दिनेश कर्नाटक
हिमालय चिंतन-मनन के लिए अतीत से ही भारतीय मनीशा को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। जीवन-जगत के सवालों के उत्तर तलाशने के लिए चिंतनशील लोग यहां आते रहे, जिसका प्रभाव स्थानीय लोगों पर पड़ता रहा। उत्तराखंड में शिक्षा के प्रति जागरूकता प्राचीन काल से रही है। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भी यहां शिक्षा का अपना स्थानीय स्वरूप मौजूद था। आधुनिक स्कूली शिक्षा का आरंभ अंग्रेजों के आगमन से हुआ। उत्तराखंड के दोनों हिस्सों कुमाऊं व गढ़वाल में शिक्षा की शुरूआत साथ-साथ हुई। 1840 में अंग्रेजों ने श्रीनगर गढवाल में स्कूल स्थापित किया तथा 1841 में शिक्षा विभाग की शुरूआत हुई। 1844 में अल्मोड़ा में मिशन स्कूल खुला, जो 1871 में रामजे कालेज बना। 1920 में कुमाऊं क्षेत्र में आये नारायण स्वामी ने 1931 में रामगढ़ तथा 1936 में सुदूरवर्ती धारचूला में आश्रम व बाद में नारायण नगर डीडीहाट में इंटर कालेज सहित कई प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की। शिक्षा के प्रति जागरूकता ही कही जायेगी कि हिन्दी क्षेत्र के एक छोर में होने के बावजूद हिन्दी के पहले डी. लिट. होने का सौभाग्य इसी क्षेत्र के डॉ0 पीतांबर दत्त बड़थवाल को मिला। शिक्षा के प्रति लोगों में भरोसा इस कदर है कि पहाड़ के छोटे-छोटे कस्बों में मातायें अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए किराये के कमरे लेकर रहती हैं। आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों चाहे वह शिक्षा, स्वास्थ्य, सेना, साहित्य, कला, संगीत के साथ ही विज्ञान, तकनीकी, आईटी आदि जैसे क्षेत्र क्यों न हों; सभी जगह उत्तराखंड के लोगों की ठीक-ठाक उपस्थिति नजर आती है।
उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे अपनी सांस्कृतिक पहचान के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य तथा रोजगार के मुद्दे प्रमुखता से थे। वर्तमान में उत्तराखंड के 13 जनपदों में 12816 सरकारी प्राथमिक विद्यालय, 3908 जूनियर विद्यालय तथा 2331 माध्यमिक विद्यालय हैं। कुल सरकारी विद्यालयों की संख्या 19055 है। इसमें प्राथमिक विद्यालय 62 प्रतिशत, जूनियर 19 प्रतिशत तथा माध्यमिक 11 प्रतिशत हैं। प्राथमिक, जूनियर तथा माध्यमिक के सर्वाधिक विद्यालय क्रमशः 1707, 448 व 309 पौड़ी जनपद में हैं, जबकि न्यूनतम विद्यालय चंपावत जनपद में 516 व 163 तथा बागेश्वर जनपद में 94 हैं। उत्तराखंड के शिक्षा विभाग में कार्यरत शिक्षक-शिक्षिकाओं की संख्या 55573 है। वर्ष 1991 में उत्तराखंड की साक्षरता दर 57.27 थी, जो 2001 की जनगणना में 72.28 हो गई। इसमें पुरूषों की साक्षरता दर 84.01 तथा महिलाओं की 60.26 थी। वर्तमान में उत्तराखंड की साक्षरता दर 78.82 है, जिसमें पुरूषों की साक्षरता दर 87.40 तथा महिलाओं की 70.01 है। पिछले बीस वर्षों में महिलाओं की साक्षरता दर में करीब 10 प्रतिशत की वृद्वि उल्लेखनीय है। सर्व शिक्षा अभियान के द्वारा प्रत्येक 1 किमी के दायरे में प्राथमिक विद्यालय व 2 से 3 किमी के दायरे में जूनियर विद्यालय की स्थापना तथा राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के द्वारा 5 किमी की परिधि में हाईस्क्ूल तथा 7 से 10 किमी की परिधि में इंटरमीडिएट की स्थापना की योजना के चलते भी राज्य में स्कूली शिक्षा का काफी विस्तार हुआ।
राज्य में विद्यालयी शिक्षा के अतिरिक्त सीबीएसई के 496 विद्यालय हैं। इनमें राज्य के 95 ब्लाकों के 189 अटल उत्कृष्ट विद्यालय भी जुड़ गये हैं। यानी उत्तराखंड बोर्ड के 189 माध्यमिक विद्यालय कम हो गये हैं। आईसीएसई बोर्ड के 91, 297 मदरसे, महर्षि विद्या मंदिर के 21 तथा विद्या भारती के सैकड़ों की संख्या में सरस्वती शिशु व विद्या मंदिर हैं।
एक ओर बड़ी संख्या में नये-नये स्कूल खुलते गये दूसरी ओर विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात के नये नियमों के तहत अधिकांष प्राथमिक विद्यालय एक या दो शिक्षक-शिक्षिकाओं के हवाले होते गये। हाईस्कूल व इंटरमीडिएट कालेजों में भी शिक्षण्ेत्तर कार्मिकों के पदों में कटौती होने के कारण मानवीय संसाधनों के लिहाज से सरकारी विद्यालय निजी विद्यालयों के सामने अपनी चमक खोने लगे। परिणामस्वरूप कम छात्र संख्या के कारण सैकड़ों की संख्या में प्राथमिक व जूनियर स्कूल बंद होते जा रहे हैं। निजी विद्यालयों से प्रतिस्पर्द्धा में बने रहने के लिए पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार द्वारा प्रत्येक ब्लाक में कुछ स्कूलों को मॉडल स्कूल बनाने की योजना लागू की गई, जबकि वर्तमान सरकार अटल उत्कृष्ट के रूप में प्रत्येक ब्लाक के दो इंटर कालेजों को सीबीएसई बोर्ड के तहत अंग्रेजी माध्यम बनाने की दिशा में कार्य कर रही है। ग्रामीण क्षेत्र के वंचित वर्ग के बच्चों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा देने की दिशा में केन्द्र सरकार के जवाहर नवोदय, राज्य सरकार द्वारा संचालित राजीव गांधी तथा श्यामाप्रसाद मुखर्जी नवोदय विद्यालय तथा बालिका शिक्षा के क्षेत्र में कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय महत्वपूर्ण पहल है।
तकनीकी शिक्षा की बात करें तो राज्य गठन के बाद कई नये आईटीआई खोले गये। इस समय राज्य में कुल 176 सरकारी आईटीआई हैं, जिनमें से सक्रिय स्थिति में 148 हैं। 56 किराये के भवनों में चल रहे हैं। 43 पीपीपी मोड में चलाये जा रहे हैं, जबकि 28 पूरी तरह से निष्क्रिय हैं। इनमें से 19 के विलय की खबर है। राज्य में 37 पुराने पॉलिटेक्नीक कालेज थे, जिनकी संख्या वर्तमान में 71 हो चुकी है। 30 प्राइवेट पॉलिटेक्नीक कालेज हैं। संसाधनों व शिक्षकों के अभाव में 71 में से 20 कालेजों के बंद होने की नौबत आ गई है। राज्य में इंजीनियरिंग कालेजों की बात करें तो 59 प्राइवेट तथा 13 सरकारी कालेजों को मिलाकर कुल 72 कालेज हैं। इनमें से 38 अच्छे कालेजों की श्रेणी में आते हैं। आईआईटी रूड़की, एनआईटी पौड़ी, जी बी पंत पंतनगर, टीएचडीसी आदि अच्छे संस्थानों में गिने जाते हैं। उच्च शिक्षा की बात करें तो राज्य गठन से पूर्व जहां राज्य में 6 विवि थे। आज कुल 33 विवि हैं। इसमें 01 केन्द्रीय विवि, 11 राज्य विवि, 03 डीम्ड विवि, 18 निजी विवि 03 राष्ट्रीय महत्व के संस्थान हैं। 105 राजकीय महाविद्यालय हैं, जिनमें 01 लाख से अधिक विद्यार्थी पढ़ते हैं।
आंकड़ों की दृष्टि से राज्य के शिक्षा परिदृश्य पर नजर डालने पर यह बड़ा ही आकर्षक तथा समृद्ध प्रतीत होता है। लेकिन सवाल उठना स्वाभाविक है कि शिक्षा का यह पूरा ढांचा अपने चरित्र में समावेशी है ? क्या आम लोगों के बच्चों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा मिल पा रही है ? स्कूली शिक्षा की बात करें तो वह निरंतर संसाधनों की कमी से जूझता हुआ दिखाई देता है। 26 अगस्त को विधान सभा में पूछे गये सवाल के अनुसार राज्य के 2298 इंटर कॉलेजों में से 1496 में स्थायी प्रधानाचार्य नहीं हैं। हेडमास्टर के 912 पदों में 416 खाली हैं। इधर इन्हें भरने की कवायद शुरू हुई है। मूल बात यह है कि स्कूली शिक्षा हो या तकनीकी शिक्षा या उच्च शिक्षा सभी में बाजारीकरण हावी होता जा रहा है। व्यापार व प्रचार की पैंतरेबाजी अपनाकर निजी शिक्षा संस्थान सरकारी शिक्षा संस्थानों को निरंतर बदनाम करने में लगे रहते हैं। मगर यह भी सच है कि एक बहुत बड़ी आबादी के लिए सरकारी शिक्षा संस्थान ही शिक्षा पाने का जरिया हैं। इनका कमजोर पड़ना या बंद होना आम लोगों को शिक्षा से वंचित ही करेगा। बाजारीकरण के रास्ते पर चलते हुए शिक्षा व्यवस्था सहयोग तथा जनकल्याण के मूल्य पैदा करने के बजाय प्रतिस्पर्द्धा तथा प्रतियोगिता का भाव पैदा कर रही है। शिक्षा की यह दिशाहीनता अंततः समाज व राज्य की दिशाहीनता बन जाती है।
राज्य के प्रत्येक ब्लाक में अटल उत्कृष्ट के रूप में वंचित वर्ग के बच्चों को अंग्रेजी माध्यम तथा सीबीएसई बोर्ड देने की कवायद हो रही है। यह जवाहर, राजीव नवोदय तथा कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय की दिशा में एक और कदम है। इन विद्यालयों में रिक्त पदों को भरा जा रहा है। प्राथमिक शिक्षा हिन्दी माध्यम से ले चुके बच्चों के लिए एकाएक अंग्रेजी माध्यम को अपनाना आसान नहीं होगा, इसलिए विभाग कक्षा 9 व 11 के बच्चों के लिए दोनों माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने का विकल्प दे रहा है। अटल उत्कृष्ट विद्यालयों की स्थापना एक प्रकार से निजी विद्यालयों की प्रतियोगिता में पिछड़ते जा रहे सरकारी विद्यालयों को पुनर्स्थापित करने की कोशिश है। इसके साथ ही एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि क्या सरकारी शिक्षा का संकट अंग्रेजी माध्यम अथवा परीक्षा बोर्ड है या संसाधनों की पूर्णता ? हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि उत्तराखंड ही नहीं पूरे देश की आबादी में एक बड़ा प्रतिशत ऐसे लोगों का है, जो अपनी परिवेशीय भाषा में सहज होते हैं। माध्यम भाषा की यह दुविधा आगे जाकर क्या रूप लेती है, यह अटल उत्कृष्ट विद्यालयों के अनुभव से स्पष्ट होगा।
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Devesh gangwar
अत्यंत सारगर्भित उत्कृष्ट लेख पढ़कर मन आह्लादित हुआ धन्यवाद श्रीमान