देवेश जोशी
डिप्लोमा इंजीनियरिंग के उस लड़के का सुनाया किस्सा मैं कभी नहीं भूल सकता। भूलने वाली बात है भी नहीं। रैगिंग का जिक्ऱ आते ही वो मुस्करा कर, सगर्व बताता कि मुझे तो फस्र्ट इयर में रैगिंग से कोई परेशानी नहीं हुई। उसी के शब्दों में – परिचय के बाद, सीनियर्स जैसे ही कहते कि क्या जानते हो तो मैं कहता -सर गाना। और जैसे ही गाना शुरू करने का इशारा मिलता मैं नज़र झुका कर गाना शुरू कर देता, घुघूती घुरूण लगी म्यरा मैत की, बौड़ि-बौड़ि ऐगे ऋतु, ऋतु चैत की……।
गाने के तीसरे अंतरे तक पहुँचते-पहुँचते मैं समझ जाता कि कमरे का मौसम भी बदल गया है। कभी कनखियों से, रूमाल से आँखें पोंछता, कोई सीनियर दिख भी जाता था। ज़ाहिर हो जाता कि मेरे मासूम चेहरे में सीनियर्स, दूर किसी पहाड़ी गाँव में रहने वाली अपनी उदास माँ-बहिनों का अक़्स देखने लग गए हैं। उसके बाद अगला वाक्य अक्सर यही सुनने को मिलता, भुला्! कभी भी कोई जरूरत-परेशानी हो तो बता देना। आदतन, मैं कहता जी सर तो फिर प्यारी-सी झिड़की मिलती, बड़े भाई हैं तेरे, सर-वर नहीं, समझे। मुँह से फिर निकल जाता, यस्सर…….तो कमरा ठहाकों से गूंजने लगता और रैगिंग का उस दिन का एपिसोड एक सुखद नोट पर समाप्त हो जाता।
गीत और लोकगीत के अंतर पर बहस अक्सर पढ़ने-सुनने को मिल जाती है और लोग तत्काल ही दो धड़ों में बँट भी जाते हैं। एक धड़े का मानना होता है कि लोकगीत किसी गीत को तभी माना जा सकता है जब उसका रचयिता अज्ञात हो। दूसरे धड़े का मानना होता है कि भले ही आज रचयिता अज्ञात हो पर कभी न कभी तो वो ज्ञात रहा ही होगा। और भले ही किसी लोकगीत के विकसित होने में एक से अधिक व्यक्तियों का योगदान क्यों न रहा हो पर किसी न किसी ने उसे रचने की पहल तो की ही होगी, किसी न किसी के कंठ से पहली बार वो बोल तो फूटे ही होंगे। मेरा मानना है कि लोकतत्व जिस भी गीत में हों वो किसी फतवे के बगैर भी लोकगीत बन जाता है। समाज, धड़ों की परवाह किए बगैर और विधाओं के विभेद की जानकारी के बिना भी उसे लोक-विरासत का हार्दिक सम्मानकरते हैं
उतराखण्ड के परिपेक्ष में, गीत और लोकगीत के अंतर और सादृश्य को समझने के लिए घुघूती घुरूण लगी म्यरा मैत की, बौड़ि-बौड़ि ऐगे ऋतु, ऋतु चैत की……से बेहतर दूसरा उदाहरण नहीं है। ये गीत भी है और लोकगीत भी। गीत की कलात्मकता और लोकगीत का शिल्प व तत्व। इस गीत के एलबम में आने की तिथि के बाद जन्मी बेटियों के लिए ये लोकगीत है। मैत का गीत। एक ऐसा गीत जिसमें शब्द-संयोजन भले ही नया हो पर कथ्य और धुन सदियों पुरानी परम्परा से सहेजा गया है।
चैत अर्थात फरवरी-मार्च परम्परा से पहाड़ी ब्याहताओं के मायके जाने का, मायके वालों से मिलने का महीना रहा है। बसंत ऋतु के चैत महीने में पहाड़ों की शोभा दर्शनीय होती है। चैत में ही तराई-भाबर से घुघुती (फाख़्ता पक्षी) पहाडों में लौट आती है और परिवेश को अपने उदासी भरे स्वर से गुंजायमान कर देती है। ऐसे में ब्याहताएँ अपने मायके की याद में आकुल हो जाती हैं।
तीन अंतराओं वाला घुघूती घुरूण लगी म्यरा मैत की, बौड़ि-बौड़ि ऐगे ऋतु, ऋतु चैत की….गीत, प्रख्यात उŸाराखण्डी कवि-गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी जी द्वारा लिखा गया है और उनके वर्ष 1991 में प्रकाशित गीत-संग्रह खुचकण्डि में भी सम्मिलित है। गीत मूल गढ़वाली रूप में यहाँ दिया जा रहा है। नयी पीढ़ी के उन युवाओं के लिए, मेरा अंग्रेज़़ी अनुवाद-प्रयास भी है, जिनका तकियाकलाम होता है कि जरा-जरा बींग पाते हैं…..यू नो वॅकैब्लरी प्राॅब्लम। मर्मस्थल को छूने वाले और लोकगीत की तरह समादृत इस गीत के रचयिता नरेन्द्र सिंह नेगीजी बताते हैं कि महिला-श्रोताओं की ओर से इस गीत को सुनाने की फरमाइश बहुत रहती है पर पुरुष-श्रोता भी सुनकर भावुक हो जाते हैं। प्रवासी महिला-पुरुषों के लिए तो मैत का अर्थ एक ही हो जाता है -अपने पहाड़ की प्यारी डांडी-कांठी।
घुघूती घुरूण लगी मेरा मैत की।
बौड़ी बौड़ी ऐगे रितू, रितू चैत की।।
डांडि कांठ्यूं को ह्यूऊं, गौळिग्ये होलू
मेरा मैता को बण, मौळिग्ये होलू
चखुला घोलू छोड़ी, उड़णा ह्वाला
बेटुला मैतुड़ाकू, पैटणा ह्वाला।
घुघूती…।।
डांड्यूं खिलणा होला, बुरांसी का फूल
पाख्यूं हैंसणी होली, फ्योंली मुलमूल
फुलारी फुुलपाती लेकी, देळ्यूं देळ्यूं जाला
दगड़्या भग्याल थड्या-चैंफुुळा लगाला।
घुघूती…।।
तिबारिमा बैठ्यां होला बाबाजी उदास
बाटु ह्येनी होली मांजी लगीं होली सास
कब मेरा मैती औजी दिसा भेंट आला
कब मेरा भै बैणोकी राजी खुसी ल्याला।
घुघूती…।।
Dove of my native place has begun cooing
Here returns the month of Chait1
Snow of mountains must have melted
Forest of my native place bloomed
Birds would be flying from nests
Daughters be leaving for native places.
Dove …
Burans2 would be blooming in hilltops
Phyonli3 smiling on mountainsides
Phulari4 would go door to door with flower-baskets
Lucky friends’d do Thadya5 Chaunfula6
Dove …
Father would be sitting depressed in Tibari7
Mother be waiting for me, longing
When’ll my native Auji8 come for Disha Bhent9
When would they bring welfare of my siblings.
Dove …
1. Chait : Name of a month (mid March to mid April)
2. Buransh : Rhododendron (Evergreen tree that flowers in
Spring season. State tree of Uttrakhand.
National flower of Nepal. State flower of West
Virginia and Washington )
3. Phyonli : Yellow flower that blossoms on the onset of spring
4. Phulari : Young kids who place flowers on the doorsteps of
households on the occasion of Phuldei festival.
5. Thadya : Folk dance of Garhwal
6. Chaunfula : Folk dance of Garhwal
7. Tibari : Verandah
8. Auji : Traditional drummers
9. Disha bhent : To visit the married girls of the village in their in-laws
Place by Aujis
युगल-स्वर में गाते हुए दिखायी-सुनायी देते हैं। ये दम्पति अपनी प्रशासनिक कुशलता के साथ-साथ सादगी के लिए भी प्रदेश में लोकप्रिय हैं। श्री अनिल रतूड़ी जी प्रदेश पुलिस महकमे के मुखिया अर्थात पुलिस महानिरीक्षक और श्रीमती राधा रतूड़ी जी अपर मुख्य सचिव के पद पर कार्यरत हैं। श्री रतूड़ी जी टिहरी जनपद के मूल निवासी हैं जबकि मैडम राधा रतूड़ी पहाड़ी मूल की न होने के बावजूद यहाँ की संस्कृति व बोली-भाषा पर अद्भुत पकड़ रखती हैं। हाल ही में बीइंग उतराखण्डी खण्डी फेसबुक पेज़ के लिए एक आनलाइन साक्षात्कार में रतूड़ी दम्पति ने युगल-स्वर में इस गीत की कुछ पंक्तियां सुनाकर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। बीइंग उतराखण्डी के लिए ये साक्षात्कार डाॅ. आशा नैथानी जी द्वारा लिया गया। इस साक्षात्कार में श्री अनिल रतूड़ी जी ने यह भी बताया कि उतराखण्ड राज्य गठन के बाद साल 2000 में, स्वेच्छा से उतराखण्ड विकल्प चुनने वाले तीन नौकराशाही में से वे भी एक थे।
और कैसे उतराखण्ड की कल्पना करी थी हमने। निश्चित रूप से ऐसे उतराखण्ड की जहाँ हमारी फरियाद हो या हमारे गीत, नौकरशाह, भाव और संप्रेष्य को ग्रहण करने में सक्षम हों। इसीलिए कहा कि एक लोकप्रिय गढ़वाली गीत को युगल-स्वर में गाते नौकरशाह-दम्पति को देखना-सुनना, उतराखण्ड राज्य गठन के बाद के सुंदरतम दृश्यों में से एक है। रतूड़ी-दम्पति गाने के लिए गीत-चयन के लिए भी तारीफ़ के हक़दार हैं। एक ऐसा गीत जो गीत और लोकगीत की सीमारेखा को मिटा देने वाले गीतों में ध्वजवाहक है। एक ऐसा गीत जो पहाड़ में कुछ ही महीने गुजारने वाले को भी नाॅस्टेलजिक बना देता है, खुद-नराई की गहराई में उतार कर पहाड़ की ऊँचाइयों पर चढ़ा देता है।