अशोक पाण्डे
नैनीताल को अपने बोर्डिंग स्कूलों और उनके बीच चलने वाली स्पोर्ट्स प्रतिस्पर्धाओं के लिए भी जाना जाता था. शहर के इकलौते मैदान यानी फ्लैट्स में साल भर चलने वाली खेल प्रतियोगिताओं में इन स्कूलों के बच्चों की भागीदारी रोमांच और ग्लैमर जोड़ती थी. एक या दो कर्रे अध्यापकों के निर्देशन में अपने स्कूल की टीम का उत्साह बढ़ाने आईं अलग-अलग रंग और काट के कोट-टाई-जूते पहने लड़के-लड़कियों की अनुशासित कतारें नैनीताल के हर बाशिंदे की स्मृति का जरूरी हिस्सा होंगी. मुझे खुद ऐसी कितनी ही कतारों का हिस्सा बनने की याद है.
जिस किसी ने अपना स्कूली जीवन हॉस्टलों में बिताया होगा उसे अपने सारे स्पोर्ट्स टीचर याद होंगे. ये स्पोर्ट्स टीचर हमारे नायक हुआ करते थे. मेरे स्कूल में गोविंदा के नाम से जाने जाने वाले जी. बी. तिवारी जी की अचूक फुटबाल कॉर्नर किक्स के बारे में मैंने कुछ दिन पहले लिखा था. हमारे बॉक्सिंग और जिम्नास्टिक्स के कोच मुकर्जी निर्वाण साहब का देश-विदेश में नाम था और उन्होंने 1983 में हमारे स्कूल में नार्थ ज़ोन बॉक्सिंग टूर्नामेंट करवाया था जो उस समय के लिहाज से किसी भी स्कूल के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी. कक्षा नौ में मेरे हॉस्टल जिम हॉल के वार्डन भी मुकर्जी सर थे. उनके सिखाये बहुत से बच्चे एशियाड और ओलिम्पिक तक में गए.
बहुत बड़े इजराइली कवि येहूदा आमीखाई की एक कविता पढ़ने के बाद स्पोर्ट्स टीचरों और उनके निजी जीवन को लेकर मेरे मन में पहली बार अलग तरह की संवेदना पैदा हुई. उस कविता में एक संग्रहालय में बैठे एक रिटायर्ड जिम्नास्टिक्स कोच की छवि है जो वहां अक्सर पर्यटकों को देखने आता है. फिलहाल वह किसी बात से बेहद उदास होकर एक खूबसूरत यूरोपियन पर्यटक महिला को देख रहा है. संसार में उसे इतनी ही इच्छा बची है वह सुडौल औरत जितनी देर संभव हो उसके सामने से न हटे. आमीखाई की ही तरह मेरे दिल में भी आश्चर्यमिश्रित टीस उठी थी कि जिम्नास्टिक्स कोच दुखी भी हो सकते हैं.
आमीखाई की ही एक और कविता में एक महिला जिम्नास्टिक्स कोच है जो बूढ़ी और मोटी हो जाने के बाद अपना देश छोड़ क्रीम और केक के खूबसूरत शहर वियेना जा बसी है. अपने जीवन भर उस औरत ने कितनी ही युवा पीढ़ियों के पेट और टांगों की मांसपेशियों को प्रशिक्षित किया है कि वे रेगिस्तान में लड़े जाने वाले युद्धों और बगीचों-गुलिस्तानों में की जाने वाली मोहब्बतों में अपना काम ठीक से कर सकें.
स्कूल में मुझे कोई पचास अध्यापकों की ट्रेनिंग मिली जिन्होंने गणित की जटिल समीकरणों को हल करने से लेकर कीट्स और शैली की कविता की मुलायमित से रूबरू कराया. उन्होंने व्याकरण के नुस्खे सिखाये और चेरापूंजी-मास्को जैसी जगहों के बारे में बताया. इसके बदले वे बार-बार हमारे इम्तहान लेते थे और पास-फेल किया करते थे. लेकिन स्पोर्ट्स के हमारे दो अध्यापकों की चिंता सिर्फ इतनी होती थी कि हम जीवन के जरूरी मौकों पर फेल न हों – हमारे शरीर हर मुश्किल इम्तहान को पास कर लें. इसके बदले वे हमसे थोड़ी सी इज्जत मांगते थे. बस.
नैनीताल के फ्लैट्स पर होने वाली स्पोर्ट्स प्रतिस्पर्धाओं पर वापस लौटता हूँ. इनमें जब-जब हमारे स्कूल कोई महत्वपूर्ण मैच होता तो हमें अपनी टीम को चीयर करने भेजा जाता. फ़ुटबाल के मैच अक्सर बरसात के मौसम में होते थे. छाते लगाए अपनी स्कूली पोशाकों पहने हम “व्हिस्की ब्रांडी सोडा पॉप – वी वांट यू ऑन द टॉप” जैसे इनोवेटिव नारे लगाया करते बौरा जाते थे. जाहिर है विपक्षी टीम के सपोर्ट में भी ऐसे ही पोशाकधारी बच्चे कुछ और नारे लगा रहे होते. कभी वे जीतते कभी हम.
अक्सर हमारे स्कूल बिड़ला विद्यामंदिर का मुकाबला सेंट जोसेफ से होता. हमारे गोलपोस्ट के पीछे बेचैन गोविंदा सर होते और भीड़भाड़ और होहल्ले के बावजूद टीम को लगातार नए मूव्स बताते रहते – “लेफ्ट से रोको. लेफ्ट से!” सेंट जोसेफ के बच्चों को ऐसे मूव्स बताने को आकर्षक देहयष्टि वाले, लम्बे कद के एक अंग्रेज टीचर होते थे. सफ़ेद पतलूनें और ब्लेजर पहने, छाते थामे ये दोनों टीचर मेरे हीरो होते थे. उन अंग्रेज टीचर की छवि दिमाग से कभी न गयी. बात में पता लगा उनका नाम मिस्टर पामर था.
स्कूल पूरा होने के बाद और कॉलेज और उसके भी बाद के सालों-दशकों में मिस्टर पामर को नैनीताल में बार-बार देखा. उनके सिखाये लड़कों से दोस्तियाँ हुईं और उनके किस्से सुने. कभी बात नहीं हुई. बात करने की हिम्मत नहीं होती थी. फ्लैट्स पर मैच ख़त्म हो जाने के बाद सफ़ेद पतलून-लाल ब्लेजर पहने, सफाई से तहाया गया बंद छाता थामे उन्हें बरसात में भीगी सेंट जोसेफ की चढ़ाई चढ़ते अनगिनत बार देखा – ठक, ठक!
कल देर रात एक दोस्त की वॉल पर पढ़ा – रेस्ट इन पीस मिस्टर मार्क पामर.
मिस्टर पामर से मेरा कभी कोई सीधा ताल्लुक नहीं रहा. मन कहता है उनसे एक बार तो हाथ मिलाना चाहिए था और आँखों में आँखें डालकर उनसे कहना चाहिए था – “आई अंडरस्टैंड योर सैडनेस मिस्टर पामर. दुनिया के हर स्पोर्ट्स टीचर की उदासी समझता हूँ सर. नाइस नोइंग यू!”
- गुडबाई मिस्टर पामर.
(जनाब मार्क पामर का जवानी का फोटो BRASS की वॉल से साभार)