उमा भट्ट
श्री ताराचन्द्र त्रिपाठी की पुस्तक ‘शब्दों के मूल की खोज में’ उनके द्वारा समय-समय पर लिखे गये भाषा सम्बन्धी लेखों का संग्रह है। इससे पूर्व भी भाषा पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उत्तराखण्ड का ऐतिहासिक भूगोल (1999), मध्य हिमालय, भाषा, लोक और स्थान नाम (2006) उनकी भाषा सम्बन्धी प्रमुख पुस्तकें हैं। सोशल मीडिया में भी वे इस तरह के लेख लिखते रहे हैं। संस्मरण, यात्रावृत्त तथा इतिहास सम्बन्धी अनेक पुस्तकों के लेखक श्री त्रिपाठी की यह किताब भाषा के अध्येताओं से इतर सामान्य रुचिवान पाठकों के लिए भी सुपाठ्य और रोचक है। इन्टरनेट की आज की दुनिया में विश्व भर की जानकारी लेना, चाहे वर्तमान हो या सुदूर अतीत, सरल हो गया है। श्री त्रिपाठी इस विद्या में निष्णात हैं और दुनिया भर की तमाम भाषाओं की शब्द-सामग्री को गहन भाषावैज्ञानिक निष्कर्षों से पुष्ट करके पाठकों के आगे रख देते हैं। एक सिद्धहस्त लेखक की तरह वे सरल भाषा में जटिल तथ्यों को स्पष्ट करते हुए चलते हैं। भाषा की सरलता के कारण तथ्य की दुरूहता बोझिल नहीं होने पाती।
इस संकलन के निबन्धों में मुख्यतः तीन प्रकार की विषय वस्तु दिखाई देती है- 1. शब्दों के माध्यम से भाषा की पड़ताल करना तथा स्थान नामों को भाषा की खोज का माध्यम बनाना। 2. दूसरी श्रेणी में हिमालय की भाषाओं पर केन्द्रित निबन्ध हैं। विशेषतः उत्तराखण्ड या कुमाऊँ की भाषाएं, उनकी अतीत से वर्तमान तक की यात्रा, अन्य भाषाओं का प्रभाव आदि। 3. कुछ निबन्ध ऐसे हैं जिनमें भाषाओं के सुदूर अतीत से निकट वर्तमान तक की यात्रा को सामने रखा गया है। लेखक ने पुरातात्विक स्रोतों (सिक्के, ताम्रपत्र, शिलालेख, दानपत्र आदि) के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि मध्य पहाड़ी भाषाओं का मूल स्रोत शौरसेनी अपभ्रंश न होकर मध्य पहाड़ी प्राकृत रही होगी। प्राकृतों की गणना में मध्य पहाड़ी प्राकृत का उल्लेख नहीं मिलता लेकिन मध्य पहाड़ी भाषाओं, जो कि आर्य परिवार से सम्बन्ध रखती हैं, के विकास के लिए लेखक ने मध्य पहाड़ी प्राकृत की कल्पना की है, तो यह अकल्पनीय भी नहीं। मध्य पहाड़ी प्राकृत कालान्तर में मध्य पहाड़ी अपभ्रंश के रूप में भी चिह्नित की जा सकती है। वस्तुतः मध्य पहाड़ी प्राकृत यह नाम देना लेखक की बार-बार कही गई उस धारणा का ही समर्थन है जो भारत में आर्य भाषाओं के विकास क्रम यानी संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश को न स्वीकारते हुए संस्कृत के समानान्तर प्राकृत भाषाओं के अस्तित्व को मान्यता देती है।
इस संग्रह में एक लम्बा आलेख ‘मध्य हिमालयी भाषा और संस्कृति में द्रविड़ तत्व’ शीर्षक से है जिसमें द्रविड़ परिवार की भाषाओं और बोलियों के शब्दों, प्रत्ययों की पहचान कुमाउनी भाषा में की गई है तथा दक्षिण भारत में प्रचलित लोक विश्वासों को कुमाउनी समाज में भी दर्शाया गया है। लेखक ने कुमाउनी भाषा में प्रचलित द्रविड़ शब्दों की एक लम्बी सूची भी दी है। इनमें से कई शब्द ऐसे हैं जो हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं में भी प्रचलित हैं। दक्षिण भारत में बोली जाने वाली द्रविड़ परिवार की चार प्रमुख भाषाओं के अतिरिक्त भारतीय उपमहाद्वीप में बोली जाने वाली 23 बोलियों के नाम भी दिये हैं जो इस मान्यता को स्थापित करते हैं कि आर्यों के आगमन से पूर्व द्रविड़ परिवार की भाषाएं पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वत्र बोली जाती रही हांगी। इस किताब में संकलित विभिन्न लेखों के माध्यम से लेखक ने अपने विश्लेषण में न केवल भाषाओं के इतिहास की सुदूरतम प्रवृत्तियों को उद्धृत किया है, वरन भाषाओं के सन्दर्भ में विकसित हो रही नवोदित प्रवृत्तियों को भी ससन्दर्भ सामने रखा है।
लेखक की मुख्य चिन्ता भाषाओं की विलुप्ति को लेकर है। जिसे वे लगातार लम्बे समय से अपने वक्तव्यों में भी कहते आ रहे हैं। उनका कहना है- ‘जिस प्रकार संसार में जीवन को बनाये रखने के लिए जैविक विविधता अनिवार्य है, उसी प्रकार मानव संस्कृति को बनाये रखने के लिए सांस्कृतिक और भाषायी विविधता भी अपरिहार्य है।’ (पृ. 57) भाषा या बोली के महत्व को समझाते हुए वे लिखते हैं कि किस तरह भाषा सिर्फ आपसी बातचीत का माध्यम भर नहीं है वरन हजारों वर्षों में निर्मित होने वाली भाषा-बोलियां एक विशाल विश्वकोश हैं जो किसी भी क्षेत्र के निवासियों की पहचान होती हैं (पृ. 105)। लेखक ने कोर्निश, वेल्श, नवाजो, हिब्रू आदि भाषाआें का उदाहरण देते हुए बताया है कि भाषाओं को पुनर्जीवित करने के भी सफल प्रयास हुए हैं। इन्टरनेट के जरिये प्राप्त आंकड़ों का आधार लेकर संसार भर की भाषाओं के प्रति चिन्ता प्रकट की गई है।
‘शब्दों के अन्तस्तल में’ शीर्षक निबन्ध में लोक, वेद, पुराण, प्रगतिशील, चरित्र, परम्परा जैसी कई धारणाओं को परिभाषित किया गया है। धर्म की परिभाषा उद्धृत करने योग्य है- ‘धर्म मानव समाज की व्यवस्था को बनाये रखने वाले कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक एवं व्यवहार का नाम है।’ (पृ. 24) संग्रह के पहले निबन्ध ‘शब्दों के मूल की खोज में’ के आधार पर किताब को यह नाम दिया गया है परन्तु शब्द चर्चा से इतर भाषा सम्बन्धी अन्य विषयों पर पर्याप्त चर्चा पुस्तक में की गई है। कई महत्वपूर्ण बातें सूक्ति की तरह कही गईं हैं, जैसे- ‘लोक रूढ़ होते-होते वेद बन सकता है पर वेद कभी लोक नहीं बन सकता’ (पृ. 22)। लेखक का यह भी मानना है कि ‘भाषा और बोलियों में क्षेत्रानुसार जितनी भिन्नता होती है, उतनी उनके ऐतिहासिक क्रम में नहीं होती।’
इस प्रकार यह किताब लेखक के भाषा सम्बन्धी मौलिक चिन्तन को पाठकों के सम्मुख रखती है तथा पाठकों को भाषा सम्बन्धी अध्ययनों के प्रति जिज्ञासु बनाती है। बीएफसी पब्लिकेशन्स, लखनऊ से प्रकाशित इस किताब की छपाई साफ-सुथरी है।
किताब : शब्दों के मूल की खोज में
लेखक : तारा चन्द्र त्रिपाठी
प्रकाशक : बीएफसी पब्लिकेशन्स, लखनऊ, 2022, पृष्ठ संख्या-117