विनीत खरे
बद्रीनाथ, औली, वैली ऑफ़ फ़्लावर, हेमकुंड जैसी जगहों पर जाने के लिए हर साल लाखों लोग भारत-चीन सीमा के नज़दीक बसे शहर जोशीमठ पहुंचते हैं, लेकिन पिछले कुछ वक्त से उत्तराखंड के जोशीमठ में लोग शिकायत कर रहे हैं कि उनके घर ज़मीन में धंस रहे हैं, उनमें दरारें आ रही हैं.
जोशीमठ भारत के सबसे ज़्यादा भूकंप प्रभावित इलाके ज़ोन – 5 में आता है. साल 2011 के सेंसस के मुताबिक यहां करीब 4.000 घरों में 17,000 लोग रहते थे लेकिन वक्त के साथ इस शहर पर भी इंसानी बोझ बढ़ा है.
जोशीमठ के केंद्र से थोड़ी ही दूर, ढलान पर बसा गांव है, सुनील. ढलान से नीचे उतरने पर अंजू सकलानी हमें अपने घर के एक कमरे को दिखाने ले गईं.
नीले रंग से रंगा कमरा फटती दीवारों, चौड़ी दरारों से भरा था. स्थिति ऐसी, वहां नीचे खड़े रहने भी शायद सुरक्षित नहीं था.
एक वक्त था कि सुनैना अपनी बहनों के साथ इसी कमरे में रहती थीं. पहले यहां दो बिस्तर लगे रहते थे. एक तरफ़ मंदिर था. यहीं उनकी किताबें रहती थीं, लेकिन गिर जाने के डर से ये कमरा अब बंद रहता है. सभी बहनें अब साथ लगे एक दूसरे कमरे में शिफ़्ट हो गई हैं.
वो कहती हैं, “पिछले साल अक्टूबर की जो बारिश आई, उससे धीरे-धीरे यहां दरारें पड़नें लगीं. पहले दिन नॉर्मल लगा, लेकिन जब दूसरे दिन दरार देखी, तो हम बहुत घबरा गए थे. धीरे-धीरे करके दरारें बहुत चौड़ी होने लग गईं. एक महीने में ही कमरा डैमेज होने लग गया था.”
साथ के घर में रहने वाले उनकी चाची के घर भी हालात कुछ अलग नहीं है. फ़र्श, दीवारों, छत में दरारों से वो डरे हुए हैं.
चाचा मज़दूरी का काम करते हैं और इस घर में रहते हुए उन्हें 20 साल से ज़्यादा हो चुके हैं.
सुनैना की चाची अंजू सकलानी कहती हैं, “कमरे रहने लायक ही नहीं हैं. आप देख ही रहे हैं. जाकर देखो आप, कैसा फट रखा है, कैसे रह रहे हैं हम. इधर, उधर भी कहां जाएं? लोग कह रहे हैं इधर जाओ, उधर जाओ, यहां बनाओ, वहां बनाओ, कहां बनाएंगे हम? बेरोज़गारी है. हमको तो पैसे चाहिए. लोन लेकर तो हमने खुद मकान बनाया था. अभी लोन नहीं दे रखा है. तो हम कहां से दूसरा मकान बनाएंगे?”
अंजू सकलानी के मुताबिक परिवार ने प्रशासन से मदद मांगी, पत्रकारों को अपना दर्द बताया, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई.
ठंड बढ़ रही है और किसी को पता नहीं कि ये फटती दीवारें या छत बर्फ़ के बोझ को कितना और कब तक बर्दाश्त कर पाएंगे.
अंजू सकलानी कहती हैं, “जब ज़्यादा बारिश होती है तो हम बच्चों को लेकर बाहर खड़े हो जाते हैं. हमें डर लगता है कि क्या पता कि कहीं दीवार न ढह जाए. छत ही न ढह जाए.”
जोशीमठ में हमें एक के बाद एक कई लोग अपने घरों की हालत दिखाने ले गए, इस उम्मीद से कि उनकी बात उच्च स्तर तक पहुंचेगी. उनकी शिकायत थी कि उनकी आवाज़ कोई सुन नहीं रहा है.
उत्तराखंड में डिज़ास्टर मैनेजमेंट सचिव डॉक्टर रंजीत कुमार सिन्हा कहते हैं, “नहीं ऐसा नहीं है. हम सब सुन रहे हैं, सरकार सुन रही है. मुख्यमंत्री इसे लेकर गंभीर हैं.”
डॉक्टर सिन्हा प्रभावित परिवारों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था का भरोसा दिलाते हुए कहते हैं, “उसके लिए ज़मीन की पहचान करने के लिए हमने डीएम को कहा है कि देखिए कहीं आसपास उपयुक्त जगह मिले. दूसरा वहां पर और ज़्यादा नुकसान न हो, धंसाव न हो. उसके लिए हम काम करेंगे.”
“राज्य के डिज़ास्टर मैनेजमेंट फंड में क़रीब 1,800 करोड़ हैं और दिसंबर में करीब 400 करोड़ और आने वाले हैं. तो पैसे की कोई कमी नहीं है. एक बार हमारा निर्णय हो जाए कि कौन-कौन से काम हमें करने है, उसके बाद हम जी-जान से लगकर उस पर काम कराएंगे.”
डॉक्टर सिन्हा जल्द कार्रवाई की बात करते हैं, लेकिन जोशीमठ निवासियों के लिए एक-एक दिन मुश्किल हो रहा है.
क्यों धंस रही है ज़मीन?
पास ही रविग्राम की सुमेधा भट्ट अपने मकान में 10 साल पहले शिफ्ट हुईं. घर पर वो 20 लाख रुपए से ज़्यादा ख़र्च कर चुकी हैं. फटती दीवारों से सांप, बिच्छू के घुसने के डर से उन्होंने मकान की मरम्मत करवाई, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ.
घर के किचन, कमरों में ज़मीन, दीवारों पर दरारें थीं. एक बिल से सांप का बच्चा रेंगते हुए दिखा तो वो घर से फ़िनाइल लेकर आ गईं.
वो कहती हैं, “ज़मीन बैठ रही है तो दरवाज़े भी बैठेंगे. दरवाजें बंद नहीं हो रहे हैं, कुंडियां बंद नहीं हो रही हैं. बारिश हो रही है तो बहुत डर लग रहा है. छोटे छोटे बच्चे हैं, कहां जाएंगे रात को?”
लोगो ने मकान ढहने के डर से बल्लियां लगा रखी हैं. निवासियों ने बताया, ‘अनहोनी के डर से लोग मकान छोड़ रहे हैं.’
सकलानी परिवार के मुताबिक घरों मे दरारों की शुरुआत पिछले साल अक्टूबर में आई भारी बारिश से हुई.
17-19 अक्टूबर की बाढ़ से उत्तराखंड में भारी तबाही हुई थी. एक रिपोर्ट के मुताबिक जोशीमठ में पिछले साल अक्टूबर 18 को सुबह साढ़े आठ बजे से अगले 24 घंटों तक 190 मिलीमीटर बारिश रेकॉर्ड की गई.
सुमेधा भट्ट के अनुसार पिछले साल फरवरी में ग्लेशयिर टूटने के बाद मार्च से दरारें दिखनी शुरू हुईं, और उसके बाद ये दरारें बढ़ने लीं. ग्लेशियर टूटने से उत्तराखंड में 200 से ज़्यादा लोग मारे गए थे.
जोशीमठ का धंसना नई बात नहीं है. साल 1976 की मिश्रा कमेटी रिपोर्ट में शहर के धंसने का ज़िक्र है.
स्थानीय ऐक्टिविस्ट अतुल सति का दावा है कि गुज़रे दशकों में ऐसे वक्त भी आए जब जोशीमठ के धंसने में ठहराव आया, और पिछले साल फ़रवरी और अक्टूबर की तबाही ने जोशीमठ के धंसाव को गति दी, लेकिन इन दावों की वैज्ञानिक पुष्टि होनी बाक़ी है.
बढ़ता व्यवसायीकरण
बढ़ती जनसंख्या और भवनों के बढ़ते निर्माण के दौरान 70 के दशक में भी लोगों ने भूस्सखलन आदि की शिकायत की थी जिसके बाद मिश्रा कमेटी बनी.
कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक जोशीमठ प्राचीन भूस्सखलन क्षेत्र में स्थिर है, और ये शहर पहाड़ से टूटे बड़े टुकड़ों और मिट्टी के अस्थिर ढेर पर बसा है. एक सोच है कि पिछले साल फ़रवरी को टूटे ग्लेशियर के मलबे ने इस ढेर को टक्कर मारकर और अस्थिर किया, हालांकि इस दावे की भी वैज्ञानिक पुष्टि होनी बाक़ी है.
जानकारों के मुताबिक निर्माणकार्य और जनसंख्या के बढ़ते बोझ, बरसात, ग्लेशियर या सीवेज के पानी का ज़मीन में जाकर मिट्टी को हटाना जिससे चट्टानो का हिलना, ड्रेनेज सिस्टम नहीं होने, इत्यादि से जोशीमठ का धंसाव बढ़ा है.
एक जगह 1976 की रिपोर्ट कहती हैं, “कई एजेंसियों ने जोशीमठ इलाके में प्राकृतिक जंगल को बेरहमी से तबाह किया है. पथरीली ढलान खाली और बिना पेड़ के हैं. जोशीमठ क़रीब 6,000 मीटर की उंचाई पर है लेकिन पेड़ों को 8,000 फ़ीट पीछे तक ढकेल दिया गया है. पेड़ों की कमी के नतीजे में मिट्टी का कटाव और भूस्सखलन हुआ है. नग्न चोटियां मौसम के हमलों के लिए खुली हैं. बड़े पत्थरों को रोकने के लिए कुछ नहीं है.”
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भवन निर्माण के भारी काम पर रोक लगे, रोड रिपेयर और दूसरे निर्माण काम के लिए बड़े पत्थरों को खोदकर या ब्लास्ट करके न हटाया जाए, पेड़ और घास लगाने के लिए बड़े अभियान की शुरुआत हो, पक्के ड्रेन सिस्टम का निर्माण हो, आदि.
उत्तराखंड में डिज़ास्टर मैनेजमेंट सचिव डॉक्टर रंजीत कुमार सिन्हा के मुताबिक धंसाव की समस्या उत्तराखंड और हिमालय से सटे सभी राज्यों की है.
वो कहते हैं, “मैं अभी सिक्किम से आया हूं, वहां पर एक कॉन्क्लेव थी सारे हिमालयन स्टेट्स की. पूरे गंगटोक में गंभीर भूस्सखलन और धंसाव का मसला है. पूरा शहर धंस रहा है. ये सिर्फ़ उत्तराखंड ही नहीं, पूरे हिमालयन स्टेट्स की ये समस्या हो गई है.”
ऐसे में 1976 की रिपोर्टें की सिफ़ारिशों का क्या हुआ?
स्थानीय ऐक्टिविस्ट अतुल सति कहते हैं, “(रिपोर्ट के) सुझाव और चेतावनियां का किसी ने पालन नहीं किया. बल्कि उसके उलट हुआ. रिपोर्ट ने कहा कि आपको बोल्डर नहीं छेड़ना है. यहां विस्फोटों के ज़रिए तमाम बोल्डर तोड़े गए.”
वो कहते हैं, “जोशीमठ में लगातार विस्तार हो रहा है, नागरिकीकरण हो रहा है. लोग जोशीमठ आ रहे हैं, लेकिन उसके हिसाब से नगरीय सुविधाएं, पानी की निकासी की व्यवस्था नहीं है. सीवेज की व्यवस्था नहीं है, इन वजहों ने धंसाव की गति को और तीव्र कर दिया है.”
भूवैज्ञानिकों और एक्पर्ट्स की सितंबर 2022 की एक और रिपोर्ट में भी “नियंत्रित विकास” की बात की गई है.
अतुल सति के मुताबिक, “सिर्फ़ जोशीमठ क्षेत्र नहीं है. आप गोपेश्वर जाइए, गोपेश्वर नगर की ये हालत है, आप उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, बागेश्वर जाइए, उसकी ये हालत है. यानी उत्तराखंड का जो पहाड़ी क्षेत्र है, उस सबकी भौगोलिक क्षेत्र इसी तरह की है. और बहुत संवेदनशील है. और हिमालय तो अभी नए पहाड़ हैं. ये कमज़ोर पहाड़ हैं और ये लगातार आपदा का दंश झेल रहे हैं.”
उनकी माने तो जोशीमठ में 100 से ज़्यादा होटल, रेज़ॉर्ट और होम-स्टे हैं.
वो कहते हैं, “पिछली 31 दिसंबर को औली के बाद जोशीमठ लोगों से भर गया. जोशीमठ में लोग गाड़ी के अंदर सोए. रात 11-12 बजे लोग बिस्तर के लिए लोग हमारे यहां आए. एक लड़की टूरिस्ट मेरी बेटी के साथ सोई ऊपर एक कमरे में.”
कितना धंस रहा है जोशीमठ?
मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक जोशीमठ में भारी भवन निर्माण की शुरुआत साल 1962 के बाद से हुई.
अतुल सति के मुताबिक साल 1962 के बाद चीन के साथ युद्ध के बाद इलाके में “तेज़ी के साथ सड़क मार्ग का विकास हुआ, सेना बसने लगी. हेलीपैड का निर्माण हुआ. उनके लिए भवनों, बैरक्स का निर्माण होने लगा.”
लेकिन आज ये धंसाव कितना हो रहा है?
आर्काइव सैटेलाइट तस्वीरों की मदद से देहरादून के वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिमालयन जियॉलजी मेंभूवैज्ञानिक डॉक्टर स्पप्नमिता वैदिस्वरण यही जानने की कोशिश कर रही हैं.
उन्होंने जोशीमठ के ढला न पर ज़मीन पर हज़ारों प्वाइंट्स चुने. सैटेलाइट तस्वीरों की मदद से उन्होंने इन प्वाइंट्स को दो साल से ज़्यादा समय तक ट्रैक किया, ये जानने के लिए कि शुरू से आख़िर तक ये प्वाइंट आख़िर कितना नीचे गए.
वो कहती हैं, “पूरा विस्थापन मतलब पहले दिन से आख़िरी दिन तक. और रफ़्तार का आकलन साल भर के लिए मिलीमीटर में किया जाता है. हम देख रहे हैं कि रविग्राम हर साल 85 मिलीमीटर की रफ़्तार से धंस रहा है. इसका मतलब है कि ये कोई भूस्सखलन का असर नहीं बल्कि ये हर साल 85 मिलीमीटर की रफ़्तार से धंस रहा है, जो कि बहुत ज़्यादा है.”
जोशीमठ के नक्शे में ऐसे भी कुछ प्वाइंट्स हैं जो स्थिर थे.
डॉक्टर स्पप्नमिता वैदिस्वरण उन एक्सपर्ट्स में शामिल थीं जिन्होंने सितंबर 2022 की रिपोर्ट लिखी.
2006 में जोशीमठ पर एक और रिपोर्ट लिखने वाली डॉक्टर स्पप्नमिता वैदिस्वरण कहती हैं, “जोशीमठ पर बढ़ते मानवीय दवाब को कम करने के लिए तुरंत कदम उठाए जाने की ज़रूरत है.”
भूवैज्ञानिक बार बार याद दिला रहे हैं कि ये पहाड़ नाज़ुक हैं और वो एक स्तर तक ही बोझ बरदाश्त कर सकते हैं.
उत्तराखंड में स्पिरिचुअल स्मार्ट सिटी या हर मौसम के लिए सड़कों को बनाने की बात आती रहती है.
डॉक्टर स्पप्नमिता वैदिस्वरण कहती हैं, “आपको समझना होगा कि आप पहाड़ों पर बड़े शहरों का विकास कैसे कर रहे हैं. इसके लिए उचित क़ानून होने चाहिए. चाहे छोटे गांव हों या फिर शहर, आपको उनकी वृद्धि को नियंत्रित करना होगा.”
डॉक्टर वैदिस्वरण के मुताबिक ज़रूरत है कि लोगों को जागरुक किया जाए और पहाड़ों के लिए कुछ टाउन प्लानर्स को काम में लाया जाए. वो बिना सही प्लानिंग के तुरंत निर्माण कार्य को रोकने पर भी ज़ोर देती हैं.
अतुल सति चाहते हैं कि सरकार सर्वे करे कि कितने घरों में दरारे हैं, किन घरों की हालत ख़राब है, कौन से ऐसे घर हैं जहां से लोगों को तुरंत हटाए जाने की ज़रूरत है, आदि.
इन्हीं पहाड़ों में रहते सकलानी परिवार और दूसरे लोगों को सरकार से घरों की वैकल्पिक व्यवस्था की उम्मीद है. उनके मुताबिक उनके पास इतने संसाधन नहीं कि वो अपना घर छोड़कर कहीं और जा पाएं और वो मजबूरी में दरार वाले धंसते घरों में रहने को मजबूर हैं.
बीबीसी से साभार