प्रयाग पाण्डे
“तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है, कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।” मशहूर शायर दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल का यह शेर सरोवर नगरी नैनीताल की मौजूदा हालातों को बख़ूबी व्यक्त करता है। इन दिनों नैनीताल में इंसानों के साथ दोपहिया और चौपहिया वाहनों का भी रेला उमड़ा हुआ है। इंसानों और वाहनों की बेतहाशा भीड़ के चलते नगर की सांसें थम- सी गईं हैं। अपनी क्षमता से कई गुना अधिक बोझ ढो रही नगर की सभी सड़कें – गलियाँ जाम हो गईं हैं। आवागमन बाधित हो गया है। पैदल चलने को रास्ते नहीं बचे हैं। नगर का हरेक कोना और पैदल रास्ते गाड़ियों से पट गए हैं।
सुंदर प्राकृतिक झील, अनुपम सौंदर्य और स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के मद्देनजर 180 वर्ष पूर्व अंग्रेजों ने नैनीताल नगर की बसावट शुरू की थी। औपनिवेशिक शासक नैनीताल की तुलना यूरोपीय देशों से करते थे। नैनीताल का स्वच्छ और शुद्ध वातावरण एवं आबोहवा को अच्छे स्वास्थ्य के लिए आदर्श माना जाता था। अंग्रेजी शासनकाल में नैनीताल को ‘कंट्री रिट्रीट’ कहा जाता था। अंग्रेज यहाँ के पारिस्थितिक एवं पर्यावरण का विशेष ख़याल रखते थे। तब नैनीताल की सुंदरता, शांति और सुरक्षा, विश्व विख्यात थी। आज ये सभी खतरे में हैं।
नैनीताल की बसासत के प्रारंभिक चरण में यहाँ आने-जाने के लिए रास्तों की समुचित व्यवस्था नहीं थी। तब कालाढूंगी से पैदल नैनीताल आया जाता था। कालांतर में पुरुषों के लिए घोड़ों की सवारी और महिला यात्रियों के लिए डांडी की व्यवस्था बना ली गई थी। यात्रियों का सामान ढोने के लिए कुलियों का प्रबंध था। करीब चार दशक तक यह व्यवस्था बनी रही। इसी दरम्यान नैनीताल एक सुव्यवस्थित नगर के रूप में बसा, सजा- सँवरा।
24 अक्टूबर, 1884 को काठगोदाम रेल यातायात से जुड़ गया। फिर यात्रीगण कालाढूंगी के बजाय काठगोदाम से पैदल नैनीताल आने लगे थे। इस दरम्यान नैनीताल नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज आगरा एंड अवध की ग्रीष्मकालीन राजधानी बन गया था। तब नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज के सर्वशक्तिमान ओहदेदार लेफ्टिनेंट गवर्नर, प्रांत के आला अधिकारी समेत सभी कारकुन काठगोदाम से घोड़े की सवारी अथवा पैदल नैनीताल आया करते थे। कालांतर में ब्रेबरी तक तांगे आने लगे। ब्रेबरी से घोड़ों में बैठकर अथवा पैदल नैनीताल आया जा सकता था।
1893 में नैनीताल तक तांगे पहुँच गए थे। अविभाजित भारत के सबसे बड़े ओहदेदार वॉयसरॉय, नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज के लेफ्टिनेंट गवर्नर, सेना और प्रशासन के आला अफसरान तांगों में बैठकर नैनीताल आते थे।
नैनीताल की बसावट के करीब सात दशक बाद 1915 में यहाँ मोटर सड़क पहुँची। तब तक नैनीताल विश्व मानचित्र में अपना विशिष्ट स्थान बना चुका था। मोटर मार्ग बनने के बाद काठगोदाम से नैनीताल तक मोटर लॉरी चलने लगी थी। नैनीताल मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी मोटर लॉरियों का संचालन करती थी। मोटर लॉरी तल्लीताल तक ही आ सकती थी। 1925 तक नैनीताल मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी के पास 88 लॉरियाँ थीं। नैनीताल के लचीले एवं भंगुर पर्यावरण और स्थानीय विशिष्टाओं के मद्देनजर नगर के भीतर यांत्रिक यातायात नहीं था। डांडी, झम्पानी, घोड़े और हाथ रिक्शा ही यातायात के एकमात्र मुख्य साधन थे। लेफ्टिनेंट गवर्नर समेत सभी अंग्रेज हुक्मरान और उनके परिजन नगर के भीतर हाथ रिक्शा और घोड़ों की सवारी किया करते थे। मालरोड और नगर के भीतरी हिस्सों में साइकिल चलाने पर भी सख्त पाबंदी थी। नगर के बाहरी हिस्से में साइकिल चलाने के लिए नगर पालिका से लाइसेंस लेना अनिवार्य था। कार्ट रोड (नैनीताल-हल्द्वानी मार्ग) और डिपो रोड ( नैनीताल-भवाली मार्ग) में ही साइकिल चलाने की इजाजत दी जाती थी।
1901 में जब नैनीताल की ग्रीष्मकालीन आबादी 7609 थी, सिर्फ 520 बंगले और दूसरे मकानात थे, तभी नैनीताल के भार वहन क्षमता की बात होने लगी थी। अंग्रेज नैनीताल के नाजुक पर्यावरण के मद्देनजर यहाँ निश्चित सीमा से अधिक आबादी को बसाने के सख़्त खिलाफ थे। कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर कैप्टन ए. डब्ल्यू. इबट्सन ने 19 जुलाई, 1929 को नगर पालिका, नैनीताल की वार्षिक रिपोर्ट में लिखी एक टिप्पणी में कहा था- ” इस समय नैनीताल की एक स्वास्थ्यप्रद नगर की छवि है पर भविष्य में इस छवि को बनाए रखने में कुछ जटिल समस्याएं नज़र आ रही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह नगर अति इंसानों से भर गया है।” जब कैप्टन इबट्सन ने यह टिप्पणी की उस दौर में नैनीताल की आबादी करीब बारह हजार थी।
1937 में नगर पालिका ने नैनीताल की मालरोड में नियंत्रित यांत्रिक यातायात की अनुमति प्रदान कर दी। तब नगर पालिका के अध्यक्ष या सचिव की पूर्वानुमति से विशेष परिस्थितियों में तल्लीताल से सचिवालय (वर्तमान उत्तराखंड उच्च न्यायालय) तक ही वाहन आ -जा सकते थे। 1938 में नगर पालिका ने मालरोड में वाहनों की अधिकतम गति सीमा दस मील प्रति घंटा तय कर दी थी।
मालरोड में यांत्रिक यातायात की अनुमति दिए हुए दो साल भी नहीं बीते थे भू-वैज्ञानिकों ने मालरोड के अतिरिक्त अन्य स्थानों में वाहनों की आवाजाही का विरोध करना प्रारंभ कर दिया था। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के तत्कालीन अधीक्षक ए. एल. कॉल्सन ने 5 अगस्त, 1939 की अपनी एक रिपोर्ट में नैनीताल नगर के भीतर वाहनों की आवाजाही पर पाबंदी लगाने की सिफारिश की। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा “………. तल्लीताल से सचिवालय तक गाड़ियां तो जाती हैं। पर इसके अलावा नगर के बाकी इलाकों में वाहनों की आवाजाही पहाड़ियों की सुरक्षा की दृष्टि से हानिकारक है। भारी वाहनों की आवाजाही से नगर की सुरक्षा एवं स्थिरता खतरे में पड़ सकती है।…… गाड़ी चलाने वालों को खुद पैदल चलकर पदयात्रियों की तकलीफों को महसूस करना चाहिए।” इसके बाद मालरोड में वाहनों की आवाजाही को हतोत्साहित करने की दृष्टि से लेक ब्रिज शुल्क की व्यवस्था की गई। अब यह व्यवस्था नगर पालिका की आमदनी का मुख्य स्रोत बन गई है।
22 जनवरी,1942 को नगर पालिका ने मालरोड में दस पैदल रिक्शे चलाने की अनुमति दी। प्रारंभ में सभी रिक्शों का स्वामित्व एवं संचालन नगर पालिका के पास ही था।
1947 में भारत आजाद हो गया। अंग्रेज अपने वतन लौट गए। संरक्षणवादी नीतियों को भी अपने साथ ले गए। आजादी के करीब दो दशकों तक मामूली शिथिलताओं के साथ ब्रिटिशकालीन व्यवस्थाओं का अक्स बना रहा। उस दौर के जनप्रतिनिधियों ने नगर की सुरक्षा, सुंदरता और शांति के मामले में समझौता नहीं किया। 1960 के दशक में मालरोड में यांत्रिक यातायात नहीं के बराबर था। राजभवन को छोड़कर मालरोड के अलावा नगर के अन्य हिस्सों में गाड़ियों का संचालन प्रतिबंधित था। उस दौर के जनप्रतिनिधियों को मालरोड में एक भी वाहन का गुजरना नामंजूर था। नगर पालिका के तत्कालीन सदस्य चन्द्रलाल साह द्वारा 5 दिसंबर,1966 को बोर्ड की बैठक में प्रस्तुत प्रस्ताव संख्या-दो के जरिए मालरोड में कार और भारी वाहनों के चलने पर पाबंदी लगाने की माँग की थी। यह प्रस्ताव स्थगित हो गया था।
1980 के दशक तक भी नगर में यांत्रिक यातायात नियंत्रित संख्या में था। यहाँ हवाखोरी को आने वाले अधिकांश सैलानी पैदल टहलना पसंद करते थे। देश के शीर्ष राजनेताओं को भी पैदल चलने में संकोच नहीं होता था। वीआईपी कल्चर इस क़दर हावी नहीं था। मारुति संस्कृति आने के बाद नैनीताल का पूरा परिदृश्य बदल गया।
नैनीताल नगर में मोटर मार्ग बाजार क्षेत्र, अश्व मार्ग और पैदल मार्ग सहित सड़कों की कुल लंबाई करीब एक सौ किलोमीटर के आसपास है। इसमें वाहन चालित सड़कों के रूप में मान्य सड़कों की लंबाई करीब 18 किलोमीटर है। बाकी पैदल मार्ग हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार नैनीताल में निजी एवं टैक्सी चौपहिया वाहनों की संख्या करीब साढ़े तीन हजार है। यहाँ मकानों की संख्या करीब दस हजार के आसपास पहुँच गई है। हरेक चौथे-पांचवे परिवार के पास दोपहिया वाहन हैं। टैक्सी बाइक और टैक्सी स्कूटी की कोई गिनती ही नहीं है। नगर में टैक्सी बाइक अनगिनत संख्या में दौड़ रहे हैं। पर्यटक सीजन के दिनों प्रशासन द्वारा निश्चित संख्या में ही पर्यटक वाहनों को नगर में प्रवेश की आज्ञा दी जाती है। बावजूद इसके पीक सीजन में प्रतिदिन करीब ढाई- तीन हजार पर्यटकों के निजी वाहन नैनीताल आते हैं। नतीजतन अब नगर की कोई सड़क, पैदल मार्ग और बटिया दोपहिया और चौपहिया वाहनों से निरापद नहीं है। सभी सड़कों, रास्तों और बाजारों में भी धड़ल्ले से वाहन दौड़ रहे हैं। टैक्सी बाइक, ‘पापाज’ एवं ‘मम्मीज गिफ्ट्स’ की भीड़ ने आम लोगों के चलने के लिए सड़कों के किनारों की नालियां भी नहीं छोड़ी हैं। इनकी निरंकुश रफ़्तार के चलते पैदल चलने का अर्थ जीवन को खतरे में डालना हो गया है।
अनियंत्रित, अनियोजित एवं अदूरदर्शी विकास ने स्वप्नलोक को एक अव्यवस्थित और अति भीड़भाड़ वाले नगर में बदल दिया है। इंतजामिया नैनीताल नगर की भार वहन क्षमता का आकलन कर तद्नुसार गाड़ियों की संख्या नियंत्रित करने के बजाय पार्किंग बनाने पर जोर दे रहे हैं। पार्किंग के लिए नैनीताल में नियम विरुद्ध ब्रिटिशकालीन नालों में लिंटर डाले जा रहे हैं। जिससे नालों का वजूद और औचित्य पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लग गया है। आज जबकि नैनीताल जैसे हिल स्टेशन में इंसानों के पैदल चलने के लिए सड़कें नहीं बची हैं, दिन प्रति दिन गाड़ियों की बढ़ती तादाद के लिए आखिर सड़कें आएंगी कहाँ से? जब गाड़ियों के चलने के लिए सड़कें ही नहीं होंगीं, तो पार्किंग बनाने का क्या लाभ?
फोटो इंटरनेट से साभार