देवेश जोशी
उत्तराखंड में जनसामान्य गुलदार (लेपर्ड) को बाघ के नाम से ही जानता है। बोलचाल, गीत, कथा व अखबारों में भी इसी नाम का प्रचलन है। सामान्यतया बाघ इंसानों पर हमला नहीं करते पर विभिन्न कारणों से जब वे आदमखोर बन जाते हैं तो इलाके के लिए एक बड़ी मुुसीबत बन जाते हैं। जिन बाघों की शिकार-कथाएँ इतिहास में दर्ज़ हैं उनमें पनार(कुमाऊँ) का बाघ सबसे खतरनाक माना जाता है जिसने 400 से अधिक इंसानों को अपना शिकार बनाया था। इस पर भी पनार के बाघ को वो प्रसिद्धि नहीं मिली जो रुद्रप्रयाग के बाघ को मिली थी। आनरिकाॅर्ड 125 इंसानों का शिकार इस बाघ के नाम है। इनमें वो शामिल नहीं हैं जिन्होंने इसके द्वारा घायल किए जाने के कारण अपना जीवन गंवाया था और वो भी नहीं हैं जिनकी खबर रिकाॅर्ड कीपर्स तक नहीं पहुँच पायी थी (बावजूद इसके कि इस बाघ के हर इंसानी शिकार की सूचना देने वाले को सरकार द्वारा बीस रुपया नगद ईनाम दिया जाता था)। पूरे 8 साल तक इस बाघ का आतंक रुद्रप्रयाग के चारों ओर 500 वर्ग किमी क्षेत्र में रहा।
अत्यधिक चालाक रुद्रप्रयाग-बाघ क्षेत्र में फ्वाँ बाघ के नाम से भी जाना जाने लगा था। ये फ्वाँ बाघ कभी भी दिन में शिकार नहीं करता था और न ही कभी अपने शिकार को खाने दुबारा उसी जगह लौटता था। एक जगह शिकार करने के बाद ये बाघ मीलों दूर चले जाता था। उस दौर में क्षेत्र में रुद्रप्रयाग तथा चटवापीपल (बदरीनाथ मार्ग पर रुद्रप्रयाग से 20 किमी दूर) में ही अलकनंदा नदी को पार करने के लिए पैदल पुल थे। इन दोनों पुुलों का इस कुख्यात बाघ ने अलकनंदा के दोनों ओर बसे गाँवों में शिकार करने व दहशत फैलाने में बखूबी उपयोग किया था। कुछ समय के लिए काॅर्बेट ने इन दोनों पुलों को रात में बंद भी कर दिया था ताकि बाघ की गतिविधियों को अलकनंदा के एक ही ओर सीमित रखा जाए। फ्वाँ बाघ की चतुुराई के कई किस्सों का ज़िम ने इस पर लिखी किताब में वर्णन किया है। ये चतुर बाघ इंसानों के साथ कुत्तों को भी चकमा देने में माहिर था। बाघ-तेंदुओं की घ्राणशक्ति हालांकि बहुत अच्छी नहीं मानी जाती फिर भी एक बार गुलाबराय चट्टी में ये एक पहाड़ी महिला को कमरे से उठा के ले गया जबकि उसके बाहर 50 यात्री खुले छप्पर के नीचे सोए हुए थे। ज़िम का मानना है कि ऐसा उसने पहाड़ी महिला की परिचित गंध के कारण किया था। यही नहीं एक बार ज़िम ने इस बाघ द्वारा मारे गए एक आदमी के शव में तीन जगह साइनाइड ज़हर रखा (अनिच्छा से सरकार के निर्देश पर) तो इस फ्वाँ बाघ ने उन तीन जगहों को छोड़कर शव का शेष हिस्सा खा लिया। एक गरीब अनाथ बालक किसी किसान की 40 बकरियों के साथ मकान के ग्राउण्ड फ्लोर में रहता था। इस चैदह वर्षीय बालक ने दरवाजे से दूर वाले किनारे की ओर अपने सोने के लिए बल्लियों की आड़-सी बनायी हुई थी ताकि बकरियां रात में उसके ऊपर न लेट जाएं। किसान शाम को बालक को खाना देने के बाद दरवाजे पर बाहर से सांकल चढ़ाकर एक मोटी लकड़ी को अड़ा कर लगा देता है। फ्वाँ बाघ ने एक रात दरवाजे से लकड़ी हटाकर, सांकल खोली और फिर चालीस बकरियों के ऊपर से गुजर कर बालक को उठा के ले गया।
आगे चलकर हर चालाक आदमखोर बाघ को फ्वाँ बाघ कहा जाने लगा। फ्वाँ बाघ नाम से बाघ के लोकगीत भी बन गए। क्षेत्र बदलने पर गीतों में शब्द व कथानक भी बदल जाता पर फ्वाँ बाघ रे सभी गीतों का हिस्सा होता था। पौड़ी-सतपुली-कोटद्वार मार्ग के बस स्टेशनों पर भरोसीलाल सूरदास ने सबसे पहले फ्वाँ बाघ रे गीत को लोकप्रिय बनाया। इसी गीत को आगे चलकर लोकगायक चंद्रसिंह राही ने आकाशवाणी व अपनी एलबम के लिए रिकाॅर्ड कराया। हाल ही में दिवंगत लोकगायक पप्पू कार्की और कल्पना चौहान के स्वर में भी ये गीत यूट्यूब पर धूम मचा रहा है। आदमखोर बाघ सम्बंधी एक और गढ़वाली लोकगीत के बोल कुुछ इस प्रकार थे – कनु रबदोड़ा मचायी तै निरभागी बागन, खुुनी बागन। सुुमा हे खडोण्या सुमा, डांडा न जा… लोकगीत भी बहुत लोकप्रिय है। इस गीत के अतिरिक्त नरेन्द्र सिंह नेगी ने बाघ पर एक स्वरचित गीत भी गाया है -बंदुक्या जसपाल राणा बाघ मार दे, मनस्वाग मार दे। आदमखोर बाघ को गढ़वाली में मनस्वाग या मनख्या बाघ बोला जाता है।
रुद्रप्रयाग के इस कुुख्यात फ्वाँ बाघ की रामकहानी बड़ी रोमांचक है जिसे मैनईटिंग लेपर्ड आफ रुद्रप्रयाग नाम की क़िताब के रूप में लिखकर प्रख्यात पर्यावरणप्रेमी-शिकारी ज़िम काॅर्बेट ने विश्वप्रसिद्ध कर दिया है। बीबीसी ने भी 2005 में इस बाघ की कथा पर मैनहंटर्स नाम की सीरिज़ के दो एपिसोड किए थे। 8 साल तक दिन-रात गतिविधियों पर नज़र रखते हुए काॅर्बेट 2 मई 1926 को इस बाघ को मारने में सफल हो सके थे। गुलाबराय नाम की जगह पर जहाँ ये बाघ मारा गया था, एक साइनबोर्ड अभी भी देखा जा सकता है। मारने के बाद जब इसको नापा गया तो इसकी लम्बाई 7 फीट 10 इंच थी। एक कैनाइन दाँत टूटा हआ था और पिछले पंजे का एक अँगूठा भी गायब था। ज़िम का मानना था कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान फैली महामारी (इंफ्लुएंज़ा बुखार) के दौरान लोग मस्त इंसानी शरीरों को बिना जलाए या दफनाए छोड़ देते थे जिन्हें खाने से ये जवानी में ही आदमखोर बन गया था।
इस बाघ के आतंक की गंभीरता इस तरह भी समझी जा सकती है कि ये ब्रिटिश हुकूमत के लिए भी सरदर्द बन गया था। बाकायदा गढ़वाल के डिप्टी कमिष्नर इब्बटसन के द्वारा अपने कारिंदों के जरिए इस बाघ की नियमित निगरानी की जाती थी और इसके शिकारों का लेखाजोखा भी रखा जाता था। इस बाघ के साथ एक रोचक तथ्य यह भी है कि भारत में वह पहला बाघ (तेंदुुुआ) था जिसे मारने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय समाचारपत्रों में विज्ञापन देकर शिकारियों को आमंत्रित किया था। विज्ञापन के बावजूद सिर्फ तीन ही शिकारियों ने रुचि दिखायी थी। सबसे खतरनाक ज़हर साइनाइड का भी प्रयोग इस बाघ को मारने के लिए किया गया। ये फ्वाँ बाघ साइनाइड को भी पचा गया। आठ साल के आतंक के बाद जब ये मारा गया तो ये पाया गया कि साइनाइड का इस पर बस इतना ही प्रभाव पड़ा था कि इसका चेहरा और जीभ काली हो गयी थी। इसकी ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक बार इसका पंजा पिंजरे में फँस गया था। लगभग डेढ़ कुंतल वज़न के पिंजरे को ये 500 मीटर तक खींच कर ले गया और अपना पंजा भी छुड़ा लिया। यह भी कि यह मानव-शिकार को जबड़े में पकड़ कर 500 मीटर तक बिना जमीन को छुआए ले जाने में सक्षम था। ज़िम काॅर्बेट ने खुद माना है कि ये बाघ ही वो जानवर था जिसे दुनिया में सर्वाधिक प्रचार मिला था। भारत के दैनिक व साप्ताहिक समाचार पत्रों के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, कीनिया, मलाया, हाॅंगकाॅग, आस्ट्रेलिया व न्यूज़ीलैण्ड की प्रेस में भी इस बाघ का खूब उल्लेख हुआ करता था। इसके साथ ही तत्समय प्रतिवर्ष देश के विभिन्न हिस्सों से बदरीनाथ-केदारनाथ की यात्रा पर आने वाले 60 हजार तीर्थयात्री भी अपने साथ इस बाघ के किस्से ले जाकर प्रचारित करते थे।
फ्वाँ बाघ गीत में एक पंक्ति में हवलदार साब, सुबदार साब, लप्टन साब, कप्टन साब आता है। इस पंक्ति में व्यंग्य तो निहित है ही कि एक से बढ़कर एक रैंक वाले फौजी अफसरों की बहुलता के बावजूद एक अदद बाघ के आतंक से निजात नहीं मिल रही है। इसके साथ ही ये ऐतिहासिक तथ्य भी है कि तत्समय ब्रिटिश सरकार द्वारा गढ़वाल क्षेत्र के सभी रैंक के फौजियों को छुट्टी पर घर जाते समय राइफल साथ ले जाने की भी विशेष अनुमति दी जाती थी।
इस फ्वाँ बाघ ने अपना पहला मानव शिकार बेंजी गाँव (बैकुंठलीन शंकराचार्य माधवाश्रम जी की जन्मस्थली) में 9 जून 1918 को तथा अंतिम मानव शिकार 14 अप्रैल 1926 को भैंस्वाड़ा गाँव में किया। सबसे अधिक शिकार जिन गाँवों से किए गए उनमें चोपड़ा में छः, कोठगी व रतूड़ा में पाँच-पाँच, बिजराकोट में चार, नाकोट, गंधारी, कोखण्डी, डडोली, क्वींठी, झिरमोली, गुलाबराय व लमेेरी में तीन-तीन। जिन गाँवों से दो शिकार किए गए वे हैं – बजणू, रामपुर, मैकोटी, छातोली, कोटी, मदोला, रौता, जग्गीकाण्डई, बावरौं, सारी, रानौ, पुनाड़, तिलणी, बौंठा, नगरासू व मवाणा। एक शिकार वाले गाँवों की तो लम्बी सूची है – आसों, पिल्लू, भौंसाल, मणगू, बेंजी, भटवाड़ी, खमोली, स्वांरी, फलासी, कांडा धारकोट, डांगी, गुनौं, भटगाँव, बावई, बरसिल, भैंसगाँव, नारी, सांदण, तमेण्ड, खत्याणा, स्युपुरी, सन, स्यूण्ड, कमेड़ा, दरम्वाड़ी, ढम्क, बेला, बेलाकुण्ड, सौड़, भैंसारी, बजणू, क्वीली, धारकोट, भैंगाँव, छिनका, ढुुंग, क्यूड़ी, बामणकाण्डई, पोख्टा, थपलगाँव, बणसू, नाग, बैसणी, रुद्रप्रयाग, ग्वाड़, कलणा, भुनका, कमेड़ा, सैल, पाबो व भैंस्वाड़ा।
रुद्रप्रयाग के फ्वाँ बाघ का प्रकोप 1921-1924 की अवधि में चरम पर रहा। इस दौरान इसने अपने कुुल 125 शिकारों का तीन चैथाई (75 प्रतिशत) अर्थात 93 शिकार किए (क्रमशः 23,24,26 व 20)। इनके अतिरिक्त आतंक के शुुुरुआती साल 1918 व 1919 में इसने क्रमशः 1 व 3 तथा आखिरी साल 1925 व 1926 में क्रमशः 8 व 14 शिकार किए।
इस फ्वाँ बाघ को मारने के पश्चात गढ़वाल में लोगों ने ज़िम काॅर्बेट को देवदूत के समान आदर-सम्मान दिया। 16 साल बाद मेरठ में एक दिन जब ज़िम द्वितीय विश्वयुद्ध के घायल सैनिकों के सम्मान में आयोजित एक कार्यक्रम में पहुँचे तो एक गढ़वाली सैनिक ने भावुक होकर उनसे कहा था -“जब आपने रुद्रप्रयाग का बाघ मारा था तो मेरे पिता भी बहुत दूर से चल कर बाघ और आपको देखने रुद्रप्रयाग पहुँचे थे। मैं तब बहुत छोटा था पर पिता मेेरे लिए भी रुद्रप्रयाग बाज़ार में खुशी में बाँटी गई मिठाई लाए थे। अब मैं भी गर्व से अपने पिता और इलाके के लोगों को बता सकूंगा कि मैंने रुद्रप्रयाग का बाघ मारने वाले ज़िम साहब को देखा है और उनसे बात भी की है।“
1918-1926 की अवधि रुद्रप्रयाग के बाघ के आतंककाल की शताब्दि अवधि भी है। इसी दौरान फ्वाँ बाघ गीत के नए कलेवर में लोकप्रिय होना एक तरह से ज़िम काॅर्बेट को उत्तराखंड की हृदयस्फूर्त श्रद्धांजलि ही है। लोकगायक पप्पू कार्की भी जाते-जाते एक अनमोल तोहफा दे गए हैं – फ्वाँ बाघ गीत के रूप में। फ्वाँ बाघ, जिसे स्थानीय लोग दुष्ट-आत्मा और दैवी प्रकोप समझ कर अपनी नियति मान चुके थे, से 14 अप्रैल 1926 को निज़ात दिलायी थी ज़िम काॅर्बेट ने। पूरे आठ साल के आतंक के बाद, अपनी विलक्षण निरीक्षणशक्ति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, स्थानीय भूगोल-समाज की समझ और अचूक निशाने के दम पर।
2 Comments
बटरोही
फ्वां बाघ पर यह आलेख अद्भुत है। सौ वर्ष बाद इसे लोक साहित्य के साथ जोड़कर देवेश जोशी ने उस समूचे परिवेश को दुबारा लौटा दिया है। इसके लिए जितना आभार व्यक्त किया जाए, कम है।
देवेश जोशी
आभार बटरोही सर।