अमित श्रीवास्तव
चलन के हिसाब से दूसरे छोर पर कुछ फौरी निष्कर्ष हैं जिन्हें सुनकर पानी के बुलबुलों के बराबर सुकून मिलता है. मैं इन बुलबुलों के पार देखने की कोशिश करता हूँ. आंखों में कोई चीज़ चुभती है. उंगलियों से टटोलकर निकालता हूँ. कुछ शब्द हैं जो जाने कितनी बार किस आवृत्ति से बार-बार गूंजते हैं.-
‘कोरोना जैसी कोई चीज़ है ही नहीं.’
‘कोरोना कुछ नहीं है बस सामान्य सर्दी-ज़ुखाम है.’
‘कोरोना कुछ लोगों का व्यापारिक षणयंत्र है.’
पता नहीं ये बुलबुले फूटेंगे या बर्फ की तरह ठोस साबित होंगे. धीरे-धीरे गलते हुए. हो सकता है कल ये खुलासा हो कि ये वायरस किसी देश, व्यक्ति या कम्पनी का उत्पाद है. हो सकता है कल ये भी खुलासा हो कि किसी कम्पनी ने वैक्सीन बना कर उसे बेचने के लिए ये वायरस फैलाया हो जैसा कि कम्प्यूटर की दुनिया में एंटी वायरस बनाने वाली कम्पनियों पर आरोप लगते रहे हैं और उन्हें झूठ समझने का भी कोई बहुत स्पष्ट कारण नहीं है.
हो सकता है कल संक्रमित, बीमार और मृत्यु के सारे आंकड़े इंफ्लेटेड, झूठे, ग़लत साबित हो जाएं. लेकिन…लेकिन आज मैं उन लोगों की आंखों के रास्ते इन बुलबुलों को देखना चाहता हूँ जिनके घरों के बाम पर इस साल दिवाली के चिराग़ नहीं जलेंगे. या उनकी आंखों से जिनकी आवाज़ किसी अंदरूनी डर से दिए की लौ की तरह कांप-कांप जाती है. आपके बहुत निकट परिवार में, पास-पड़ोस में, दोस्त-यार में ऐसी आँखे हैं-
उस आवाज़ में महीने भर की एक थकान थी. बोलने को वो पूरा वाक्य बोल रहा था लेकिन आख़िरी हिज्जे को सुनने के लिए मुझे अतिरिक्त श्रम करना पड़ रहा था.’ठीक हो रहे थे. निगेटिव आ गई थी रिपोर्ट लेकिन कल रात अचानक…’इस अचानक से एक सरसराहट सी अजीब आवाज़ हुई और लगा कि उसने अपनी बहन की माँग पोछ दी हो. उसने महीने भर से कैद कोई बूंद, गिरती हुई सांस पर रखकर निकाल दी थी. बुलबुला और अपारदर्शी होने लगा था.
वो बूढ़े हैं शरीर से. पिछले कई महीनों ने उनके कई सालों की रोजमर्रा के जीवन की ख़ास अदा, जिससे वो मन से जवान बने रहते हैं, तोड़ दी है. एक दोस्त के अचानक पॉज़िटिव होने की ख़बर बताते हैं मुझे. बताते-बताते रुक जाते हैं-
‘पिछले सन्डे दिल्ली ले गए फिर…’ फिर वो अचानक बात बदलना चाहते हैं ‘और सब…’ फिर अचानक दोस्त पर लौट आते हैं- ‘अरे ठाकुर साब को कुछ हुआ थोड़ी था, बस ज़रा सी हार्ट की प्रॉब्लम’ उनकी बात खत्म होते-होते वो थोड़े और बूढ़े हो जाते हैं. बुलबुला और अपारदर्शी होने लगता है.
उन्हें हॉस्पिटल से घर आए एक महीने से ज़्यादा हो चुका है. एक कमरे से दूसरे तक जाने में हाँफ जाते हैं, फोन पर देर तक बात नहीं कर पाते. पचास बरस की अपनी उम्र में अब तक पच्चीस से ज़्यादा बार हल्का-ज़्यादा जुखाम से संक्रमित तो हो ही चुके होंगे लेकिन इस बार महीने भर में खुद को साठ की उम्र का पा रहे हैं. बार- बार पूछते हैं- ‘क्या ये सामान्य सर्दी-ज़ुखाम के बाद के लक्षण कहे जा सकते हैं?’ बुलबुला और अपारदर्शी हो उठता है.
इस मरी हुई महाद्वीपीय धरती से सवा लाख से ज़्यादा लोग इस तथाकथित बीमारी से जा चुके हैं. जो हैं उनमें किसी न किसी दूसरी बीमारी के चिह्न आ रहे हैं. ‘अचानक’ इस बीमारी का सबसे ठोस और स्थाई व्यवहार बन चुका है.
अस्पताल किसी अंधेरी सुरंग में तब्दील हो चुके हैं. बीच में लटकते सरकारी आदेशों के कुछ भयावह मुखौटे हैं. मुखौटों से जनता का लापरवाह सामूहिक अट्टहास गूंज रहा है. अकेलेपन की टूटती सांसों को दूसरे छोर पर किसी रोशनी का इंतज़ार है. दूसरे छोर पर फिलहाल बर्फ के वही ठोस बुलबुले हैं जिनके भीतर नीयत और नियति के सारे अपराध कैद हैं, जो बाहर की तेज़ धूप से गलते नहीं दिखते, जो रात की आँखों में बेतरह चुभते हैं.
जानता हूँ कि ये उत्सवों का मौसम है. इस वक्त इन अंधेरों के बीच कोई तर्क, कोई आधार, किसी रोशनी का साफ अक्स ढूंढना अपने चेहरे पर अपने ही हाथों से खरोंचें उभार देने के सिवा कुछ भी नहीं. फिर भी कहना चाहता हूँ कि ये दिवाली अमावस का सघनतम अहसास दिलाने वाली है