विनोद पांडे
उत्तराखण्ड के सन् 2002 में बने अधमरे से भूमि कानून को 2018 में भाजपा की सरकार ने नये जनविरोधी कानून से निरर्थक बना देने के बाद यह मुद्दा 2021 यानी चुनावी साल की पूर्व संध्या पर अचानक कैसे उठने लगा है इस पर मन में सवाल तो उठते ही हैं। फिर भी यह बात गले नहीं उतरती कि जब भारत के सभी पहाड़ी राज्यों में मूल निवासियों के भूमि अधिकारों के लिए संवैधानिक अधिकार हैं तो आखिर क्यों इस अप्रभावी जैसे कानून को मजबूत करने के बजाय समाप्त कर दिया गया? इसी सवाल की उधेड़बुन में मुझे अपने गांव के कुछ लोगों के साथ बात करने का अवसर मिला तो मेरे मन में नये सवाल पैदा होने से मेरे विचार और उलझ गये।
हमारा गांव बौरारो की सुरम्य घाटी में बसे होने के बाद भी पलायन के कारण लगभग उजाड़ हो गया है। हल्द्वानी अधिकांश लोगों की शरणस्थली बन चुकी है। अब किसी के गांव बिरादरी के सुख दुख के समय हल्द्वानी में सभी से मुलाकात हो ही जाती है। मैंने ऐसे ही एक अवसर पर कुछ दिनों पहले अपने बिरादरों से पिछले कुछ दिनों से वैबिनार और स्थानीय पत्रों के माध्यम से अर्जित ज्ञान के आधार पर भू कानून के पक्ष में तर्क रखने शुरू किये, ताकि उनकी प्रतिक्रिया को जान सकूं।
मेरे गांव में मोटर रोड भी है, इंटर तक स्कूल भी और 3 किमी दूर सोमेश्वर में तथाकथित डिग्री कॉलेज और अस्पताल भी है। दिन भर सैकड़ों वाहनों की आवाजाही है, गांव में दशकों से घर-घर बिजली पानी है, सिंचिंत भूमि है, जंगल भी है और तहसील भी, पर्यटन के विश्व प्रसिद्ध स्थल कौसानी भी करीब 10 किमी0 दूर है और सोमेश्वर और चौड़ा में पुरातत्व महत्व के दो मंदिर भी है और शराब की दुकानें भी हैं। काठगोदान रेलवे स्टेशन से आराम से 5 घंटे में पहुंचा जा सकता है, यानी सभी कुछ है जिसे विकास कहा जाता है और पर्यटन की आधारभूत संरचना कहा जाता है। इसके बाबजूद भी संपन्न लोग पलायन कर चुके हैं और अधिकांश वंचित लोग ही गांव में बच गये हैं। उन्हें भी कभी मौका मिले तो वे निश्चित रूप से हल्द्वानी का रूख करेंगे।
मैंने जब अपनी बात कहनी शुरू की कि किस तरह सरकार उत्तराखण्ड के निवासियों के जमीन संबधी अधिकार को छीन रही है। तो इस पर सबसे पहले नयी पीढ़ी के युवक सचिन ने सीधा जबाब दिया कि क्या आपकी जमीन जबरदस्ती छीनी जा रही है? यह तो आपकी मर्जी पर ही होगा कि आप चाहे तो बेचें या न बेचें। उसने मुझे फिर पूछा कि आपने बहुत पहले गांव छोड़ दिया है, तो क्या नया कानून आपको घर लौटने से रोकता है? और क्या मैं अपने गांव में आज किसी की जमीन को आज खरीदना चाहूंगा? ये दोनों ही प्रश्नों की काट मेरे पास नहीं थी। उसने फिर कहा कि अगर कोई बाहर वाला आकर हमारी जमीनों का अच्छा दाम देना चाहता है तो मैं उसे बेच कर क्यों नहीं बाहर जाकर कुछ कारोबार करूं, पढ़ाई लिखाई करूं? अगर आप अपनी जमीन किसी बाहर वाले को बेच दें तो वह आपके घर तक सरकारी रोड बनवा देगा, आपका घर सबसे उपर है आपके घर तक रोड आने का मतलब है कि पूरे गांव में रोड घूम जायेगी। बांकी लोगों की भी जमीनों के दाम बढ़ जायेंगे। पिछले 15 सालों से अधिकांश लोग हमारे गांव से बाहर हैं, जो बचे हैं वे “होम स्टे” की तरह सब कुछ बाहर से खरीद कर दिन काट रहे हैं। अधिकांश समय बाहर रहते हैं कभी कभी गांव आ रहे हैं। ग्रामीण जीवन जैसा कुछ बचा नहीं है।
उसकी बातों की हां में हां मिलाने की तर्ज पर मेरे हम उम्र रमेश ने कहा पहले गांव के जंगलों में सुतर पात मिल जाता था अब चीड़ ही चीड़ है, जमीन पर उगने वाली घास को कालाबांसा खतम कर चुका है। जिस गाड़ से साल भर घट चलते थे वे अब साल में 2-3 महीने सूखी रहने लगी है। जानवर पालना भी मुश्किल हो गया है। बाघ आये दिन गुर्राता रहता है। सुअर रात में तो दिन में बंदर कुछ उगने नहीं दे रहे हैं। पहले जो तमाम जगहों को केएमओ और रोडवेज की गाड़ियां मिल जाती थी, उन्हें जीपों और निजी कार-मोटरसाइकिलों ने खदेड़ दिया है। जीपें बदल-बदल कर आने जाने की व्यवस्था से जीवन कष्टकारी हो गया है। अस्पताल और स्कूल केवल कर्मचारियों को तनख्वाह बांटने के केन्द्र बन गये हैं। जनता के लिए कुछ नहीं है, आखिर क्या करें वहां रह कर? कोई मर गया तो फिक्र होती है कि घाट कैसे ले जायें। आखिर गांव क्या रहने लायक बचा है?
ये प्रश्न दरअसल हर गांव के हैं। पहाड़ों के गांव सुविधाहीन बन चुके हैं। पलायन का असर ये है कि अब काम के लिए मजदूर नहीं मिलते हैं। बचे खुचे लोग राजनीतिक दलों के लिए केवल वोट हैं। इसलिए हलाके की एक एमएलए हर किसी के शादी विवाह और दुख में पैसों से सहायता कर अपने वोट पक्के करती है। अधिकांश लोग 6 हजार सालाना की किसान सम्मान निधि से प्रसन्न हैं। इसी तरह बचे खुचे लोगों को पेट भरने के लिए राशन भी मिल रहा है। इस सबसे उसके दिन तो कट जा रहे हैं पर गांव और इलाके की सम्पन्नता बढ़ने के बजाय घट रही है। आत्मनिर्भरता की जगह सरकार पर निर्भरता ने ले ली है। इससे उत्पादकता बढ़ने के बजाय घट रही है। गांवों में रहना “अस्मिता” नहीं बल्कि मजबूरी बन चुकी है, जिससे मौका मिलते ही निवासी हल्द्वानी जैसी जगहों पर भाग खड़े होते हैं।
तो क्या ये भू-कानून जिसने सोशल मीडिया और आंदोलनकारियों को हिला रखा है का जमीन पर असर नहीं है? ये मुद्दा सन् 2018 का होने के बाद अचानक क्यों चुनावी साल में क्यों उठ खड़ा हुआ है? कहीं ये अन्ना आंदोलन की तरह मीडिया का उपजाया तो नहीं है, जिसने हमने अपनी अस्मिता का प्रश्न समझ कर भावनाआें में बह कर अपना लिया? कहीं बहुत सोच विचार कर जनता का बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार से ध्यान भटकाने के लिए तो नहीं पैदा किया गया है? जब पिछले कई चुनावों में स्थानीय मुद्दे दबे रहते हैं और अचानक अच्छे दिन आयेंगे, नोटबंदी और बालाकोट हावी हो जाते हैं तो इस चुनाव में स्थानीय मुद्दा कोई बदलाव आयेगा?
पहाड़ में जमीनों के दाम दो तरह से आंके जा रहे हैं, जो जमीनें पर्यटन के आधार पर या आबोहवा के आधार पर कोई महत्व रखती हैं या मुख्य शहरों के पास हैं, उनका अच्छा दाम है। जैसे नैनीताल, रामगढ़, रामनगर, कौसानी और शहरों के आसपास की जमीनें आदि। बांकी पहाड़ की जमीनां की कीमत बहुत कम है। यानी जहां आजीविका और रोजगार के अवसर कम हैं यानी जिन जमीनों की खेती, पशुपालन या औद्यानिकी की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है। वहां जमीनों की कोई कीमत नहीं है। रोड बनने से केवल निजी वाहन रख सकने वाले लोगों की संपर्कता बढ़ती है जबकि निजी वाहनों से जन यातायात घट जाता है और आम लोगों की संपर्कता घट जाती है। सरकारी रोडें वहीं ज्यादा बनती हैं जहां का व्यापारिक महत्व है। इसलिए जरूरी है कि पहले उन मुद्दों को पहचाना जाय जिससे गांव के जमीनों का महत्व बढ़े और आम आदमी उसे अगली पीढ़ियों तक गहनों की तरह संभाल कर रखने वाली संपत्ति के रूप में समझे न कि एक मजबूरी। उस हालत में बिना किसी भू कानून के भी बाहर वालों के लिए पहाड़ों की जमीनें खरीदना आसान नहीं होगा।
हमें यह समझना होगा कि भले ही वैबिनारों और सोशल मीडिया को भू कानून आंदोलन कितना ही प्रिय क्यां न लगे इसे पहाड़ों की जनता का वैसा समर्थन नहीं मिल रहा है। बेशक अपनी जमीनों को बचाने के लिए कानून की जरूरत है पर अनुसूचित जाति, जनजातियों के लिए बहुत कड़े नियम होने के बाद भी उनकी जमीनें दूसरे तरीकों से बिकती रहीं हैं। ये तरीका यहां भी विकसित हो चुका है ऐसे कई इलाके हैं जहां पर डेढ़ नाली जमीन के साथ 5-10 नाली जमीन एग्रीमेंट पर बिक जा रही है। इसी तरह बेनाप जो गांव समाज की संजायती जमीन थी और जिसे वन भूमि मान लिया गया है, कब्जे के आधार पर बिक रही हैं। कानून असरदार तभी होगा जब जमीन का महत्व उसमें सुविधाऐं और रोजगार के अवसर बढ़ने के होगा अन्यथा जिस संपत्ति को उसका मालिक त्याज्य समझ रहा हो उसे कानून भी शायद ही बचा पाये।