इस्लाम हुसैन
हम बचपन से सुनते आए हैं कि, कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर वाणी। पैदल चलने वालों के न जाने कितने कारवां के सदियों के अनुभव के बाद, इस मुल्क में यह स्थाई धारणा और कहावत ने जनम लिया होगा। उस दौर में लोगों का आना जाना कम था, कोस कोस पर रहने वाले दूसरों से मिल नहीं पाते थे, इसलिए भाषा का एक स्थानीय पुट रहता होगा। जैसे जैसे लोगों की आवाजाही/गतिशीलता बढ़ती गई, वैसे वैसे बोली और भाषा में घुल मिलकर विविधता आती गई होगी। फिर यह दूरी दस कोस, फिर पचास कोस और 100 हो गई होगी, और अब देखा जा रहा है कि यह सीमा भी ख़त्म हो गई है। इसी के साथ दूध बोली, मातृभाषा और मादरी ज़ुबान की बात बढ़ती गई और फैलती गई है।
मादरी जुबान वो होती है जिसके लफ़्ज़ों, लहजे और व्याकरण के सहारे बच्चे बात समझते हैं, इसी में रीति रिवाज/संस्कृति, मज़हबी अक़ीदों का इज़हार भी होता है। उसे आप कोई नाम नहीं देते और न किसी को समझा सकते हैं, हां देखने और सुनने वाला ज़रूर समझ जाता है, कि यह कौन सी भाषा है, और क्या लहजा है, और कौन सी संस्कृति है। मेरे एक दोस्त ने पौड़ी में एक परिवार को देखकर ऐसी ही एक खूबसूरत वाक़्ये का ज़िक्र किया था। जिनकी मादरी ज़ुबान उर्दू थी।
मेरे बचपन का माहौल उर्दू से सराबोर था, रानीखेत ननिहाल में उर्दू में पढ़ने लिखने की बात थी। चाचा उर्दू रिसाले और किताबें पढ़ते थे। मैंने उर्दू में हातिमताई से लेकर शमा रिसाले की कहानियां तक उर्दू में पढ़ीं थीं। बचपन में मेरी उर्दू जितनी अच्छी थी, शायद आज उतनी अच्छी नहीं है। बाद में मैंने स्कूल के दिनों में हिन्दी आंदोलन में भी हिस्सा लिया और मै हिन्दी पढ़ने में भी अच्छा रहा। ग्रेजुएशन में मैंने हिन्दी में कालेज टाप किया था।
अपनी घुमक्कड़ी में मुल्क के करीब करीब चारों कोने देखें हैं और पाया कि उर्दू मुल्क के बेश्तर इलाकों में जुबानों/बोलियों में सिलने, जोड़ने और तुरपाई का काम करती है। कश्मीर में अगर कश्मीरी, डोगरी, पहाड़ी, और पंजाबी ज़ुबान बोली जाती है तो वहां उर्दू जोड़ने का काम करती है। इसी तरह पंजाबी हरियाणवी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी के साथ उर्दू का बहुत मीठा रिश्ता है। मध्य प्रदेश और उसकी राजधानी भोपाल उर्दू का मरक़ज़ रही है, भले ही आज नफ़रती लोग उर्दू के लफ़्ज़ों को अपने रोजाना के काम से हटाना चाह रहे हों। आंध्र प्रदेश तो दखिनी उर्दू का मरक़ज़ रहा है वहां पर कई जिलों में उर्दू दूसरी ज़ुबान है। कर्नाटक में भी उर्दू की परम्परा रही है। तमिलनाडु और केरल में भी उर्दू की मौजूदगी है।
इसी तरह जम्मू कश्मीर हिमाचल और उत्तराखंड की जुबानों के साथ उर्दू का रिश्ता है। जम्मू डिवीजन में डोगरी के अलावा लोकल पहाड़ी ज़ुबान और पुंछ वगैरह में उर्दू बोली जाती है। पहाड़ी ज़ुबान में पंजाबी और उर्दू का बेहतरीन मेल है, घाटी में कश्मीरी आम बोली है तो उर्दू कश्मीर में आने वालों से राब्ते/सम्पर्क की ज़ुबान है।
हिमाचल की भाषाओं में पंजाबी के साथ साथ उर्दू का खूबसूरत मेल है। एक जमाने में हिमाचल पंजाब का हिस्सा था और पंजाब में पंजाबी के साथ उर्दू का बहुत नज़दीकी का रिश्ता रहा है । इसलिए हिमाचल का सरकारी अमला अब भी जी, जनाब से बात करता हुआ मिलता है।
उत्तराखंड में गढ़वाली और कुमाऊंनी पर भी उर्दू का अच्छा खासा असर है। दोनों भाषाओं को मुलायम बनाने में उर्दू का बहुत बड़ा हाथ रहा है। उर्दू का यह असर एक दो साल का नहीं छ: सात सदियों का है । सूफी संतों के पहले दौर और दिल्ली सल्तनत काल से यहां के ताल्लुकात उर्दू से रहें हैं। देश में आज़ादी के बाद संस्कृतनिष्ठ हिन्दी प्रयोग बढ़ने की वजह से इधर उर्दू के साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जा रहा है, इसी सिलसिले में उत्तराखंड में रेलवे स्टेशनों के नामों में से उर्दू को हटाकर संस्कृत में कर दिए हैं।
इतना होने पर भी गढ़वाली और कुमाऊंनी के लेखक जो ज़ुबान लिख रहे हैं, या जो ज़ुबान स्वाभाविक बोलचाल में चल रही है उसमें अच्छे खासे लफ़्ज़ उर्दू के हैं। असल में उर्दू के लफ़्ज़ गढ़वाली और कुमाऊंनी में ऐसे पैवस्त हैं कि उनको निकाला ही नहीं जा सकता। हालांकि कोशिश ज़रूर की जाती है। हाल में मैंने कुमाऊंनी कहानियों का एक संग्रह मंगाया जिसमें कुमाऊंनी कहानियों के साथ उसका हिन्दी में अनुवाद भी था। इस किताब में मूल कुमाऊंनी कहानियों में तो उर्दू और उर्दू से बने हुए लफ़्ज़ हैं, लेकिन कहानी के तर्जुमे/अनुवाद में वह लफ़्ज़ गायब हैं। हालांकि उर्दू के और लफ़्ज़ ख़ूब इस्तेमाल हुए हैं। यह सही है कि भाषा/ज़ुबान/बोली में नए लफ़्ज़ आने चाहिए लेकिन गढ़े हुए लफ़्ज़ जब ज़बरदस्ती डालें जाएंगे तो ज़ुबान की सारी ख़ूबसूरती और मिठास ख़त्म हो जाएगी। जबकि कुमाऊंनी और गढ़वाली में आए लफ़्ज़ एक लम्बे अर्से में आकर घर किए हुए हैं।
यहां आजादी के वक्त के हिन्दी और हिन्दुस्तानी के तनाज़े का ज़िक्र गैर ज़रूरी है, लेकिन यह कहना सही होगा हिन्दुस्तानी आम ज़ुबान थी। जबकि अबकी हिन्दी एक बनाई गई ‘सरकारी भाषा’ है।
उर्दू ने हर ज़ुबान को मिठास, ख़ूबसूरती और मुलामियत दी है। मुल्क की यह ख़ूबसूरती और मुलामियत बनी रहनी चाहिए। हमारी दुआ है कि मुल्क के हर हिस्से/ख़ित्ते की दूध बोली, मातृभाषा और मादरी ज़ुबान सलामत रहे, खूब फले फूले और उसके साथ उर्दू की खुश्बू भी फैले।