कविता में मेरी गति वैसे भी बहुत कम है, इसीलिये जब पौड़ी से ललित कोठियाल ने अभी उसके कविता संग्रहों के नाम पूछे तो मैं ‘इसी दुनिया में’, ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ और ‘कवि ने कहा’ पर अटक गया। ‘कवि ने कहा’ भी उसके द्वारा किया गया उसकी कविताओं का चयन है, कोई नया संग्रह नहीं। मेरे लिये तो वीरेन दा एक कवि नहीं, एक ऐसा अल्हड़ और शैतान दोस्त था, जैसा स्कूली जीवन में भी कोई नहीं मिला और एक ऐसा अभिभावक, जो हर निजी समस्या को सुलझाने के लिये हरदम तैयार रहता है। मेरे साहित्य, पत्रकारिता और राजनीति-जनान्दोलनों के दोस्तों में पाँच प्रतिशत भी ऐसे न होंगे, जो मेरी पत्नी मीता से परिचित होंगे या जिनके मीता नाम भी जानती होगी। मगर वीरेन दा के देहान्त से मुझसे ज्यादा धक्का तो मीता को लगा और वह मुझे कोसने लगी, ‘‘तुम इधर एक बार भी वीरेन दा को देखने नहीं गये। हाय, कितनी इच्छा थी कि एक-दो दिन वीरेन दा और भाभी के साथ रहूँगी।’’
ऐसी आत्मीयता तो उसने अपने सगे बड़े भाई के लिये भी नहीं दिखाई थी। ऐसा इसलिये कि वीरेन दा भी मीता से उतना ही स्नेह करता था और बिला नागा उसके हालचाल पूछा करता। अगस्त में उसके साथ हुई अन्तिम बातचीत में जब उसने मीता के बारे में पूछा और मैंने उसे बताया कि तनाव के कारण उसकी शुगर बढ़ गई है तो वह टेलीफोन पर ही झल्ला पड़ा था, ‘‘भाड़ में जाये यह कारोबार। तुम उसे लेकर कहीं और जाकर रहने लगो।’’ वह बेहद हबड़तबड़ में नैनीताल आता और आने से पहले ज्यादा रहने का वादा करने के बाद भी एक ही दिन में कभी कुत्ते के अकेले होने या कभी किसी अन्य बहाने से खिसक जाता। ऐसे में भी वह मीता से मिलना कभी नहीं भूलता था।
उसके परिचय के घेरे में आने वाले हर व्यक्ति के साथ उसका यही व्यवहार रहता होगा, तभी तो वह युवा-बुजुर्ग, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सबमें उतना ही लोकप्रिय था। सबके साथ वही खिलंदड़ा और बेतकल्लुफी का व्यवहार। मगर जब कभी किसी को झाड़ने पर उतरता तो छोटा-बड़ा कुछ नहीं देखता था। एक बार उसने बताया था कि शैलेश मटियानी से उसकी झड़प हो गई और वह बड़ी दिक्कत में फँस गया। उन दिनों मटियानी जी घोर हिन्दुत्ववादी हो गये दिखते थे और हम जैसे उनके तमाम प्रशंसक बड़ा असहज महसूस करते थे। मटियानी जी वीरेन दा के साथ रहने आये तो उसने उन्हें सीधे खरी-खोटी सुनानी शुरू कर दी। मटियानी जी सिर झुकाये सुनते रहे और फिर अटैची उठा कर चलने को उद्यत हो गये, ‘‘यार, वीरेन मैं तो तुम्हारे साथ एक रात काटने आया था। तुम इतने नाराज हो तो मैं चलता हूँ।’’ उन्हें बाहर जाते देख वीरेन डंगवाल पर सैकड़ों घड़े पानी पड़ गया और वह उन्हें बमुश्किल मना कर वापस लाया।
साम्प्रदायिकता को लेकर उसका यह गुस्सा और चिन्ता बहुत गहरे पैठे हुए थे। 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के समय जब हिन्दी के अखबारों ने ‘सरयू के पानी को खून से लाल’ होता हुआ दिखाना शुरू किया तो उसने बरेली के अखबारों को पूरी तरह नियंत्रण में रखा। ‘अमर उजाला’ में तो अपनी हैसियत के कारण वह ऐसा कर सकता था, मगर ‘जागरण’ के दफ्तर में जाकर भी उसने एक-एक व्यक्ति की मिन्नत की। अन्तिम रूप से उसने ‘अमर उजाला’ भी तभी छोड़ा, जब एक सुबह उसने पाया कि उसके घर पर आने वाले अखबार की तो पूरी धुन ही प्रतिक्रियावादी हो गई है। सिर्फ सम्पादक के रूप में उसका नाम है, सब कुछ तो उसका समाचार सम्पादक उससे बगैर मशविरा किये कर रहा है। वीरेन दा ने बगैर कारण का उल्लेख किये अपना इस्तीफा भिजवा दिया और दफ्तर जाना बन्द कर दिया।
उसके इस्तीफे का यह कारण अचर्चित ही रह जाता, यदि दिवाकर भट्ट ने मुझे फोन पर यह जानकारी न दी होती और वीरेन दा से पूरा वाकया सुनने के बाद मैंने यहाँ-वहाँ दर्जनों एस.एम.एस. भेज कर हंगामा खड़ा न किया होता। मैंने उससे पूछा कि तुमने मालिकों से इस बात की शिकायत क्यों नहीं की तो वह टाल गया। हालाँकि अग्रवाल और माहेश्वरी परिवारों की एक पूरी पीढ़ी को उसने पढ़ाया था और वे सब ‘डाॅक्टर साहब’ को बहुत अधिक सम्मान देते थे। इसीलिये इस इस्तीफे और सम्पत्ति-व्यापार की उनकी आपसी खींचतान के बीच भी उन सबने मिल कर वीरेन दा को अपनी प्रकाशन कम्पनी का डायरेक्टर बना दिया। छोड़ा तब भी नहीं। मैंने डायरेक्टर के रूप में उसके अधिकारों के बारे में उससे जोरदार जिरह की तो वह कुछ नहीं बतला पाया। उस चीज से उसका कोई मतलब ही नहीं था।
मतलब तो उसे अपनी कविता से भी नहीं था। हम जैसे लोग अपने लिखे गद्य के एक टुकड़े से आत्ममुग्ध रहते हैं। उधर वीरेन दा जैसा विराट कवि था, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ के साथ-साथ न जाने कितने सम्मानों से सुसज्जित, अपनी कविताओं से पूरी तरह निर्लिप्त रहता था!
अपने काव्य पर बात ही करना पसन्द नहीं करता था। ज्यादातर तो क्या कवि और क्या कथाकार, मैं-मैं ही करते रहते हैं। एक रोज जब पवन राकेश ने ‘आधारशिला’ में उसका एक इण्टरव्यू पढ़ा तो वह चमत्कृत रह गया, ‘‘अच्छा, वीरेन दा काव्य और रचना प्रक्रिया पर ऐसी-ऐसी बातें भी कर लेता है ?’’ अन्यथा तो हम सबके लिये वह नैनीताल आ कर तमाम तरह की शैतानियाँ और उजड्डपन करने वाला प्यारा सा दोस्त था, जो नैनीताल समाचार के तीसरे संस्थापक सम्पादक हरीश पंत को ‘हैरी दि हाॅरिबुल’ कह कर ही पुकारा करता।
कभी माहौल बन जाने पर हम में से किसी के कहने पर वह कविता सुनाने को राजी हो जाता तो फिर डट कर सुनाता, पूरी तरह डूब कर। 1983 में अल्मोड़ा में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी द्वारा किये गये ‘चन्द्रसिंह गढ़वाली समारोह’ में उससे ‘रामसिंह’ कविता सुनी तो ज्यादा मजा नहीं आ पाया। उन दिनों वह बेहद सपाट ढंग से कविता पाठ करता था और हम गिरदा के आदी हो गये थे, जो सिर्फ स्वर से नहीं, बल्कि पूरे शरीर को लय देकर कविता में आनन्द पैदा कर देता था। गिरदा ‘रामसिंह’ को भी उससे ज्यादा दमदार ढंग से सुना सकता था।
लेकिन बाद में वीरेन दा का कवितापाठ प्रभावशाली हो गया और ठेठ बोलचाल की भाषा में ‘हे, अरे, अबे, ओ’ तक कह देने वाली पपीता, इमली, समोसा, जलेबी जैसे सामान्य विषयों पर लिखी उसकी कवितायें उसके द्वारा पाठ किये जाने के बाद सर पर चढ़ कर बोलने लगती थीं। मेरे जैसा व्यक्ति, जिसके लिये स्वयं पढ़ कर कविता का आनन्द लेना शीर्षासन करने जैसा दुरूह है, उसके कविता पाठ से तृप्त हो जाता। कोई ताज्जुब नहीं कि सत्तर के दशक में उभर कर आये कवियों की जमात में वह सबसे लोकप्रिय कवियों में एक था। एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हाॅल में आयोजित एक कार्यक्रम में वह अपनी कवितायें सुना कर आया तो बेहद संतुष्ट था। उसने बताया कि वहाँ भारी संख्या में नौजवान श्रोता थे और हाॅल खचाखच भरा हुआ था। अपने पुराने विश्वविद्यालय में, जहाँ अध्ययन करते हुए उसके ‘कवि’ को एक सुनिश्चित दिशा मिली हो, उसका इस उपलब्धि से इतराना समझा जा सकता है। अन्यथा तो उसे कार्यक्रमों की औपचारिकता से बहुत अधिक चिढ़ थी।
औपचारिक समारोहों से कन्नीकाटते रहना उसका स्वभाव था। अनेक बार ऐसा हुआ कि किसी कार्यक्रम के लिये उसका नाम भी निमंत्रण पत्र में छप गया और ऐन मौके पर वह लापता हो गया। ऐसा भी होता कि वह घर से किसी कार्यक्रम के लिये निकलता और या तो उसे किसी गड़बड़ का संदेह होता या फिर उसका मूड ही उखड़ जाता और वह आधे रास्ते से लौट जाता। आयोजक प्रतीक्षा करते ही रह जाते। हम लोगों ने भी उसकी इस कमजोरी को झेला, हालाँकि अपनी जिम्मेदारियों में डूबे रहने और अपने आयोजनों को सफल बनाने के दबाव में घिरे रहने के कारण हम बाद में उसे डट कर गालियाँ दिया करते थे। एक बड़े कवि के रूप में उसकी एक प्रतिष्ठा है, अपनी छवि को लेकर उसे थोड़ा सावधान रहना चाहिये, इस बात को मानने को वह कतई तैयार नहीं होता था। हाँ, अपने कमिटमेंट के कारण वह ‘जन संस्कृति मंच’ के साथ अन्त तक जुड़ा रहा।
उसका ‘अमर उजाला’ के बड़े पद पर होना अक्सर हमारे लिये सरदर्द पैदा करता था। हमें किसी की नियुक्ति या किसी के ट्रान्सफर के लिये उससे सिफारिश करनी होती। हमें भी ऐसे काम करने में दिक्कत होती और वह तो हाँ-हाँ कहने के बावजूद प्रायः ऐसे काम करना टाल ही जाता। हम उसे फटकारने के अलावा और क्या कर सकते थे ? एक बार उसने निरीह होकर कहा, राजीव ऐसे काम कर मैं मालिकों के सामने छोटा हो जाता हूँ। तुम बुरा न माना करो। उस दिन के बाद मैं उससे सिफारिश करने का अपना दायित्व निभाने के बाद कोई अपेक्षा नहीं रखता था।
पत्रकारिता में वह अपने आप में एक स्कूल था। उसने सैकड़ों अच्छे और विचारशील पत्रकार तैयार किये। मेरा वह पत्रकारिता का गुरु नहीं था, मगर ‘अमृत प्रभात’ में काम करते हुए उसने किच-किच कर मुझसे लिखवाना शुरू किया था और ‘अमर उजाला’ में तो उसने इसी तरह मुझसे नैनीताल पर एक बहुत ही रोचक फीचर लिखवा दिया। उसका शीर्षक भी उसने बड़ा प्यारा सा दिया था, ‘इस दश्त में इक शहर था’। वह फीचर उसके बाद नैनीताल की अनेक स्मारिकाओं में छपा। उस फीचर की लोकप्रियता से मुझे लगा कि इसी लाईन पर मुझे नैनीताल पर एक उपन्यास लिख मारना चाहिये। मगर वह क्षमता अपने पास थी ही नहीं। वीरेन दा के गद्य पर तो बातचीत ही नहीं होती। रमदा ने एक बार ‘विकल्प’ में छपी उसकी कहानी ‘खरगोश’ की ओर ध्यान दिलाया था। नैनीताल समाचार में छपी, गिरदा को दी गई उसकी श्रद्धांजलि से उसके गद्य की ताकत का अंदाजा लगता है।
नैनीताल से उसे बेइन्तिहा प्यार था। यहाँ उसे अपना बचपन और दोस्त याद आते थे। भावुक होकर कई बार रोता और कहता कि तुम लोगों ने मुझे रुहेलखंड धकेल दिया है। फरवरी 2012 में ‘कवि ने कहा’ की प्रति मुझे भेंट करते हुए उसने उस पर लिखा था, ‘‘कभी किसी शहर और किन्हीं दिनों और किन्ही पेड़ों और तालाबों और लोगों की स्मृति में।’’ पाँच साल पहले उसने मुझसे नैनीताल में एक मकान ढूँढने के लिये कहा था, ताकि वह यहाँ निश्चिन्ततापूर्वक लम्बे समय तक रहना शुरू कर सके। मैंने उसके लिये तल्लीताल बाजार के पास एक दो कमरों का मकान ढूँढ भी डाला। उसके यह कहने पर कि ‘लौंडों’ को भी दिखा देना, आखिर पैसे तो उन्हें ही देने होंगे, मैंने उसके छोटे पुत्र प्रशान्त को भी वह मकान दिखला दिया। प्रशान्त राजी भी हो गया। मगर बाद में वह सौदा पट नहीं पाया और इसी बीच वीरेन दा बीमारियों में घिर गया।
कैंसर एक बेहद आतंकित करने वाला शब्द है। लेकिन वर्ष 2006 में हुए पहले आॅपरेशन के बाद वीरेन दा उस बीमारी से उबर गया लगता था और पूरी तरह अपनी पुरानी लय-ताल में रहने लगा था। मगर 2010 में उसे प्रोस्टेट और 2012 में रायगढ़ (छत्तीसगढ़) में दिल के हमलों से जूझना पड़ा। जैसा कि प्रायः होता है, कैंसर ने मौका पाते ही उसे दुबारा दबोच लिया। उसे पूर्वाभास हो गया होगा, तभी 21 सितम्बर को वह जिद कर बरेली चला आया। वहाँ उसे गर्दन से हो रहे भारी रक्तस्राव के कारण राममूर्ति अस्पताल में रखना पड़ा। बरेली वह कैद में रहने नहीं आया था, इसीलिये आई.सी.यू. में भी पाँव पटकते हुए घर जाने की जिद करता। मगर उसे तो अपने शाश्वत घर जाना था, जहाँ के लिये वह 28 सितम्बर को प्रस्थान कर गया।
अब हम उसकी कवितायें ही पढ़ कर रास्ता तलाशने और लड़ने की कोशिश करेंगे….