देवेश जोशी
आज़ादी के बाद पाकिस्तान से उजड़ कर जिन्होंने भारत को अपना ठिकाना बनाया उनमें एक नाम प्रख्यात कवयित्री अमृता प्रीतम का भी है। लाहौर से उजड़ी, देहरादून में पनाह ली। लाहौर भी उसे दिलो-जान से प्यारा था। विभाजन के समय के दंगों के दौर में लेखक बलवंत गार्गी ने पूछा कि लाहौर छोड़ के कहाँ जाने का मन है तो अमृता ने कहा था, मैं लाहौर छोड़ कर नहीं जाऊंगी। लाहौर के साथ मेरी बहुत-सी यादें जुड़ी हैं। यहां की गलियों के मोड़, अनारकली, रावी, लाॅरेंस बाग़ से मुझे प्यार है। लाहौर छोड़ कर मैं नहीं जाऊंगी।
देहरादून में रहते हुए ही नौकरी की तलाश में दिल्ली गयीं। और लौटते हुए ट्रेन के सफ़र में अपनी प्रसिद्ध कविता लिखी – अज्ज अक्खां वारिस शाह नूं……………..। अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता ने इस घटना का जिक्ऱ विस्तार से किया है।
गाड़ी के बाहर घोर अंधेरा, समय के इतिहास के समान था। हवा इस तरह सांय-सांय कर रही थी, जैसे इतिहास के पहलू में बैठकर रो रही हो। बाहर ऊँचे-ऊँचे पेड़ दुःखों की तरह उगे हुए थे। कई जगह पेड़ नहीं होते थे, केवल एक वीरानी होती थी, और इस वीरानी के टीले ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे टीले नहीं कबें हों।
वारिस शाह की पंक्तियां मेरे जेहन में घूम रही थीं – भला मोए ते बिछड़े कौन मेले…….। और मुझे लगा, वारिस शाह कितना बड़ा कवि था, वह हीर के दुःख को गा सका। आज पंजाब की एक बेटी नहीं, लाखों बेटियां रो रही हैं। आज इनके दुःख को कौन गाएगा? और मुझे वारिस शाह के सिवाय और कोई ऐसा नहीं लगा, जिसे संबोधन करके मैं यह बात करती।
उस रात चलती हुई गाड़ी में हिलते और कांपते कलम से एक कविता लिखी –
अज्ज आक्खां वारिस शाह नूं किते क़बरा बिच्चों बोल
ते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वरका खोल….।
इक्क रोई सी धी पंजाब दी, तू लिख लिख मारे बैन
अज्ज लक्खां धीयां रोन्दियां, तैनूं वारिस शाह नूं कहन
उठ दर्दमंदां दिय दर्दिया! उठ तक्क अपणा पंजाब
अज्ज बेले लाशां बिच्छियां ते लहू दी भरी चिनाब……..।
इस कविता ने अमृता प्रीतम को भारत और पाकिस्तान दोनों ही मुल्कों में मशहूर कर दिया था। यूरोप और एशिया के दूसरे देशों में भी उनकी इस कविता के चाहने वाले लाखों हो गए थे। कहा जाता था कि पंजाब की पहचान बन चुकी इस कविता ने बिना पासपोर्ट और वीज़ा के कई देशों की यात्रा की।
इस कविता और प्रसंग को जब मैंने पढ़ा तो आज़ादी के दौर के विभाजन की कोई तस्वीर मेरे मन में नहीं उभरी। क्योंकि वो पढ़ी हुई दास्तान थी। मेरे दिमाग में उभरी वो तस्वीर जो हमने भोगी थी। अपनी आँखों देखी, कानों सुनी थी। और वो तस्वीर थी 2 अक्टूबर 1994 के मुज्ज़फरनगर काण्ड की। स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक बदनुमा दाग़ की। मुझे लगा कि जैसे ये कविता अमृता प्रीतम ने उत्तराखण्ड की बेटियों के साथ हुए इस शर्मनाक हादसे से विचलित होकर ही लिखी हो। यह भी संयोग है कि जिस इलाके में ये हादसा हुआ उसी इलाके से गुजरते हुए अमृता ने ये कविता लिखी थी। आज भी मुझे लगता है कि उत्तराखण्ड ने चाहे जितने भी बड़े कवि-गीतकार पैदा किए हों पर इस महत्वपूर्ण विषय को एक ऐसी रचना में ढालने में कोई भी सफल नहीं रहा है जिसकी गूँज प्रदेश की सीमाओं से बाहर भी सुनी जा सके। ऐसा भी कह सकते हैं कि किसी भी कवि-गीतकार को इस घटना ने उस हद तक उद्वेलित किया ही नहीं जैसा अमृता प्रीतम को बंटवारे के दर्द में बहू-बेटियों के दर्द ने किया था। इसी प्रसंग में अमृता प्रीतम की इस प्रसिद्ध कविता का गढ़वाली अनुवाद करने की कोशिश की है।
आज बोदू वारिस शाह तू कबर बटि अपणी कुछ बोल
माया की पोथड़ी कू तू क्वी पत्तर नयु-नयू खोल
इक धियाण र्वे पंजाबै त्वैन लम्बी लेखि दास्तान
आज रोंदी उत्तराखण्डै धवाड़ी लगैक तेरा थान
दुखियार्यों का हे दगड़्या! देख दौंयख हाल क्या
लिख्वाड़ा लाश बिछीं छन अर चिथड़ा धियाण्यूं का….।
छिद्रान्वेषियों ने इस कविता पर ये भी आपत्ति की कि वारिस शाह को क्यों संबोधित किया गया है। गुरू नानकदेव को भी तो संबोेधित किया जा सकता था। हालांकि आपत्ति का जवाब भी कविता में ही छुपा है। बात उत्तराखण्ड की करें तो संबोधित किसे किया जा सकता है। राजुला-मालूशाही या फ्योंली के लोकगाथाकार को। पर इनका नाम अज्ञात है तो अनुवाद में भी वारिस शाह ही रखा है। इसे पढ़ते हुए मन में राजुला-मालूशाही और फ्योंली की लोकगाथा को तैरना चाहिए।
1947 में जब अमृता प्रीतम ने ये कविता लिखी थी देहरादून को लौटते हुए तो ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा कि 47 साल बाद इसी राज्य की बेटियों के साथ भी कुछ वैसा ही हादसा हो जाएगा। और जिसके लिए प्रदेशवासी दशकों तक न्याय की प्रतीक्षा करते रहेंगे। 2 अक्टूबर 1994 को घटित रामपुर तिराहा (मुजफ्फरनगर)काण्ड उत्तराखण्ड के लिए एक दुःस्वप्न है और मानवता के दामन पर बदनुमा दाग़। जो आँसू और खून वहाँ गिरा था उसका कर्ज़ अभी बाकी है। पृथक राज्य-प्राप्ति उसकी क्षतिपूर्ति नहीं है। राज्य आंदोलनकारी धियाणियों के लिए न्याय प्राप्त कर ही हमारी देवियां दैणी होंगी और दुनिया को अहिसां का मंत्र देने वाले बापू महात्मा गाँधी की आत्मा को भी सच्ची शांति मिलेगी।