राजीव लोचन साह
अठारहवीं लोकसभा का चुनाव एकदम सामने है। जून पहले सप्ताह में देश को एक नयी सरकार मिल जायेगी। 400 सीटें जीतने का दावा करने वाले नरेन्द्र दामोदर मोदी तीसरी बार सत्तारूढ़ होते हैं या लोकतंत्र खत्म होने की फिक्र में दुबला हो रहा इंडिया गठबंधन उन्हें सत्ताच्युत कर सकेगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। मगर कुछ खासी चिन्ताजनक घटनायें इस बीच घटी हैं। सरकार द्वारा 2017 में लायी गई चुनावी बांड योजना को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किये जाने और अनिच्छुक भारतीय स्टेट बैंक को विवश कर उससे इन बांडों की सारी सूचनायें सार्वजनिक करवाये जाने के बाद जो जानकारी सामने आयी है, वह खौफनाक है। यह साबित हुआ है अनेक कम्पनियों ने इनफोर्समेंट डायरेक्टरेट या इन्कम टैक्स विभाग द्वारा छापेमारी के बाद या तो सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को करोड़ों का चन्दा दिया है या सत्ताधारी दल को भारी भरकम चन्दा देने के बाद उन्हें अरबों रुपये के ठेके मिले हैं। यानी कार्रवाही सरकारी एजेंसियों की और मालमत्ता सत्ताधारी दल को। किसी विकसित लोकतंत्र में इस घटना से सरकार का पतन हो गया होता। उधर चुनाव की आचार संहिता लागू हो जाने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बैंक खातों को आयकर विभाग द्वारा एक पुराने मामले में फ्रीज किये जाने की घटनायें भी बेहद चिन्ताजनक हैं। यानी सत्ताधारी दल तो पूरी शक्ति और संसाधनों के साथ चुनाव में उतरेगा और उसका मुकाबला करने वाले राजनैतिक दल कमजोर और दयनीय अवस्था में होंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि अनेक राजनैतिक विश्लेषक भारतीय लोकतंत्र की तुलना रूस या उत्तरी कोरिया से करने लगे हैं, जहाँ दिखलाने के लिये चुनाव तो होते हैं, मगर उनका कुछ अर्थ नहीं होता। मगर यह चिन्ता नरेन्द्र मोदी के उस बहुत बड़े वोट बैंक को भी हो रही होगी, जो उन्हें भगवान विष्णु का अवतार मानता है, ऐसा नहीं लगता।