विमल भाई
ग्लेशियर को सजा मिलनी ही चाहिए। कोई अगर उत्तर प्रदेश में इस ग्लेशियर के खिलाफ एफ आई आर करवा दे तो हमें उम्मीद है कि उत्तराखंड के नौनिहाल व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी तुरंत पर इस ग्लेशियर को गिरफ्तार करवा कर सजा दिलाएंगे। हां, यह ध्यान करना पड़ेगा कि वहाँ हजारों ग्लेशियर हैं। सही ग्लेशियर को पकड़ें। वैसे कोई बात नहीं जो भी फ़िलहाल पकड़ में आ जाए। बाकी के ग्लेशियर कम से कम खौफ तो खाएंगे।
इन्होंने उत्तराखंड के विकास को बहुत बड़ा धक्का पहुंचाया है, क्योंकि इन बांध परियोजनाओं के बनने के बाद जो पिछले 15 साल से बन ही बन रहीं हैं। बनते और टूटते हुए भी खूब विकास दे रही हैं। अब अगर मजदूर मारे गए हैं या गायब हुए हैं तो उससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। आखिर विकास के लिए किसी की बलि दी ही जाती है। और फिर देश व उत्तराखंड में ही अब तक हर बांध की सुरंगों में सैकड़ों मजदूर मारे गए हैं। कोई नई बात तो हुई नहीं है। गलती तो मज़दूरों की है कि उन्होंने बचाव की तैयारी क्यों नही रखी ? ये सरकार या कम्पनी की जिम्मेदारी तो है नहीं कि काम भी दो और मज़दूरों की सुरक्षा भी करो।
फिर यह बांध, बिजली और रिवेन्यू दे रहे हैं। मजदूर क्या दे रहे हैं ? उलटे सरकार को मुआवजा और देना पड़ता है। वो तो भला हो इन ठेकेदारों का कि सब मज़दूरों का पक्का रिकॉर्ड नहीं रखते। फिर क्यों चिंता की जाए। थोड़े से रुपए दे दिए जाएं। थोड़े आंसू बहा दिए जाएं। मीडिया पर बड़े-बड़े बयान दे दिए जाए। इससे ज्यादा बिचारी सरकार क्या-क्या करे ?
वैसे भी सरकार गम्भीर है और कह रही है कि अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाएंगे। इस पर काम काफी तेजी से चल रहा है। 2010, 2012 फिर 2013 की बड़ी आपदा के बाद से यह अर्ली अलार्म सिस्टम खोजा जा रहा है हमें पूरी उम्मीद है कि ये अवश्य खोज लिया जाएगा। कुछ एक आपदा और आने दो, इन्तजार तो करो।
तपोवन-विष्णुगाड बांध की सुरंग बनाने वाली 200 करोड़ की मशीन अटक जाती है। कभी उसका कॉफर बांध टूट जाता है, कभी कुछ हो जाता है कभी कुछ। कभी काम रुका क्या ? देखो, निर्माण लगातार चालू है। यानी ये विद्युत परियोजनाएं लगातार रोजगार दे रही हैं। लोग आते हैं, काम करते हैं, बाजार से सामान खरीदते हैं। तो सरकार को भी रिवेन्यू मिलता ही है। खासकर के शराब की बिक्री भी अच्छी खासी हो जाती है। हजारो मज़दूर जो काम करते हैं।
अभी जिस बात की सख्त जरूरत है कि बांध परियोजनाओं की सुरक्षा के लिए एक बड़ी परियोजना लाई जानी चाहिए जिसमें की अलकनंदा भागीरथी घाटी में जो भी तमाम बड़ी नदियां हैं उनके पीछे सीमेंट की एक काफी मोटी और ऊंची बड़ी दीवार बनाई जानी चाहिए, जिसका ठेका खास कर जेपी कंपनी जैसी कम्पनियों को दे दिया जाना चाहिए। उनका बनाया बांध 2013 की आपदा में भी पूरा नहीं टूटा था। साल भर में फिर बना लिया गया। कोई जांच वगैरह भी नहीं हुई। उनकी सेटिंग अच्छी है।
इस दीवार को आप अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति नमस्ते ट्रंप द्वारा घोषित मेक्सिको और अमेरिका के बीच प्रवासियों को रोकने की दीवार से ना जोड़ें। और न ही दिलों के बीच की दीवार से जोड़ें, जिसका आजकल प्रचलन चल गया है।बयह दीवार तो जो पहाड़ से अचानक से पानी बह करके आता है। उसको रोकने के लिए है। दरअसल यह नालायक ग्लेशियर टूट के आते हैं, कभी बादल फट जाते हैं। इन सब से बांध कंपनियों को बड़ा नुकसान होता है। उनको रोकने के लिए यह दीवार बननी ही चाहिए। ताकि परियोजनाएं सुरक्षित रह सकें।
क्योंकि तपोवन विष्णुघाट परियोजना 5 साल में बननी थी, 15 साल बीत गए। मदमहेश्वर, काली गंगा 1 व 2, मंदाकिनी पर फाटा-ब्योंग और सिंगोली-भटवाड़ी, अलकनंदा पर विष्णुप्रयाग बांध, फिर श्रीनगर बांध के काफर बांध भी कई बार टूटे।
इनके लिए जनता पर एक टैक्स लगाया जाना चाहिए, जैसे स्वच्छता व कृषि के लिए लगाया गया है। जिसका नाम “गॉड एक्ट टैक्स“ होना चाहिए। उसकी आमदनी से इन गरीब बांध कंपनियों के लिए एक कोष स्थापना की जाना चाहिए। ताकि आपदा के समय इनके नुकसान की भरपाई हो सके। ये बीमा से मिलने वाली रकम से अलग होना चाहिए। भरपाई के अलावा इसका कोई और काम मे खर्चा न हो। ये कोई विधायक व सांसद निधि, निर्भया फंड या वनीकरण फंड तो है नहीं कि खर्च करो या न करो या जैसा चाहे खर्च करो।
पर्यावरणवादी बहुत शोर मचा रहे हैं कि पेड़ कट गए। पहाड़ गिर रहे हैं। अब विकास के लिए सड़क तो चाहिए ही। रेलगाड़ी भी चाहिए। उत्तराखंड में ब्लॉक स्तर पर छात्रों के लिए छात्रावास की आवश्यकता नहीं है। मगर अच्छी सड़क और रेल गाड़ी होने से उनके रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और बचपन में ही बच्चे बाहर जाकर काम कर पाएंगे। उत्तराखंड का देश भर में विस्तार होगा। पलायन में भी आसानी होगी, आवागमन बढ़ेगा व आर्थिकी भी मजबूत होगी।
पेड़ो का कटना, पहाड़ो का टूटना, ग्लेशियर का गिरना बादल का फटना सब विकास को गति देता है। नए निर्माण होते हैं। नए ठेके खुलते हैं। नए रोजगार खुलते हैं। नए उदघाटन होते हैं। उसमे भी काम होता है। नेता जी और मंत्री जी की टीआरपी बढ़ती है। भाषण का मौका खुलता है। फिर ये सब होता ही रहता है। ऐसे ही विकास की गंगा बहती हैं। बार-बार ये गाना याद आता रहता है– राम तेरी गंगा मैली हो गई।
अंत मे कहूंगा कि कृपया सब अपनी भावना सम्भाल कर रखें कृपया आहत न हों। लेखक भी इससे सहमत नहीं। विकास हो! विकास हो!
विकास हो! किसी शर्त पर हो चाहे भाड़ में जाए हिमालय, भाड़ में जाये गंगा-पर्यावरण, भाड़ में जाये मज़दूर।
अरे मैं फिर बहक गया। ये फिर मैं क्या कह गया ? माफ कीजिये।