प्रस्तुत किताब में शिवलिंग शिखर की चोटी पर अरुणोदय की लाल चादर लिपटी दिखी तो मुझे लगा नीलेश सूखी हुई मांड ओढ़कर धूप तापने बैठा हुआ है।
उतनी ऊँचाई पर अर्जुन की ‘मांड’ को लेकर उड़ा था भौरे का रूप धरकर हनूमान। यह हनूमान वह नहीं था जिसे मंदिर में पूजा जाता है। लोक गाथाओं के बुनकरों को चिन्दी-चिन्दी चीथडों के तानो-बानों से चादर बनाने का इल्म होता है।
अर्जुन गढ़लंका जा रहा है बुक्या सोना लाने। गोरीछाल पहुँची गाथा है। गोरीगंगा आकाश चढ़ी है। अर्जुन का घोड़ा पानी की अर्गलाओं को चीरता हुए बीच धारा में पहुँचा तो घोड़ा पलटा दिया उत्ताल तरंगों ने। किं कर्तव्य विमूढ़ हो बैठ गया अर्जुन गोरी के बगड़ में। बिना काठी के, बिना चमड़े की तापार के, बाखर सौड़ के, बोल्डन, तान-बान-लगाम और माड के गढ़लंका के अभियान को निरस्थ करने की नौमत आई देख सूर्यवंशी वायुपंखी घोड़ा इंसान की जुबान में बोल रहा है- बिना काठी व जीन-जोत के ही चढ़ जाओ मेरे पीठ पर। अपनी टांगों से कस कर पकड़ लो मेरी लाद। चाबुक के इशारों से हुकम करो चाल का, तो मैं उड़कर पहुंचाऊ आपको आधे आकाश में। वहाँ खिली हुई धूप में फैलाई है हनूमान ने हमारी मांड। आधी सुखाने डाली है आधे आकाश में उठे हिमालय के शिखर पर। आधी में खुद वह पालथी मारे बैठा है। शिवलिंग शिखर की धूप के चित्रा से तादात्म्य हुआ गाथा में सुने गए कथा-बिम्ब का और स्मृति-बिम्ब का भी। अर्जुन ने समेटी धूप में बिछी हुई माड। उसके आसन की तरह पसरे हिस्से को रोलअप करके ओंधे मुंह उलट दिया हनूमान को। घोड़े ने आदेश दिया। ‘बांधो इसे मेरी टांगों पर अधकच्चे चमड़े के ताने को काटने की हंसुली के साथ।’
या हनूमान को घोड़े की पिछली टांग से बंधवा कर व्योम से उतारा गया गोरी के बगड़ में। धाप-धाप की टापों के साथ उछलता हनूमान लहूलुहान हुआ तो बोला, ‘मुझे मारो मत। मेरे पिता की अनुश्रुतियों से मैंने सुना है कि तुम और मैं ममेरे-बुवेरे भाई हैं। मैं तुम्हें बताऊंगा गढ़लंका के राज। सोने के खजाने के भेद। उनके रक्षकों के आवास। उस पर छापा मारने की साईत भी बताऊंगा। तुम रहम करो। मुझे बंधन से मुक्त करो।’
अब लोकगाथा में गढ़लंका जाने की राह खुलती है। कैसी पफन्तासी है गढ़लंका की। गढ़लंका हिमालय में है। वहाँ का रक्षक हनूमान है। लोगों को सुनने में अजूबा लगेगा कि सोने की इफरात लंका में नहीं हिमालय में है। वहाँ की नदियों में बहता है सोना। उस सोने की ईंटें नहीं है। वह बुरादा है सोने का। उसे तराजू में नहीं तोलते। माणे, पाथा, नाली से भरते हैं।