हिमांशु जोशी
महात्मा गांधी ने अपनी किताबों में किसी न किसी किताब का जिक्र जरूर करते थे। गांधी को महात्मा किताबों ने बनाया।
साल 1931 में ब्रिटिश पत्रिका ‘स्पैक्टर’ के संपादक एवेलिन रैंच को दिए एक इंटरव्यू में गांधी ने जॉन रस्किन की पुस्तक ‘अंटू दिस लास्ट’ का जिक्र करते हुए कहा था, ‘इस किताब ने मेरी अंतरात्मा को ही नहीं बदला, लेकिन बाहरी-जीवन में भी मैंने सकारात्मक परिवर्तन अनुभव किया। सच पूछो तो मेरी तमाम सोच को सर्वहारा या आमजन के प्रति स्थापित करने में ‘अंटू दिस लास्ट’ का ही कमाल है।’
ऐसे ही ‘अन्नाहार की हिमायत’ किताब पर महात्मा गांधी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि सॉल्ट की पुस्तक पढ़ी। मुझ पर उसकी अच्छी छाप पड़ी। इस पुस्तक को पढ़ने के दिन से मैं स्वेच्छापूर्वक, अन्नाहार में विश्वास करने लगा। माता के निकट की गयी प्रतिज्ञा अब मुझे आनन्द देने लगी और जिस तरह अब तक मैं यह मानता था कि सब माँसाहारी बने तो अच्छा हो और पहले केवल सत्य की रक्षा के लिए और बाद में प्रतिज्ञा-पालन के लिए ही मैं माँस-त्याग करता था। भविष्य में किसी दिन स्वयं आजादी से , प्रकट रुप में, माँस खाकर दूसरों को खानेवालों के दल में सम्मिलित करने की अमंग रखता था, इसी तरह अब स्वयं अन्नाहारी रहकर दूसरों को वैसा बनाने का लोभ मुझ में जागा।
टॉलस्टाय की किताब ‘द किंगडम ऑफ गॉड विदिन यू’ पर महात्मा गांधी ने लिखा कि इस पुस्तक ने मुझे अभिभूत कर दिया और इस पुस्तक की मुझ पर गहरी छाप पड़ी। भारतीयों में किताबों से दूरी का हाल यह है कि महात्मा गांधी पर सोशल मीडिया पर भ्रामक जानकारी पढ़, उन्हें कोसने वाले लोग भी गांधी को कभी पढ़े ही नही होते हैं। शायद इसलिए ही अल्बर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गांधी के बारे में कहा था कि “भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।”
आज देश का अधिकतर युवा अपना ज्यादा वक्त स्मार्टफोन पर गुजार रहा है। ‘एप एनी’ की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2021 में भारतीय स्मार्टफोन उपभोक्ताओं ने प्रतिदिन अपना लगभग 4.7 घंटे का वक्त मोबाइल फोन पर बिताया है और फोन पर सबसे ज्यादा वक्त बिताने वाले देशों में भारत का पांचवा स्थान है। कॉमर्स कंपनी फ्लिपकार्ट ने इस शुक्रवार को यह जानकारी दी कि आठ दिनों तक चलने वाले त्योहारी सीजन की बिक्री के दौरान प्रीमियम मोबाइल फोन की बिक्री में 70 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वहीं अगर हम फ्लिपकार्ट में बुकर प्राइज सम्मानित किताब रेत समाधि को सर्च करते हैं तो वहां दिखता है कि इसे पिछले तीस दिनों में मात्र 250 लोगों ने खरीदा है। इस स्थिति में पुस्तकालयों की संख्या बढ़ाने के साथ पढ़ने की संस्कृति को बढ़ावा देना जरूरी हो गया है।
मार्च 2018 में आए शोधपत्र ‘ए पॉलिसी रिव्यू ऑफ पब्लिक लाइब्रेरीज इन इंडिया’ में लिखा है कि इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ लाइब्रेरी एसोसिएशंस एंड इंस्टीट्यूशंस के मानकों के अनुसार प्रत्येक 3000 लोगों के लिए एक सार्वजनिक पुस्तकालय होना चाहिए। 1.21 अरब से अधिक जनसंख्या वाले हमारे देश को 4,03,333 से अधिक सार्वजनिक पुस्तकालय इकाइयों की आवश्यकता है, इसका मतलब यह है कि भारत के आठ से दस गांवों में एक भी सार्वजनिक पुस्तकालय नही है।
सरकारी कार्यालयों, सार्वजनिक स्थानों, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरिजाघर में अगर एक छोटा सा पुस्तकालय बना दिया जाए तो शिक्षा का प्रसार तेजी से हो सकता है। घूमने फिरने, जरूरी कार्यों और भक्ति के बीच भी लोग किताबों के प्रति आकर्षित हो सकते हैं. उत्तराखंड के चम्पावत जिले की पूर्णागिरि तहसील में एसडीएम हिमांशु कफल्टिया ने कोरोना काल के दौरान पुस्तकालय खोला था, यह पुस्तकालय अब भी देर रात तक खुले रहता है। क्षेत्रीय लोग इसके लिए किताबों का योगदान देते रहते हैं। ‘सिटीजन लाइब्रेरी मूवमेंट’ अभियान चला कर एसडीएम के प्रयास से तहसील कार्यालय के अलावा चम्पावत जिले के अन्य गांवों में भी पुस्तकालय खोले जा रहे हैं।
हम पुस्तकालयों की महत्वता देहरादून स्थित दून लाइब्रेरी एन्ड रिसर्च सेंटर की साल 2019-20 की वार्षिक रिपोर्ट के आंकड़ों से भी समझ सकते हैं। साल 2006-07 में लाइब्रेरी खुलने के बाद से साल 2019-20 तक इस पुस्कालय में पढ़कर 117 लोगों को रोज़गार प्राप्त हुआ। कोरोना काल में इस लाइब्रेरी के लगभग पच्चीस हजार सदस्य किताब पढ़ने से महरूम रहे थे लेकिन अब स्थिति सामान्य हो रही है।