राजीव लोचन साह
देश में हड़तालों का दौर शुरू हो गया है। चार महीने से राजधानी दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे किसानों के आन्दोलन का अभी कोई समाधान नहीं निकला है, बावजूद इस तथ्य के कि इस दौरान लगभग तीन सौ आन्दोलनकारी शहीद हो गये हैं। विवश होकर अब इन किसानों को पाँच राज्यों, जहाँ विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, में केन्द्र में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोलना पड़ा है।
इस बीच सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के दस लाख अधिकारी और कर्मचारी दो दिन की हड़ताल पर चले गये हैं। यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स के झण्डे तले एकत्र नौ ट्रेड यूनियनों के इन कर्मचारियों का आरोप है कि एन.डी.ए. सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अपने कॉरपोरेट दोस्तों को बेच डालने में जुटी हुई है। पिछले दिनों केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने बजट पेश करते हुए कहा था कि सरकार आगामी वित्त वर्ष में भारतीय जीवन बीमा निगम और सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के हिस्से को निजी क्षेत्र को बेचने जा रही है। बैंककर्मियों में इस निर्णय से आक्रोश है। सरकार आई.डी.बी.आई. बैंक को पहले ही बेच चुकी है और पिछले चार साल में 14 बैंको का विलय कर उनका अस्तित्व समाप्त कर चुकी है। बैंक संगठनों का आरोप है कि इस तरह के फैसले लेने से पहले सरकार कभी भी उनकी राय नहीं लेती। उन्होंने धमकी दी है कि यदि सरकार ने अपना इरादा नहीं बदला तो वे आन्दोलन को और तेज करेंगे। किसान संगठनों की भाँति बैंक यूनियनों का भी मानना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को इस तरह से बेचने का असली नुकसान देश के सामान्य नागरिक को ही होगा।
बैंकों की इतनी बड़ी हड़ताल एक महत्वपूर्ण परिघटना है। बीस-पच्चीस साल पहले की बात होती तो ऐसी हड़ताल से पूरा देश हिल गया होता। मगर िंनजी क्षेत्र के बैंकों के हड़ताल से विरत रहने और ए.टी.एम. तथा नेट बैंकिंग चालू रहने के कारण इस हड़ताल ने जनजीवन को उस ज्यादा प्रभावित नहीं किया। किसान अपने आन्दोलन से जन सामान्य को यह बता पाये हैं कि प्राइवेट मंडियों के आने से सरकारी मंडियाँ स्वतः नष्ट हो जायेंगी, फिर फूड कॉरपोरेशन के गोदाम भी निजी हाथों में चले जायेंगे और अन्ततः अनाज की सार्वजनिक वितरण प्रणाली ध्वस्त हो जायेगी। मगर बैंक यूनियनें इस हड़ताल के बावजूद देश के सामान्य नागरिक का विश्वास नहीं जीत पायी हैं।
मजदूरों में भी नये श्रम कानूनों को लेकर जबर्दस्त गुस्सा है। मगर वे बड़ा आन्दोलन इसलिये नहीं कर पा रहें हैं, क्योंकि पूरे देश के स्तर पर वे इतनी अच्छी तरह संगठित नहीं है। सरकार इन नये कानूनों को पाँच राज्यों में चुनाव के बाद लागू करने की सोच रही है, ताकि मजदूरों का गुस्सा चुनाव में उसे भारी न पड़े। पिछले दो साल में पारित ये चार कानून केन्द्र और राज्यों में अब तक लागू लगभग सौ कानूनों का स्थान लेंगे। मजदूर संगठनों का कहना है कि इनके लागू होने से देश एक बार फिर अंग्रेजों की गुलामी के दौर में चला जायेगा।