विनोद पाण्डे
जब पूरा देश कोरोना की दूसरी लहर से घायल है, बाबा रामदेव ने एलोपैथी की कमियों को उजागर कर एक विवाद को पैदा कर दिया है। आयुर्वेद और एलोपैथी चिकित्सा पद्धतियों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा और सहयोग हो, बहस चले, यह अच्छी बात है। मगर इस विवाद के लिए ये समय शायद ठीक नहीं है। लेकिन जब बहस चली ही है, तो कुछ बिंदुओं पर विचार किया जाना चाहिये।
बाबा रामदेव योग गुरु कहलाते हैं। पहले सामान्यतः यह माना जाता था कि योग एक जटिल पद्धति है, जिसे किसी योग्य गुरु के सान्निध्य में ही सीखा जाना चाहिये, क्योंकि योग और सामान्य व्यायाम में बहुत फर्क है। सामान्य व्यायाम में भले ही मांसपेशियाँ मजबूत हो जायें और शरीर सुडौल हो जाये पर मनुष्य के सर्वांगीण स्वास्थ्य के लिए ये पर्याप्त नहीं है। जबकि योग का विकास मनुष्य के संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए हुआ है। सामान्य व्यायाम से आगे योग में मन और श्वसन प्रणाली पर नियंत्रण का बहुत महत्व है, ताकि शरीर के वांछित भाग में प्राणवायु पहुंचे और गंदगी बाहर आये। इसलिए कहा जाता है कि योग एक योग्य शिक्षक के निर्देशन में सीखे बगैर उसका पूरा लाभ नहीं मिल सकता, वह मात्र साधारण व्यायाम बन कर रह जाता है।
बाबा रामदेव ने इस धारणा को तोड़ा। लगभग बीस वर्ष पूर्व उन्होंने सार्वजनिक सभाओं में योग सिखाने का अभियान शुरू किया, जिसका ‘आस्था’ चैनल द्वारा सीधा प्रसारण होता था और लाखों लोग अपने घरों में टीवी के सामने बैठ कर योग सीखते थे। इस तरीके से करोड़ों लोगों ने योग और प्राणायाम सीखा। मगर रामदेव के इस प्रयोग पर भृकुटियाँ भी तनीं। आलोचकों का कहना था कि रामदेव के इस तरीके से योग का शास्त्रीय स्वरूप भ्रष्ट हो रहा है। योग साधक जो त्रुटियाँ करेगा, योग गुरु की अनुपस्थिति में उसका निवारण कैसे होगा ? यदि योग शिक्षा इतनी सरल है तो क्यों हमारे योगाचार्यों ने इसे अब तक दुर्लभ बनाये रखा ? ये सवाल वाजिब हैं, मगर यह भी सही है कि बाबा रामदेव का यह योगदान अनूठा है।
रामदेव अब महज योगगुरु नहीं रहे। वे आयुर्वेदिक दवाओं और नियमित उपयोग की अनेकों अन्य वस्तुओं के कारोबारी हैं। उनके आलोचक कहते हैं कि योग को जन-जन तक पहुँचा कर उन्होंने देश का जितना उपकार किया भी था, उसमें दवाओं को जोड़ कर उन्होंने उसे योग के मूल स्वरूप से भटका दिया है। रामदेव अब जब भी योग पर व्याख्यान देते हैं, प्रशिक्षण देते हैं या किसी टीवी चैनल में बातचीत करते हैं तो उनके आगे तमाम किस्म की आयुर्वेदिक दवायें प्रदर्शित की जाती हैं। अधिकांश टीवी चैनलों में पतंजलि के उत्पादों के विज्ञापन अनवरत चलते रहते हैं। अन्य उपभोक्ता उत्पादों की तरह इन विज्ञापनों में अतिरंजित दावे किये जाते हैं। योग के साथ बाबा रामदेव अब आयुर्वेदिक दवाओं व अन्य उपभोक्ता सामग्री के भी पर्याय बन चुके हैं।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या आयुर्वेदिक दवायें योग का अभिन्न अंग हैं ? सच्चाई यह है कि हमारे देश में स्थापित योग संस्थान आम तौर पर किसी किस्म की दवाओं की सलाह नहीं देते। योग का संबंध अगर किसी चिकित्सा पद्धति से है तो वह प्राकृतिक चिकित्सा है, जो विशुद्ध रूप से दवा रहित होती है। इस पद्धति में हमारे त्रुटिपूर्ण भोजन व रहन-सहन के तरीकों में बदलाव किया जाता है। धूप, पानी, मिट्टी और उपवास का सहारा लेकर शरीर की व्याधियों को निकाला जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा का मूल सिद्धांत है कि बीमारी एक है, उसके स्वरूप अलग-अलग हैं, जिसे एक स्वस्थ जीवन पद्धति से ठीक किया जा सकता है। इस पद्धति में माना जाता है कि चाहे एलोपैथी हो, यूनानी, आयुर्वेदिक या होम्योपैथी, हर चिकित्सा पद्धति के कुछ न कुछ साइड इफैक्ट होते ही हैं। एक बीमारी ठीक करने की कोशिश में किसी दूसरी बीमारी के लग जाने का खतरा बना रहता है। यदि योग के साथ भी आयुर्वेदिक औषधि दी जाये तो इस बात का खतरा हमेशा बना रहेगा कि इससे कहीं कोई अन्य बीमारी न लग जाये। अतः यह प्रश्न तो पूछा ही जायेगा कि बाबा रामदेव ने योग को प्राकृतिक चिकित्सा के साथ न जोड़कर आयुर्वेद के साथ क्यों जोड़ा ? यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि क्या आयुर्वेद साइड इफैक्ट की दृष्टि से निरापद है ?
एलोपैथी की लूट से आज देश का हर आदमी परेशान है, पर यह भी सच है कि बीमार होने पर हम घबरा कर एलोपैथी की ही शरण में जाते हैं। दवा कंपनियां साइड इफैक्ट के बारे में दवाओं के पैकेटों पर स्पष्ट रूप से घोषणा करती हैं। इसके बावजूद दुनिया भर में एलोपैथी को अपनाया जाता है। ऐलोपैथी में नित नयी खोजें होते रहती हैं। औषधि का नोबेल पुरस्कार हर साल इसी पद्धति के पास जाता है। इसका कारण यही है कि ऐलोपैथी ने कई चमत्कारिक दवायें दी हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं एंटीबायोटिक। सबसे पुरानी एंटीबायोटिक 1929 में एलैक्जैंडर फ्लेमिंग द्वारा खोजी गई पेनीसिलिन है। तब तक पहला विश्वयुद्ध हो चुका था। कहा जाता है कि पहले विश्वयुद्ध में जितने लोग गोलियों से नहीं मरे, उससे कहीं ज्यादा घावों के सड़ने से मरे। पेनीसिलिन ने इस समस्या से निजात दिला दी। इसके बाद तमाम एंटीबायोटिक इजाद होते गये।अब तो टीबी जैसे भयानक संक्रामक रोग का इलाज भी एंटीबायोटिक से ही होता है। एलोपैथी में सर्जरी का अदभुत योगदान है। सर्जरी के सहारे कई व्याधियों की ठीक करने के अलावा अंग प्रत्यारेापण कर किसी व्यक्ति को नयी जिंदगी तक दी जा सकती है। इसलिए तमाम दुगुर्णों के बाद भी एलोपैथी पर निर्भरता समाप्त नहीं हो सकती है। मगर एलोपैथी पर इतनी निर्भरता के कारण स्वास्थ्य पूरी तरह लूट का व्यापार हो गया है।
भारत जैसे देश में, जहाँ अधिकांश आबादी गरीब और वंचित है, एलोपैथी के विकल्प की बहुत आवश्यकता है। इसे वैकल्पिक चिकित्सा व्यवस्था भी कहा जाता है। वैकल्पिक चिकित्सा व्यवस्था का अर्थ सस्ती और सुलभ चिकित्सा व्यवस्था से है। आयुर्वेद हमारा सदियों पुराना विज्ञान है, जिसे अंग्रेजों द्वारा इसलिये बर्बाद कर दिया गया, क्योंकि वे भारत में अपनी प्रणालियां स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने हमारी अर्थव्यवस्था ही नहीं, बल्कि हमारी शिक्षा, न्याय, पंचायती शासन प्रणालियों की उपेक्षा कर उन्हें नष्ट किया। इसी क्रम में आयुर्वेद और यूनानी जैसी हमारी पुरानी चिकित्सा पद्धतियाँ भी बर्बाद की गईं और इसके स्थान पर एलोपैथी को स्थापित किया गया। उस दौर में एलोपैथी तो दुनिया के अनेकों भागों में विकसित हो रही थी, पर आयुर्वेद का शोध व विकास रुक गया। जिस प्रणाली को राज्य का संरक्षण मिलता है उसका विकास होना स्वाभाविक ही है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि किसी समय आयुर्वेद एलोपैथी से अधिक नहीं तो उसके मुकाबले की प्रणाली रही होगी पर इसमें निरंतर शोध और विकास न हो सकने के कारण यह पिछड़ती गयी। इसका आधुनिकीकरण और आवश्यकताओं के अनुरूप अनुकूलन नहीं हो पाया, जिससे इसमें कई कमियां आ गयीं।
सबसे बड़ी कमी है आयुर्वेदिक दवाओं का मानकीकरण न होना। एक उदाहरण दें। कुछ महीने पहले सेंटर फाॅर साईंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की जांच में पता चला कि भारत में बिकने वाला अधिकांश शहद नकली है। यह चीन से विकसित एक चीनी के सिरप से बनाया जा रहा है। उस मिलावट की जांच के लिए भारत में मानदंड बनाये तो गये, पर लागू नहीं किये गये हैं। इस कमजोरी के कारण यह मिलावटी शहद कानूनी शिकंजे से भले ही बच जाये, पर गुणकारी तो कतई नहीं होगा। सवाल यह है कि भारत की आयुर्वेदिक कंपनियाँ, वह डाबर, झंडू, बैद्यनाथ हो या फिर पतंजलि, किस शहद को अपनी दवाओं, जैसे च्यवनप्राश, में मिला रहे हैं? च्यवनप्राश के पैकेट में लिखा रहता है कि ‘अष्टवर्ग युक्त’। भारत में अष्टवर्ग की जड़ी-बूटियाँ हिमालयी इलाकों में मिलती हैं। इनमें से अधिकांश या तो विलुप्त हो गयी हैं या उनके विदोहन पर प्रतिबंध है। तो प्रश्न फिर उठता है कि आखिर ऐसी दुर्लभ औषधीय जड़ी-बूटियां आ कहां से आ रही हैं ? एक तर्क यह दिया जा सकता है कि कई औषधीय पादपों की खेती भी की जा रही है। मगर जब खेती होगी तो उसमें रासायनिक उर्वरक भी पड़ेंगे, संकर बीज भी इजाद होंगे और कीटनाशक भी उपयोग में लाये जायेंगे। तो ऐसी फसल में क्या वह गुणवत्ता और शुद्धता रहेगी, जो प्राकृतिक पादप के अवयवों में होती है ? इसका सामान्य उदाहरण आंवला है, जो कई आयुर्वेदिक दवाओं का आधार है। इसकी आयुर्वेदिक दवाइयों में बेशुमार मांग है। इस मांग को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर आंवले का कृषिकरण हो रहा है, जिसमें संकर बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि प्रयोग में लाये जाते हैं। इस कारण इस व्यापारिक आंवले में वे औषधीय अवयव नहीं होते जो कि जंगली आंवले में होते हैं। मंडियों में खेती के आंवले और जंगली आंवले के दामों में भारी फर्क है। यही बात शहद के लिए है। शहद को कई आयुर्वेदिक कंपनियां भी बेचती हैं और अपने अनेकों उत्पादों में शहद का प्रयोग करती हैं। तो यह निर्धारण कैसे होगा कि ये शहद शुद्ध है ?
एलोपैथी मानकीकरण के मामले में बहुत आगे है। उसके हर औषधीय अवयव का मानकीकरण किया जाता है, जिसे हम आई.पी. (इंडियन फारमेकोपिया) और यू.एस.पी. (ब्रिटिश फारमेकोपिया) संहिता के रूप में जानते हैं। देश की एक संस्था उसे मान्यता देती है, भारत में जिसे हम ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया के नाम से जानते हैं। आयुर्वेद में ऐसी नियामक संस्था का अभाव है। आयुर्वेद की एक बड़ी कमी यह है कि उसकी किसी औषधि में औषधीय पादपों या तत्वों की मात्रा तो दी जाती है, पर औषधीय अवयवों की जानकारी नहीं मिलती। च्यवनप्राश में आंवला, शहद आदि कितना ग्राम है, यह तो लिखा होता है, मगर इस आंवले के औषधीय अवयवों के बारे में जानकारी नहीं दी जाती। इसलिए किसी आयुर्वेदिक औषधि की क्षमता के बारे में संशय होना स्वाभाविक है।
रामदेव ने योग को शास्त्रीयता से बाहर निकाल कर एक नया स्वरूप दिया है। अब योग के लिए योगगुरु की आवश्यकता नहीं रही। इसी तरह उन्होंने योग के साथ आयुर्वेद को जोड़ कर पुनः योग को दवारहित वैकल्पिक चिकित्सा से बाहर निकाल दिया है। इसलिए रामदेव पद्धति से योग को अपनाने वाला व्यक्ति योग के साथ उसमें आयुर्वेद का सम्मिश्रण करता है। आने वाला समय बतायेगा कि इससे योग पद्धति मजबूत हुई या कमजोर ? हां, इससे आयुर्वेद, विशेषकर रामदेव की ‘पतंजलि’ की दवाओं का प्रचलन बढ़ा है, जिसके बल पर रामदेव अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर विख्यात एलोपैथी को ललकारने का दुस्साहस कर रहे हैं। एलोपैथी का तंत्र बहुत शक्तिशाली है। उसमें देश-विदेश के बड़े उद्योगपति घुसे हैं और अकूत लाभ कमा रहे हैं। देखना होगा कि अंततः यह विवाद कहां पर जाकर रुकता है। क्या इससे देश के आयुर्वेदिक संस्थान मिल बैठ कर आयुर्वेद के मानकीकरण और पद्धति में सदियों से आयी बाधाओं को दूर करने में और एलोपैथी को पटखनी देने में सफल हो पायेंगे या कोई युद्धविराम जैसा होगा ? अच्छा तो यह होता कि इस बहस का अंत आयुर्वेद और एलोपैथी के बीच सहभागिता और सहयोग के रूप में होता।