योगेन्द्र यादव
जरा कल्पना कीजिए। अगर कहीं बच्चे जब सुबह अपने स्कूल में पहुंचे तो उन्हें पता लगे कि कल तक जो बच्चे पांचवीं कक्षा में थे अब वह चौथी में हो गए हैं, चौथी के बच्चे तीसरी में हो गए हैं। जो किताब पढ़ सकते थे, अब हकलाने लगे हैं, जिन्हें गणित आता था वह भूल गए हैं। मानो रातों रात पूरा स्कूल एक पायदान नीचे खिसक गया है।
सोचिए उस स्कूल, उन बच्चों, उस गांव के साथ क्या गुजरेगी। यह कोई साइंस फिक्शन की कोरी कल्पना नहीं है। यह हकीकत है। किसी एक स्कूल की नहीं, पूरे एक देश की हकीकत है। किसी दूरदराज देश की नहीं, अपने भारत की कहानी है। किसी अतीत काल की नहीं, पिछले 4 साल की दुखदाई कहानी है यह। पिछले हफ्ते एक गैर सरकारी संस्था प्रथम द्वारा जारी हुई ‘असर’ नामक सर्वे की वर्ष 2022 की रपट इसी दुखदाई कहानी को बयान करती है। असर यानी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट पिछले 17 वर्ष से ग्रामीण इलाकों के बच्चों की शैक्षणिक योग्यता को मापने का एक प्रमाणिक औजार बन गया है।
इस सर्वे में बच्चों की स्कूल में परीक्षा लेने की बजाय उनके घर जाकर उनसे भाषा और गणित के बिल्कुल साधारण से सवाल पूछे जाते हैं। उनकी ही पाठ्य पुस्तक का एक साधारण सा पैरा पढ़वाया जाता है। गणित में जोड़ घटाव भाग के बिल्कुल साधारण सवाल करवाए जाते हैं।
इस साल असर की रिपोर्ट का मुझे बेसब्री से इंतजार था। वैसे तो 2005 से हर साल और 2014 के बाद हर दूसरे साल यह रिपोर्ट आ रही थी। लेकिन 2018 के बाद यह सिलसिला रुक गया था। कोविड महामारी के चलते स्कूल भी बंद हो गए और असर सर्वे भी नहीं किया जा सका। इसलिए 2022 की रिपोर्ट पिछले 4 साल में ग्रामीण बच्चों की शिक्षा में आई रुकावट का दस्तावेज बन गया है। देश के 616 जिलों में 19 हजार गांव के 7 लाख बच्चों के सर्व पर आधारित यह रिपोर्ट पहली बार कोविड महामारी के चलते स्कूल बंद होने के शिक्षा पर पड़े असर को दर्ज करती है।
खबर अच्छी नहीं है। असर 2018 की रिपोर्ट बताती थी कि कक्षा 5 में पढऩे वाले बच्चों में से सिर्फ 51 प्रतिशत ही कक्षा 2 की साधारण पुस्तक का सरल सा पैरा भी पढ़ पाते थे। यह राष्ट्रीय शर्म का विषय था। अब 2022 की रिपोर्ट बताती है कि यह आंकड़ा गिरकर सिर्फ 43 प्रतिशत रह गया है। यानी कि प्राइमरी स्कूल पास करने वाले 10 बच्चों में से 6 बच्चे अपने से तीन दर्जे नीचे की किताब का साधारण सा पैरा भी पढ़ नहीं सकते।
असर के ही पुराने सर्वेक्षणों से तुलना करें तो पता लगता है कि एक ही झटके में हम वर्ष 2012 के स्तर पर वापस पहुंच गए हैं। एक क्लास नहीं, एक स्कूल नहीं, एक गांव नहीं, बल्कि पूरा देश शिक्षा में एक पायदान नीचे उतर गया है। यह कहानी अलग अलग स्तर पर दोहराई गई है। कक्षा 3 के जो बच्चे कक्षा दो की पुस्तक पढ़ सकते थे उनकी संख्या 2018 में 27 प्रतिशत थी जो अब 2022 में घटकर 21 प्रतिशत रह गई है कक्षा 3 के जो बच्चे घटा वाले सवाल और कक्षा 5 के जो बच्चे भाग दे सकते थे उन दोनों की संख्या 28 प्रतिशत से घटकर 26 प्रतिशत रह गई है। शिक्षा में यह गिरावट सिर्फ गरीब राज्यों में नहीं हुई है।
यह झटका केरल, हिमाचल और हरियाणा जैसे राज्यों में भी लगा है जहां शिक्षा की अवस्था बेहतर थी। यह गिरावट सभी तरह के बच्चों में रिकॉर्ड की गई, चाहे वो सरकारी स्कूल में पढ़ रहे थे, चाहे प्राइवेट में। मतलब कि कोविड महामारी के दौरान हमारे ग्रामीण बच्चों की शिक्षा व्यवस्था तहस नहस हो गई।
ऐसा नहीं है कि मां-बाप या बच्चों की रुचि शिक्षा में घट गई हो। यही सर्वे इस तथ्य को भी रिकॉर्ड करता है कि इसी चार साल के दौरान स्कूलों में दाखिल होने वाले ग्रामीण बच्चों की संख्या 17.2 प्रतिशत से बढ़कर 18.4 प्रतिशत हो गई है। लड़कियों का दाखिला भी पहले से बढ़ा है। स्कूल ही नहीं, आंगनवाड़ी में दर्ज होने वाले बच्चों की संख्या 57 प्रतिशत से छलांग लगाकर 67 प्रतिशत हो गई है। तीन वर्ष की आयु वाले 78 प्रतिशत बच्चे किसी-किसी नर्सरी स्कूल में जा रहे हैं।
मतलब कि शिक्षा की भूख लगातार बढ़ रही है। लेकिन शिक्षा के अवसर में गिरावट आ रही है। इस सर्वे ने पहली बार एक ऐतिहासिक प्रक्रिया में उलटफेर दर्ज किया। पिछले बहुत समय से सरकारी स्कूलों में बच्चों की तादाद घट रही थी। जिसके लिए संभव था वह प्राइवेट स्कूल में जा रहा था।
लेकिन पहली बार 2018 से 2022 के बीच प्राइवेट स्कूल में जाने वाले ग्रामीण बच्चों की संख्या 35 प्रतिशत से घटकर 27 प्रतिशत रह गई। ऐसा सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बेहतर होने के कारण नहीं हुआ। बल्कि इसका सीधा कारण था कोविड बीमारी के दौरान मां-बाप की आॢथक अवस्था में गिरावट। महामारी के दौरान जब स्कूल बंद हो गए और अधिकांश लोगों की आमदनी को धक्का लगा तो बड़ी संख्या में मां-बाप ने अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल से हटाकर उनका सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दिया।
ग्रामीण भारत में शिक्षा की लगातार बढ़ती भूख, प्राइवेट स्कूलों की बढ़ती फीस लेकिन आम जनता के घटते साधन और सरकारी स्कूलों की लगातार गिरती अवस्था के चलते शिक्षा की गुणवत्ता में दर्ज की गई यह गिरावट एक बड़े राष्ट्रीय संकट की ओर इशारा करती है। अगले 5 वर्ष तक देश की स्कूली शिक्षा का एकमात्र मिशन होना चाहिए कि वह इस धक्के की भरपाई करें और ग्रामीण और शहरी गरीबों की एक पूरी पीढ़ी को इस नुक्सान से उबारें। नहीं तो यह झटका एक स्थाई त्रासदी में बदल सकता है।
फोटो इंटरनेट से साभार