ब्रजमोहन जोशी
हास-परिहास, व्यंग-विनोद, मौज- मस्ती, सामाजिक मेलजोल तथा अभिव्यक्ति का प्रतीक, लोकप्रिय राष्ट्रीय पर्व होली अथवा होलिकोत्सव वास्तव में एक यज्ञ है। सोमयज्ञ। इसका मूल स्वरूप आज विस्मृत हो गया है। होली के उद्भव और विकास को समझने के लिए हमें उस वैदिक सोमयज्ञ के स्वरूप को समझना पड़ेगा, जिसका अनुष्ठान इस महापर्व के मूल में निहित है।
वैदिक यज्ञों में सोमयज्ञ सर्वोपरि है। वैदिक काल में प्रचुरता से उपलब्ध सोमलता का रस निचोड़ कर उससे जो यज्ञ सम्पन्न किए जाते थे, वे सोमयज्ञ कहे गये है। यह सोमलता कालान्तर में लुप्त हो गयी। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसके अनेक विकल्प दिये गये हैं, जिनमें पूतीक और अर्जुन वृक्ष मुख्य हैं। अर्जुन वृक्ष को हृदय के लिए अत्यन्त शक्तिप्रद माना गया है। आयुर्वेद में इसके छाल की हृदय रोगी के निवारण के सम्बन्ध में विशेष प्रशंसा की गयी है। महाराष्ट्र में सम्प्रति सोमयागों के अनुष्ठान में रांशेर नामक वनस्पति का प्रयोग किया जाता है। सोमरस इतना शक्तिवर्धक और उल्लासकारक होता था कि उसका पान कर वैदिक ऋषियों को अमरता जैसी आनन्दानुभूति होती थी- ‘अपाम सोमममृता अभूत’ (ऋग्वेद)! इन सोमयागों के तीन प्रमुख भेद थे- एकाह, अहीन और सत्रयाग। यह वर्गीकरण अनुष्ठान दिवसों की संख्या के आधार पर है। सत्रयाग का अनुष्ठान पूरे वर्ष भर चलता था। उसमें प्रमुख रूप से ऋत्विग्गण ही भाग लेते और यज्ञ का फल ही दक्षिणा के रूप में मान्य था। गवामयन भी इसी प्रकार का एक सत्रयाग है, जिसका अनुष्ठान 360 दिनों में सम्पन्न होता है। इसका उपान्त्य (अन्तिम दिन स े पूर्व का) दिन ‘महाव्रत’ कहलाता है। ‘महाव्रत’ में प्राप्य ‘महा’ शब्द वास्तव में प्रजापति का द्योतक है,जो वैदिक परम्परा में सम्वत्सर के अधिष्ठाता माने जाते हैं और उन्हीं पर सम्पूर्ण वर्ष की सुख समृद्धि निर्भर है। महाव्रत के अनुष्ठान का प्रयोजन वस्तुतः इन प्रजातियों को प्रसन्न करना है – ‘प्रजापति वारव’ महास्तस्यैतद्व ब्रतमन्नमेव( यन्महाब्रतम)।
‘महाव्रत’ के अनुष्ठान के दिन वर्ष भर यज्ञानुष्ठान में व्यस्त श्रांत-क्लांत ऋत्विग्गण अपना मनोविनोद करते थे। इस दिन यज्ञानुष्ठान के साथ कुछ ऐसे आमोद-प्रमोद पूर्ण कृत्य भी किये जाते थे, जिनका प्रयोजन आनन्द और उल्लासमय वातावरण की सृष्टि करना है। होलिकोत्सव इसी महाव्रत की परम्परा का संवाहक है। होली में जलायी जाने वाली आग यज्ञवेदी में निहित अग्नि का प्रतीक है। वैदिक युग में इस यज्ञ वेदी के समीप एक उदुम्बर वृक्ष (गूलर) की टहनी गाड़ी जाती थी, क्योंकि गूलर का फल माधुर्य गुण की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है। ‘हरिश्चन्द्रोपाख्यानः में कहा गया है कि जो निरन्तर चलता रहता है, क्रम में निरत रहता है, उसे गूलर के स्वादिष्ट फल खाने के लिए मिलते हैं। ‘चरन वै मधु विन्देत चरन्स्वादुमुदुम्बरम’ (एतरेय ब्राह्मण)। गूलर का फल इतना मीठा होता है कि पकते ही इसमें कीड़े पड़ने लगते हैं। उदुम्बर वृक्ष की यह टहनी सामगान की मधुमयता की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करती थी। इसके नीचे बैठे हुए वेदपाठी अपनी अपनी शाखा के मंत्रों का पाठ करते थे। सामवेद के गायकों की चार श्रेणियाँ थीं- उदान्ता, प्रस्तोता, प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य। पहले ये सामगान के अपने अपने भाग को गाते थे, फिर सभी मिलकर एक साथ समवेत रूप से गान करते थे। होली में लकड़ियों को चुनने से लगभग दो सप्ताह पूर्व गाड़ी जाने वाली एण्ड वृक्ष की टहनी इसी औदुम्बरी (उदुम्बर की टहनी) का प्रतीक है। धीरे-धीरे जब उदुम्बर का वृक्ष मिलना कठिन हो गया तो अन्य वृक्षों की टहनियाँ औदुम्बरी के रूप में स्थापित की जाने लगीं। एरण्ड एक ऐसा वृक्ष है, जो सर्वत्र सुलभ माना गया है। संस्कृत में एक कहावत है, जिसके अनुसार जहाँ कोई भी वृक्ष सुलभ न हो, वहाँ एरण्ड को वृक्ष मान लेना चाहिए- ‘निरस्तपादये देशे एरण्डोपि द्रुमायते।’ ‘उदान्ता’ उदुम्बर काष्ठ से बनी आसन्दी पर ही बैठकर सामगान करता है। सामगाताओं की यह मण्डली महावेदी के विभिन्न स्थानों पर घूम-घूम कर पृथक्-पृथक् सामों का गान करती थी। सामगान के अतिरिक्त महाव्रत- अनुष्ठान के दिन यज्ञ वेदी के चारों ओर, सभी कोणों में दुन्दुभि अर्थात् नगाड़े भी बजाये जाते थे। इसके साथ ही जल से भरे घड़े लिए हुई स्त्रियाँ ‘इदम्मधु इदम्मधु’ (यह मधु है, यह मधु है) कहती हुई यज्ञ वेदी के चारों और नृत्य करती थीं। ताण्डय ब्राह्मण में इसका विशद् विवरण उपलब्ध होता है। उस समय वे निम्नलिखित गीत को गाती भी जाती थीं:-
गाओ हाँ रे सुरभय इदम्मधु,
गाओ घृत्तस्य मातर इदम्मधु।
इस नृत्य के समानांतर अन्य सभी स्त्रियाँ और पुरुष वीणा वादन करते थे। उस समय प्रचलित वीणाओं के अनेक प्रकार इस प्रसंग में मिलते हैं। इनमें अपघाटिला, काण्डमयी, पिच्छोदरा, बाण इत्यादि मुख्य वीणायें थीं। ‘शततन्त्री’ नाम से विदित होता है कि कुछ वीणायें सौ-सौ तारों वाली भी थीं। इन्हीं शततन्त्रिका जैसी वीणाओं से संतूर का विकास हुआ। कल्पसूत्र में महाव्रत के समय बजायी जाने वाली कुछ अन्य वीणाओं के नाम भी मिलते हैं। ये हैं- अलाबु, वक्रा (समतन्त्रिका, वेत्र वीणा) कापिशीष्णी, पिशिल वीणा (शूर्पा) इत्यादि। शारदीया वीणा भी होती थी, जिससेे आगे चलकर आज के सरोद का विकास हुआ।
होली में दिखने वाली हँसी-ठिठोली का मूल ‘अभिगर- अपगर -सम्वाद’ में निहित है। भाष्यकारों के अनुसार- अभिगर, ब्राह्मण का वाचक है और अपगर- शूद्र का। ये दोनों एक दूसरे पर आक्षेप, प्रत्याक्षेप करते हुए हास-परिहार करते थे। इसी क्रम में विभिन्न प्रकार की बोलियाँ बोलते थे, विशेष रूप से ग्राम्य बोलियाँ बोलने का प्रदर्शन किया जाता था। महाव्रत के ये विधान वर्ष भर की एकरसता को दूर कर यज्ञानुष्ठाता ऋत्विजों को स्वस्थ मनोरंजन का वातावरण प्रदान करते थे। यज्ञों की योजना ऋषियों ने मानव जीवन के समानान्तर की है, जिसमें हास-परिहास अभिन्न अंग है। महाव्रत के दिन घर-घर में विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पकवान बनाये जाते थे। ‘कुले कुलेेन्नं क्रियते।’ घर में कोई जब उस दिन पकवानों को पकाये जाने का कारण पूछता था, तब उत्तर दिया जाता था कि यज्ञानुष्ठान करने वाले इन्हें खायेंगे। लेकिन हास-परिहास और मौज-मस्ती के इस वातावरण में भी सुरक्षा के सन्दर्भ को ओझल नहीं किया जाता था। राष्ट्ररक्षा के लिए जन-मानस को सजग बने रहने की शिक्षा देने के लिए इस अवसर पर यज्ञवेदी के चारों ओर शस्त्रास्त्र और कवचधारी राज पुरुष तथा सैनिक परिक्रमा भी करते रहते थे।
होली के आयोजन में महाव्रत के इन विधि-विधानों का प्रभाव अद्यावधि निरन्तर परिलक्षित होता है। दोनों के अनुष्ठान का दिन भी एक ही है- फाल्गुनी पूर्णिमा।
प्रारम्भ में पर्वों और उत्सवों का आरम्भ अत्यन्त लघु बिन्दु से होता है, जिसमें निरन्तर विकास होता रहता है। सामाजिक आवश्यकतायें इसके विकास में विशेष भूमिका निभाती हैं। यही कारण है कि होली, जो मूलतः एक वैदिक सोमयज्ञ के रूप में अनुष्ठान से आरम्भ हुआ, आगे चलकर परम भागवत प्रहलाद और उनकी बुआ होलिका के आख्यान से भी जुड़ गया। गवामयन के अन्तर्गत महाव्रत के इस परिवर्द्धित और उपबृहिंत पर्व संस्करण में ‘नव शस्येष्टि’ (नयी फसल के अनाज का सेवन करने के लिए किया गया यज्ञानुष्ठान) तथा मदनोत्सव अथवा वसंतोत्सव का समावेश भी इसी क्रम में आगे हो गया। मानव जीवन में धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ काम भी पुरुषार्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ‘कामस्तदग्रे समवर्ततार्धि’ कह कर वेदों ने भी इसे स्वीकार किया है। नृत्य संगीत प्रभृति समस्त कलायें, हास-परिहास, व्यंग, विनोद तथा आनन्द और उल्लास इसी तृतीय पुरुषार्थ के नानाविध अंग हैं। होलिकोत्सव के रूप में हिन्दू समाज ने मनोरंजन को जीवन में स्थान देने के लिए तृतीय पुरुषार्थ के स्वस्थ और लोकोपयोगी स्वरूप को धर्माधिष्ठित मान्यता प्रदान की है, जैसा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण का स्पष्ट कथन हैं कि:-
‘‘धर्मा विरुद्वो भूतेषु कामोे स्मिथ भरतर्षभ।’’
हे अर्जुन! मैं प्राणियों में धर्मानुकूल काम-प्रवृत्ति हूँ।
इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता है। खेत से नवीन अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है। उस अन्न को होला कहते हैं। इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।
होलिकोत्सव मनाने के सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित हैं। ऐसी मान्यता है कि इस पर्व का सम्बन्ध काम-दहन से है। भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था। तभी से इस पर्व का शुभारंभ हुआ। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमापर्यन्त आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है। भारत के कई प्रदेशों में होलाष्टक शुरू होने पर पेड़ की शाखा काटकर उसमें रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े बांधते हैं। इस शाखा को जमीन में गाड़ दिया जाता है। सभी लोग इसके नीचे होलिकोत्सव मनाते हैं। यह त्योहार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका की स्मृति में भी मनाया जाता है। इस दिन आम्रमंजरी तथा चन्दन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। कहते हैं कि जो लोग फाल्गुन पूर्णिमा के दिन एकाग्र चित्त से हिंडोले में झूलते हुए श्री गोविन्द पुरुषोत्तम के दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही वैकुंठ लोक में वास करते हैं। भविष्य पुराण में कहा गया है कि एक बार नारद जी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा- राजन, फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन सब लोगों को अभय दान देना चाहिये, जिससे सम्पूर्ण प्रजा उल्लास पूर्वक हँसे। बालक गाँव के बाहर से लकड़ी-डंडे लाकर ढेर लगायें। होलिका का पूर्ण सामग्री सहित विधिवत पूजन करें। होलिका दहन करें। ऐसा करने से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं। होली सम्मिलन, मित्रता एवं एकता का पर्व है। इस दिन द्वेष भाव भूलकर सबसे प्रेम और मित्रता से मिलना चाहिए। एकता, सद्भावना एवं उल्लास का परिचय देना चाहिए। यही इस पर्व का मूल उद्देश्य एवं संदेश है।