‘‘सदानीरा अलकनंदा की तरल तरंगों ने राग और स्वर देकर, उत्तुंग देवदारु के विटपों ने सुगंधिमय स्वाभिमान देकर और हिमवन्त की सौंदर्यमयी प्रकृति ने अनुभूतियां प्रदान कर गोविन्द चातक की तरुणार्इ का संस्कार किया है। इसलिये चातक प्रकृत कवि, कोमल भावों के उपासक, लोक जीवनके गायक और शब्द शिल्पी बने हुये हैं।’’
(सम्मेलन पत्रिकाः लोक संस्कृति अंक)
वे अपने आप में एक पहाड़ थे। लोक साहित्य और लोकभाषा के। लोक विधाओं के मर्मज्ञ। एक तरह से पहाड़ की लोकभाषा और साहित्य से निकलने वाले हर स्वर हर शंब्द के पहरेदार। संग्रहकर्ता। उन्होंने गढ़वाली लोकभाषा और लोक साहित्य पर जिस तरह का कार्य किया है, वह अद्भुत है। कभी न भुला सकने वाला। जब भी लोक विधाओं की बात होगी उनके जिक्र के बिना अधूरी रहेगी। गढ़वाल की लोकविधाओं के संरक्षण और प्रचार-प्रसार में ही उन्होंने अपना जीवन लगा दिया। एक गहन अध्येता, संवेदनशील लेखक, प्रतिबद्ध श्िाक्षक, कुशल नाटककार, गूढ़ भाषाविद, प्रबुद्ध आलोचक, लोक विधाओं के शोधकर्ता के रूप में उनका योगदान हमेशा याद किया जायेगा। गढ़वाली भाषा और साहित्य के एक ज्ञानकोश के रूप में हम सब उन्हें जानते हैं। गढ़वाली लोक विधाओं के हर रूप को उन्होंने आम लोगों तक पहुंचाया। उसे विस्तार दिया। लोक के चितेरे डाॅ. गोविन्द चातक जी की आज पुण्यतिथि है। हम उन्हें कृतज्ञातापूर्ण श्रद्धांजलि देते हैं। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से हमारे बीच में हमेशा रहेंगे। प्रकाशपुंज की तरह।
गढ़वाली लोक विधाओं पर जब भी बात होती है, डाॅ. गोविन्द चातक का नाम अपने आप आ जाता है। वे बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उनका जन्म टिहरी गढ़वााल के सरकासैंणी, पट्टी लौत्सु (बढि़यारगढ)़ में 19 दिसंबर, 1933 में हुआ। उनके पिता अध्यापक थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुर्इ। आगे की पढ़ार्इ के लिये वे मसूरी चले गये। यहां घनानंद हार्इस्कूल में पढ़ते उनकी प्रतिभा निखरने लगी। उनके जीवन में नया मोड़ भी आ गया। उस समय वहां हिन्दी के अध्यापक शंभुप्रसाद बहुगुणा थे। शंभुप्रसाद बहुगुणा को हम इस रूप में भी जानते हैं कि वे चन्द्रकुंवर बत्र्वाल की कविताओं को प्रकाश में लाये। यह वह दौर था जब पूरे देश में आजादी की लड़ार्इ में युवा बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। गोविन्द चातक के क्षेत्र राजशाही के खिलाफ प्रजामंडल का आंदोलन चल रहा था। उनकी पट्टी बडयारगढ़ की इसमें प्रमुख भूमिका थी। श्रीदेव सुमन को राजशाही जेल में डाल चुकी थी। ऐसे समय में उन्हें एक नर्इ तरह की सामजिक चेतना और अपने क्षेत्र में राजशाही के दमन के खिलाफ हो रहे आंदोलन को नये सिरे से समझने का मौका मिल रहा था। उस समय टिहरी से बाहर रह रहे लोग भी संगठन बनाकर प्रजामंडल का साथ दे रहे थे। उन्होंने भी मसूरी में ‘विद्यालय विद्यार्थी संघ’ बनाया। इसके माध्यम से वे प्रजामंडल आंदोलन का सहयोग भी करने लगे। एक तरह से यह उनकी सामाजिक दीक्षा और समाजिक संरचना को समझने का पड़ाव था।
यहीं ‘गढ़वाली साहित्य कुटीर संस्था’, ‘अंगारा’ और ‘रैबार’ पत्रिका के प्रकाशन में डाॅ. गोविन्द चातक की महत्वपूर्ण भूमिका रही। छोटी उम्र में ही उनकी कवितायें और कहानियां प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीे। सामाजिक भेदभाव और जाति-पात को न मानने वाले गोविन्द कंडारी यहीं से गोविन्द चातक बने।
उन दिनों उच्च शिक्षा के लिये पहाड़ के छात्रों का ठिकाना इलाहाबाद होता था। यहां उन्हें अपनी प्रतिभा को आगे बढ़ाने का अवसर मिला। अपनी रचनात्मकता के लिये खुला आकाश भी मिला। उस दौर में इलाहाबाद ज्ञान पिपासुओं के लिये सबसे उर्बरा जमीन थी। हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार और विद्वान इलाहाबाद में थे। यहां के वातावरण में उनके अंदर का साहित्ियक बीज स्फुटित होकर एक आकार लेने लगा। उन्होंने इलाहाबाद विश्वद्यिालय से हिन्दी में एमए किया।
मसूरी में रहते उन्हें जौनपुर इलाके की संस्कृति ने बहुत प्रभावित किया। बाद में महापंडित राहुल सांकृत्यान के संपर्क में आये। उनके सुझाव पर उन्होंने ‘रंवाल्टी लोकगीत और उसमें अभिव्यक्त लोक संस्कृति’ विषय पर आगरा विश्वविद्याल से पीएचडी की उपाधि ली। शुरुआती दौर में उनका रुझान सामाजिक असमानता को दूर करने और जनता के सवालों को सामाजिक-राजनीतिक कार्यों से जुड़कर करने का था, लेकिन बहुत जल्दी ही उन्होंने लोक-संस्कृति पर काम करने को ही अपना ध्येय बना लिया। उन्होंने लोक संस्कृति पर काम ऐसे समय पर शुरू किया जब लोक विधाओं पर बहुत कम काम हुआ था। उस दौर में लोक कलाकारों और लोकधर्मियों को भी समाज में उस तरह का सम्मान नहीं मिलता था। उन्होंने दो मोर्चों पर यह काम किया। पहला लोक साहित्य के प्रमाणिक संकलन और दूसरा लोकधर्मियों को उनकी विधा के प्रति रुचि जगाना।
लोक साहित्य पर उनके अनुराग को इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने बहुत कम उम्र में 1954 में पहला संकलन ‘गढ़वाली लोकगीत’ प्रकाशित किया। इसकी भूमिका महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखी। इसके बाद तो वे लगातार लोक विधाओं के संरक्षण एवं विकास में लग गये। इस बीच चातक जी ने 1960 से लेकर 1964 तक आकाशवाणी दिल्ली में नाट्य निर्देशक एवं गढ़वाली लोक संगीत के समन्वयक के रूप में कार्य किया। इसके बाद में अध्यापन क्षेत्र में आ गये। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कालेज में हिन्दी प्रवक्ता पद पर चले गये और रीडर पद से अवकाश लिया। यहां उन्हें पढ़ने-लिखने का वातावरण मिला। उन्होंने पुस्तकों का लेखन प्रारंभ किया।
डाॅ. गोविन्द्र चातक ने हिमालय को पूरी संवेदना के साथ देखा है। उन्हें लोक जीवन का संस्कार भी प्रकृति ने ही दिया। उन्होंने पहाड़ के गांवों के जीवन को बहुत नजदीक से देखा। उससे निकलने वाली लोक धुनों को आत्मसात किया। वे लोकगीतों को इकट्ठा करने के लिये गांव-गांव घूमे। उन्हें धरातल पर देखा-सुना और समझा। उन्होंने गांव के लोगों के बीच में रहकर लोक के मर्म को गहरे तक समझा भी। बचपन में उन्हें गांव में लोकगीत, लोकगाथाओं और लोकथाओं को सुनने का अवसर मिला। वहीं से लोक के प्रति उनका लगाव और विधाओं के प्रति समझ आगे बढ़ी। यही उनके लेखन में प्रतिबिंबित होता है। जहां एक ओर उन्होंने लोक में बिखरे गीत, कथाओं और गाथाओं का संकलन किया वहीं गांव के जीवन से जो उन्होंने अनुभव किया उस पर बहुत सारी कहानियां भी लिखीं।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनके बारे में लिखा- ‘गढ़वाली लोकगीत पुस्तक एक भावुक तरुण कवि का अपनी मातृभूमि के मधुरतम लोकगीतों के संचयन के सत्प्रयत्न का फल है। कितनी ही लोक भाषाओं में संग्रह का काम होने लगा है। यह बड़े ही आश्चर्य की बात है कि गढ़वाल का तरुण चुपचाप बैठा रहता है। यह और भी प्रसन्नता की बात है कि इस काम में गोविन्द चातक जैसे तरुण कवि ने हाथ लगाया है। उन्हीं के जैसे सहृदय साहित्यकार वस्तुतः लोक भारती के सौंदर्य पारखी हो सकते हैं।’ (गढ़वाली लोकगीत पुस्तक की भूमिका में)
डाॅ. गोविन्द् चातक का रचना संसार बहुत बड़ा है। उस पर कभी फिर बातचीत। फिलहाल उनकी अलग-अलग विषयों पर लिखी पुस्तकों पर एक नजर-
लोक विधायें
1. गढ़वाली लोकगीत
2. गढ़वाली लोकगाथायें
3. गढ़वाली लोककथायें
4. आकाशदानी दे पानी
5. गढ़वाली लोकगीतः एक सांस्कृतिक अध्ययन
6. मध्य पहाड़ी भाषा शास्त्राीय अध्ययन
7. भारतीय लोकसंस्कृति का का संदर्भः मध्य हिमालय
8. मध्य पहाड़ी की भाषिक परंपरा और हिन्दी
9. संस्कृतिः संमस्यायें एवं संभावनायें
10. पर्यावरण और संस्कृति का संकट
11. पर्यावरण परंपरा और अपसंस्कृति
नाटक
1. केकड़े
2. काला मुंह
3. दूर का आकाश
4. बांसुरी बजती रही
5. अंधेरी रात का सफर
6. अपने-अपने खूंटे
कहानी संग्रह
1. लड़की और पेड़
नाट्यालोचना
1. प्रसाद के नाटकः स्वरूप और संरचना
2. प्रसाद के नाटकः सर्जनात्मक धरातल और भाष्िाक चेतना
3. नाटककार जगदीश चंद्र माथुर
4. आधुनिक हिन्दी नाटक का मसीहाः मोहन राकेश
5. रंगमंचः कला और दृष्टि
6. नाट्य भाषा
7. आधुनिक हिन्दी नाटकः भाषिक और संवाद संरचना
8. नाटक की साहित्यिक संरचना
पुरस्कार एवं सम्मान
1. हिन्दी अकादमी दिल्ली से ‘देर का आकाश’ नाटक पुरस्कृत
2. साहित्य कला परिषद द्वारा ‘बांसुरी बजती रहे’ के लिये सर्वश्रेष्ठ नाट्यकृति का पुरस्कार
3. हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा ‘बांसुरी बजती रहे’ को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार
4. हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा रामनरेश त्रिपाठी सम्मान
5. पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा पुरस्कृत
6. देहरादून का सुप्रसिद्ध जयश्री सम्मान
7. साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिये उमेश डोभाल सम्मान