राजशेखर पन्त
माहौल निश्चित ही बहुत गर्म है। अयोध्या के राम मंदिर के बाद अब बनारस में ज्ञानवापी, मथुरा में कृष्ण जन्म भूमि और दिल्ली में कुव्वत-उल-इस्लाम… इधर तो हर दिशा से मंदिर तोड़ कर मस्ज़िद तामीर किये जाने की ख़बरें अख़बार और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर नुमायां हो रही हैं। जामा मस्ज़िद के नीचे भी किसी मंदिर के होने की बात अभी कुछ दिन पहले कुछ अख़बारों में हैडलाइन बनी थी।
इतिहास को लेकर हमारा नज़रिया बदल रहा है। संभव है यह बदलाव प्रायोजित हो। ( सोशल मीडिया की इस दिशा में असाधारण सक्रीयता के चलते इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।) आज से दो सौ, पांच सौ या हज़ार साल पहले घटी घटनाओं को हमने आज के संदर्भों, मूल्यों, मान्यताओं, नियमों और कानून के परिपेक्ष्य में देखना शुरू कर दिया है। अतीत को देखने का यह नज़रिया, यह नई रवायत मुझे अक्सर डराती है।
यह एक ऐतिहासिक और स्थापित सत्य है कि तेरहवीं शताब्दि में शुरू हुए सल्तनत काल (तुर्क-अफगान) से ही मंदिरों का विध्वंस शुरू हो गया था। मुगल काल में भी मंदिरों को तोड़ कर मस्ज़िद बनाने का सिलसिला जारी रहा। यह भी उतना ही सच है कि बहुत से मुगल शासकों द्वारा, जिनमें बदनाम औरंगज़ेब भी शामिल है, कई मंदिरों को अनुदान और ज़मीनें भी दी गयीं। क्योँ रहा होगा उस वक्त की राजनीति का चरित्र इतना विरोधाभासी? इस प्रश्न के उत्तर को ढूंढने- समझने की ईमानदार कोशिश आज के माहौल में लगातार बढ़ती जा रही कड़वाहट को, मैं समझता हूं, शायद थोड़ा कम कर सकती है।
आज जब हम भारतवर्ष की बात करते हैं तो एक निश्चित, स्थापित और स्पष्ट भूखण्ड की तस्वीर हमारे ज़ेहन में स्वयं ही उभरने लगती है। आज से पांच सौ, हज़ार साल पहले भी क्या ऐसा ही होता रहा होगा? निश्चित रूप से सांस्कृतिक एकरूपता आदिकाल से ही इस बड़े भूखण्ड को एक सूत्र में पिरोये हुई थी। पर आज की भांति राज्य की, राष्ट्र की एक सर्वमान्य सीमा हो -ऐसा नहीं था। छटी शताब्दि ई.पू. में उत्तर भारत में सोलह जनपद थे जिनकी सीमाएं बदलती रहती थीं; सुदूर पूर्व में तत्कालीन अर्थों में गणराज्य कहे जाने वाले छोटे-छोटे राज्य थे। फिर मगध राज्य की शक्ति बढ़ी। अशोक के काल में सीमायें वर्तमान में अफगानिस्तान कहे जाने वाले देश की सरहद तक पहुंच गयीं। चोल राजाओं ने इसे उत्तर-पूर्वी देशों तक विस्तारित किया। ये सीमायें यूं ही घटती-बढ़ती और बदलती रहीं। उधर खैबर दर्रे से मध्य एशियाई लड़ाकों का हिंदुस्तान को लूटने का सिलसिला, संभावनाओं से भरे इस भूखंड पर अधिकार जमाने की कोशिश भी लगातार जारी रही। कुछों ने इसे लूटा, कुछ यहीं के होकर रह गये।
मध्य एशिया के बहुत से इलाकों में जीवन के लिये संघर्ष था, इसलिए ‘हिंसा’ ‘क्रूरता’ वहां के जीवन का हिस्सा बन गयी। खैबर दर्रे के इस ओर प्रकृति मेहरबान थी, सम्पन्नता थी यहां। इन भौगोलिक विविधताओं ने खैबर के इस पार और उस पार की जीवन शैली को, सोचने समझने के तरीकों को, मान्यताओं को, विचारों को कंडीशन किया। मध्य एशिया ने वॉरलॉर्ड्स को जन्म देने वाली युद्धोन्मादी संस्कृति को पाला-पोसा। इस ओर भूमि उर्वरा थी, आबादी चूंकि कम थी इसलिये एग्रीकल्चर-सरप्लस पर्याप्त था, व्यापार उन्नत और संभावनाओं से भरा था, कला, शिल्प साहित्य फल-फूल रहे थे। मैं ये नहीं कहता कि इस तथ्य के अपवाद नहीं हो सकते, पर यह भी सच है कि प्राकृतिक अवरोधों को पार कर नए भूखण्डों को, देशों को तलाशना उन्हें विजित करना खैबर के इस पार पली-बढ़ी सभयता के लिये कमोबेश एक मज़बूरी या प्राथमिकता नहीं थी। शायद इसीलिये यहां के राजाओं ने इस क्षेत्र की नैसर्गिक सीमाओं के पार जा कर किसी अन्य देश/सांस्कृतिक समूह पर आक्रमण नहीं किया। वहीं उन लोगों के लिये जो भौगोलिक अवरोधों, जैसे दर्रे, चोटियों या समुद्रों को पार कर यहां आये थे- सहज स्वीकार्यता के अभाव में स्वयं को जबरन स्थापित करना, शक्तिशाली और श्रेष्ठ साबित करना (बरअक्स उनके जो शासित थे) एक मजबूरी थी।
धर्म जीवन के हर पहलू को निर्धारित करने वाला, उसे एक शक्ल देने वाला एक मत्वपूर्ण कारक रहा है- कम से कम मध्ययुगीन समाज के संदर्भों में तो यह कहा ही जा सकता है। ज़ाहिर है, विजेता के लिये अपनी श्रेष्ठता ज़ाहिर करने का, स्वयं को एक शासक के रूप में स्थापित करवाये जाने का सबसे आसान तरीका यही था कि विजित के धर्म, उसकी आस्था पर सीधे प्रहार कर उसके स्वाभिमान को पंगु बना दिया जाये।
हिंदुस्तान अकेला देश नहीं है जिसने इस भयावह त्रासदी को झेला है। मिस्र के प्राचीन इतिहास में बाल और ऐमन कहे जाने वाले देवताओं के मंदिरों को न जाने कितनी बार अलग अलग फ़राओ ने खंडित किया था। अमरीकी मूल के अपाची इंडियंस की संस्कृति, धर्म, उनके रीति रिवाजों पर यूरोपीय आक्रांताओं द्वारा की गयी ज्यादती की परतें भी यदा-कदा खुलती रहती हैं। एज़्टेक कही जाने वाली मैसोअमेरिकन सभ्यता का अंत भी मध्ययुगीन यूरोप की दरिंदगी का एक भवावह प्रमाण है। मध्य एशिया में मैरोनाइट क्रिश्चियन्स ने भी इतिहास के दंश को झेला है और बुद्धिज़्म भी इससे अछूता नहीं रहा है।
मुझे लगता है, मध्ययुग के कथित आक्रांताओं की बर्बरता उस संक्रमण का प्रमाण भर है जिससे मनुष्य और मानव सभ्यता आज भी गुजर रही है। निश्चित ही समाज ने अपने गठन के साथ ही सभ्य होना शुरू कर दिया होगा; पर यह एक सतत प्रक्रिया है। समय के साथ साथ हमेशा ही नये मूल्यों, सही-गलत की नितांत नयी परिभाषाओं को गढ़ा है हमने। व्यक्ति, समानता, निजता, स्वतंत्रता, राष्ट्र, नैतिकता, विधि का शासन इत्यादि- ये सारे विचार, सारी अवधारणाएं सापेक्ष हैं। समय के प्रवाह में ही इनका जन्म और विकास हुआ है। मध्ययुगीन समाज में समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, निजता इत्यादि का आयाम वैसा नहीं रहा था जैसा आज है। बाली, शम्बूक या फिर महिषासुर के वध को आज के परिपेक्ष्य में देखना उतना ही निरर्थक ओर हास्यास्पद है जितना कि वर्तमान संदर्भों में किसी को मात्र इसलिए श्रेष्ठ या विशिष्ठ मान लेना क्योंकि वह किसी उच्च कहे जाने वाले कुल में जन्मा है।
स्पष्ट है, सभ्यता, नैतिकता जैसी अवधारणाओं में सापेक्षता के साथ साथ एक गयात्मकता भी अवस्थित है। हम समय के साथ, इतिहास के साथ सभ्य हुए हैं, परिष्कृत हुए हैं और यह क्रम आज भी जारी है।
कुछ राजाओं, बादशाहों, उनकी ज्यादतियों, कुछ युद्धों, कुछ चेहरों को अपने वर्तमान पर हावी होने देना ज़रूरी नहीं है; ये सब हमारे अतीत का, बेशक हमारे इतिहास का हिस्सा हो सकते हैं, पर निश्चित ही हमारी नियति का नहीं। और यक़ीन मानिये -भविष्य के सपने अतीत बन चुके इतिहास से कहीं ज्यादा खूबसूरत होते हैं।