विजेन्द्र रावत
हिमालय में पैदा होने वाली फसलों के बारे में जानना हो तो टिहरी के हेंवल घाटी में स्थित ‘बीज बचाओ आन्दोलन’ के छोटे से कार्यालय में जरूर जाएं। जहां आपको जायकेदार पहाड़ी राजमा की एक दो नहीं, बल्कि 170 किस्में दिखाई देंगी। वहीं धान की दर्जनभर किस्में तथा पहाड़ी दालों की भी कई किस्में मिल जाएंगी।
हिमालय के परम्परागत अनाजों के बीजों को बचाने के इस अभियान में जुटे हैं टिहरी जिले के जड़धार गांव के विजय जड़धारी। वे अपने परम्परागत फसलों को बचाने के लिऐ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व सरकारी गठजोड़ के सामने हिमालय की तरह डटे हुए हैं। शुरूआत में उनके अभियान का मजाक उड़ाने वाले कृषि वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग अब उनके अभियान को समर्थन देने लगा है। उनका मानना है कि जड़धारी का बीज बचाओ अभियान हिमालय की खेती व फसलों की समृद्ध परम्परा को बचाने का एक मात्र रास्ता है। राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने खेतों में हाइब्रिड बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशकों की बौछार से न सिर्फ जल और जमीन को जहरीला बना दिया है बल्कि यह असर खान पान द्वारा आदमी की नसों में अपना कुप्रभाव डालने लगा है।
हरित क्रांति के सिरमौर माने जाने वाले पंजाब राज्य द्वारा रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोगों से वहां के आदमियों के स्वास्थ्य पर इतना ज्यादा कुप्रभाव पड़ रहा है कि गांव के गांव कैंसर की चपेट में आ रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाइब्रिड बीज, खाद और कीटनाशक अब पहाड़ों की चढ़ाई भी नापने लगे हैं। यह हाइब्रिड बीज अब हमारे परम्परागत फसलों को खेती से बाहर करने लगे हैं। यहां पहले किसान बीजों के लिए अपने कोठारों में जाते थे अब वे बीज कम्पनियों की दुकानों के बाहर कतार लगाये दिखाई देने लगे हैं। ऐसे में हेंवली घाटी के विजय जड़घारी ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ अपना पूरा जीवन अपनी परम्परागत फसलों के बीजों को बचाने में लगा दिया है।
उन्होने अपने खेतों को प्रयोगशाला बनाकर अपने परम्परागत बीजों को संरक्षित रखने का कार्य किया है। वे राजमा की एक दो नहीं बल्कि 170 किस्में बिना रासायनिक खादों व कीटनाशकों के प्रयोग से पैदा कर चुके हैं। उनका बीज बचाओ आन्दोलन उन पहाड़ी परम्परागत फसलों के बीजों को बचाने के लिए समर्पित है, जो पहाड़ों में पेट भरने के अलावा दवा के रूप में भी प्रयोग किए जाते थे। जैसे चीणा और मठ्ठा का भोजन लिवर की खतरनाक बीमारी व पीलिया से छुटकारा पाने के लिए रामबाण है। विजय ने दर्जनों किस्म के धान, मंडुवा, चीणा, कौणी, झंगोरा सहित कई दालों को संरक्षित रखा है।
इसके लिए उन्होंने पहाड़ में सैकड़ों किलोमीटर लम्बी गांव-गांव की यात्राएं की और इन बीजों को इक्ट्ठा किया। जहां बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सरकारी सहयोग से अरबों-खरबों के बजट से अपने बीजों को किसानों तक पहुंचाने का काम कर रही हैं, वही विजय जैसे लोग अपने कुछ शुभचिंतकों के सहयोग से अपने परम्परागत बीजों की विरासत को बचाने में जुटे हैं। ये उन्हीं अनाजों की विरासत है जो बीमार व्यक्ति के लिए दवा का काम करते हैं। स्थानीय चावल (चरधान व ग्यारसू) के भात का मांड (सूप) बीमार बच्चों व वयस्क व्यक्तियों तक के लिए लाभदायक होता है, वहीं गहत (कुल्थ) की दाल गुर्दे में पल रही पत्थरी को गलाकर बाहर कर देती है।
टिहरी गढ़वाल की हेवंल घाटी के जड़धार गांव के विजय जड़धारी 6 बहनों व एक बड़े भाई में सबसे छोटे हैं। टेडी-मेढी पगडंडियों के सहारे जैसे तैसे स्नातक किया और फिर चिपको नेता सुन्दर लाल बहुगुणा के साथ जल जंगल व जमीन बचाने के अभियान में जुट गये। इसी दौरान उनका ध्यान रासायनिक खादों, कीटनाशकों व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाइब्रिड बीजों की गांवों में बढ़ती पैठ की ओर गया, जो धीरे-धीरे पहाड़ की परम्परागत फसलों को खेत से बाहर करने में लगे थे। कुछ साल में जितनी तेजी से सोयाबीन ने अपना क्षेत्रफल बढ़ाया है उससे वे बेहद चिंतित थे।
विजय ने पत्रकार कुवंर प्रसून, रघू जड़धारी, प्रताप शिखर, धूम सिंह नेगी जैसे युवाओं के साथ इस सामूहिक चिंता पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया और बीज बचाने के लिए गांव-गांव काम करने लगे। आज यह काम ‘बीज बचाओ अभियान’ के नाम से दुनियाभर में पहचाना जाने लगा है। विजय कहते हैं कि एक बार पड़ोस के गांव में पोटली में बंधा यूरिया खाद एक भैंस चाट गया और उसने वहीं दम तोड़ दिया तो टिहरी के आगर गांव के एक परिवार के यहां गेहूं के ड्रम में कीड़ों से बचाव के लिए रखा गया कीटनाशक गलती से गेहूं के साथ ही पीस गया। शाम को परिवार ने उस आटे की रोटियां खाई और सुबह कोई भी नहीं उठ सका। इस प्रकार पहाड़ में बढ़ते हाइब्रिड बीजों के साथ रासायनिक खादों व कीटनाशकों ने पहाड़ की खेती को ही जहरीला कर दिया जिसका असर अब बीमारी नाशक गंगा जल में भी दिखने लगा है। खेत में कौन सी प्रजाति किस क्षेत्र के लिए अच्छी है यह हर किसान जानता था, जहां ओलावृष्टी या जंगली जानवरों का प्रकोप होता था, वहां लोग ‘झैल्डू’ प्रजाति का धान उगाते हैं। इस धान की बालियां कंटीली होती हैं जिसे न तो जंगली सूअर छूता था और ना ही यह ओलावृष्टि से झड़ता हैं।
बीज बचाओ आन्दोलन का उद्देश्य सिर्फ बीज बचाना ही नहीं अपितु संपूर्ण जैव विविधता, खेती और पशुपालन आधारित जीवन पद्धति और संस्कृति को बचाना है। विजय का मानना है कि दुनिया का सबसे बड़ा संकट खेती और किसान पर आने वाला है। इसलिए उसे अगली लड़ाई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व सरकार के गठजोड़ से लड़नी होगी। इसके लिए जरूरी है कि लड़ाई का मुख्य हथियार ‘बीज’ किसानों की मुठ्ठी में हो। जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व सरकार के कर्ताधर्ता हाइब्रिड बीज, रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से दुनियां को खाद्यान से लबालब भरने का दावा करते हैं वे अपने रसोई में अब रसायन और कीटनाशक रहित जैविक खाद्यान पकाने लगे हैं, क्योंकि वे खुद को स्वस्थ व निरोगी रखना चाहते हैं।
अपने परम्परागत बीजों को बचाने के लिए समर्पित विजय जड़धारी हिमालय की तरह अपने काम पर अडिग हैं और निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। उनके काम की पहचान अब तक उन्हें इंदिरागांधी प्रियदर्शनी पुरस्कार, गढ़ विभूति सम्मान सहित दर्जनों पुरस्कारों के रूप में मिल चुकी है। उनकी आधा दर्जन पुस्तकों में से बारहनाजा व उत्तराखंड में खान-पान की संस्कृति में हिमालय के समृद्ध भोजन श्रृंखला का विस्तार से वर्णन है। विजय जैसे लोग ही हिमालय के साथ-साथ धरती बचाने के यज्ञ में जुटे हैं।
हिमालय के परम्परागत अनाजों के बीजों को बचाने के इस अभियान में जुटे हैं टिहरी जिले के जड़धार गांव के विजय जड़धारी। वे अपने परम्परागत फसलों को बचाने के लिऐ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व सरकारी गठजोड़ के सामने हिमालय की तरह डटे हुए हैं। शुरूआत में उनके अभियान का मजाक उड़ाने वाले कृषि वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग अब उनके अभियान को समर्थन देने लगा है। उनका मानना है कि जड़धारी का बीज बचाओ अभियान हिमालय की खेती व फसलों की समृद्ध परम्परा को बचाने का एक मात्र रास्ता है। राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने खेतों में हाइब्रिड बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशकों की बौछार से न सिर्फ जल और जमीन को जहरीला बना दिया है बल्कि यह असर खान पान द्वारा आदमी की नसों में अपना कुप्रभाव डालने लगा है।
हरित क्रांति के सिरमौर माने जाने वाले पंजाब राज्य द्वारा रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोगों से वहां के आदमियों के स्वास्थ्य पर इतना ज्यादा कुप्रभाव पड़ रहा है कि गांव के गांव कैंसर की चपेट में आ रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाइब्रिड बीज, खाद और कीटनाशक अब पहाड़ों की चढ़ाई भी नापने लगे हैं। यह हाइब्रिड बीज अब हमारे परम्परागत फसलों को खेती से बाहर करने लगे हैं। यहां पहले किसान बीजों के लिए अपने कोठारों में जाते थे अब वे बीज कम्पनियों की दुकानों के बाहर कतार लगाये दिखाई देने लगे हैं। ऐसे में हेंवली घाटी के विजय जड़घारी ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ अपना पूरा जीवन अपनी परम्परागत फसलों के बीजों को बचाने में लगा दिया है।
उन्होने अपने खेतों को प्रयोगशाला बनाकर अपने परम्परागत बीजों को संरक्षित रखने का कार्य किया है। वे राजमा की एक दो नहीं बल्कि 170 किस्में बिना रासायनिक खादों व कीटनाशकों के प्रयोग से पैदा कर चुके हैं। उनका बीज बचाओ आन्दोलन उन पहाड़ी परम्परागत फसलों के बीजों को बचाने के लिए समर्पित है, जो पहाड़ों में पेट भरने के अलावा दवा के रूप में भी प्रयोग किए जाते थे। जैसे चीणा और मठ्ठा का भोजन लिवर की खतरनाक बीमारी व पीलिया से छुटकारा पाने के लिए रामबाण है। विजय ने दर्जनों किस्म के धान, मंडुवा, चीणा, कौणी, झंगोरा सहित कई दालों को संरक्षित रखा है।
इसके लिए उन्होंने पहाड़ में सैकड़ों किलोमीटर लम्बी गांव-गांव की यात्राएं की और इन बीजों को इक्ट्ठा किया। जहां बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सरकारी सहयोग से अरबों-खरबों के बजट से अपने बीजों को किसानों तक पहुंचाने का काम कर रही हैं, वही विजय जैसे लोग अपने कुछ शुभचिंतकों के सहयोग से अपने परम्परागत बीजों की विरासत को बचाने में जुटे हैं। ये उन्हीं अनाजों की विरासत है जो बीमार व्यक्ति के लिए दवा का काम करते हैं। स्थानीय चावल (चरधान व ग्यारसू) के भात का मांड (सूप) बीमार बच्चों व वयस्क व्यक्तियों तक के लिए लाभदायक होता है, वहीं गहत (कुल्थ) की दाल गुर्दे में पल रही पत्थरी को गलाकर बाहर कर देती है।
टिहरी गढ़वाल की हेवंल घाटी के जड़धार गांव के विजय जड़धारी 6 बहनों व एक बड़े भाई में सबसे छोटे हैं। टेडी-मेढी पगडंडियों के सहारे जैसे तैसे स्नातक किया और फिर चिपको नेता सुन्दर लाल बहुगुणा के साथ जल जंगल व जमीन बचाने के अभियान में जुट गये। इसी दौरान उनका ध्यान रासायनिक खादों, कीटनाशकों व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाइब्रिड बीजों की गांवों में बढ़ती पैठ की ओर गया, जो धीरे-धीरे पहाड़ की परम्परागत फसलों को खेत से बाहर करने में लगे थे। कुछ साल में जितनी तेजी से सोयाबीन ने अपना क्षेत्रफल बढ़ाया है उससे वे बेहद चिंतित थे।
विजय ने पत्रकार कुवंर प्रसून, रघू जड़धारी, प्रताप शिखर, धूम सिंह नेगी जैसे युवाओं के साथ इस सामूहिक चिंता पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया और बीज बचाने के लिए गांव-गांव काम करने लगे। आज यह काम ‘बीज बचाओ अभियान’ के नाम से दुनियाभर में पहचाना जाने लगा है। विजय कहते हैं कि एक बार पड़ोस के गांव में पोटली में बंधा यूरिया खाद एक भैंस चाट गया और उसने वहीं दम तोड़ दिया तो टिहरी के आगर गांव के एक परिवार के यहां गेहूं के ड्रम में कीड़ों से बचाव के लिए रखा गया कीटनाशक गलती से गेहूं के साथ ही पीस गया। शाम को परिवार ने उस आटे की रोटियां खाई और सुबह कोई भी नहीं उठ सका। इस प्रकार पहाड़ में बढ़ते हाइब्रिड बीजों के साथ रासायनिक खादों व कीटनाशकों ने पहाड़ की खेती को ही जहरीला कर दिया जिसका असर अब बीमारी नाशक गंगा जल में भी दिखने लगा है। खेत में कौन सी प्रजाति किस क्षेत्र के लिए अच्छी है यह हर किसान जानता था, जहां ओलावृष्टी या जंगली जानवरों का प्रकोप होता था, वहां लोग ‘झैल्डू’ प्रजाति का धान उगाते हैं। इस धान की बालियां कंटीली होती हैं जिसे न तो जंगली सूअर छूता था और ना ही यह ओलावृष्टि से झड़ता हैं।
बीज बचाओ आन्दोलन का उद्देश्य सिर्फ बीज बचाना ही नहीं अपितु संपूर्ण जैव विविधता, खेती और पशुपालन आधारित जीवन पद्धति और संस्कृति को बचाना है। विजय का मानना है कि दुनिया का सबसे बड़ा संकट खेती और किसान पर आने वाला है। इसलिए उसे अगली लड़ाई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व सरकार के गठजोड़ से लड़नी होगी। इसके लिए जरूरी है कि लड़ाई का मुख्य हथियार ‘बीज’ किसानों की मुठ्ठी में हो। जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व सरकार के कर्ताधर्ता हाइब्रिड बीज, रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से दुनियां को खाद्यान से लबालब भरने का दावा करते हैं वे अपने रसोई में अब रसायन और कीटनाशक रहित जैविक खाद्यान पकाने लगे हैं, क्योंकि वे खुद को स्वस्थ व निरोगी रखना चाहते हैं।
अपने परम्परागत बीजों को बचाने के लिए समर्पित विजय जड़धारी हिमालय की तरह अपने काम पर अडिग हैं और निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। उनके काम की पहचान अब तक उन्हें इंदिरागांधी प्रियदर्शनी पुरस्कार, गढ़ विभूति सम्मान सहित दर्जनों पुरस्कारों के रूप में मिल चुकी है। उनकी आधा दर्जन पुस्तकों में से बारहनाजा व उत्तराखंड में खान-पान की संस्कृति में हिमालय के समृद्ध भोजन श्रृंखला का विस्तार से वर्णन है। विजय जैसे लोग ही हिमालय के साथ-साथ धरती बचाने के यज्ञ में जुटे हैं।