राजीव लोचन साह
पता नहीं वर्षा अधिक हो रही है या कि हमारी बारिश झेलने की शक्ति कम पड़ रही है।
अभी-अभी मानसून डट कर बरसा है। लगभग एक सप्ताह तक। अर्से के बाद ऐसी सतझड़ी देखने को मिली। दो-तीन महीने से लगातार जंगलों की आग के दुःसंवाद सुनने के बाद इस वर्षा से राहत मिलनी थी। मगर तत्काल पहाड़ों में तबाही के समाचार मिलने लगे। पहाड़ियों में भू-स्खलन होने लगा, चट्टाने गिरने लगीं, मकान टूटे, मोटर सड़कें बन्द हो गयीं, पुल टूट गये, उफनायी हुई सड़कों पर कहीं कारें डूब गयीं तो कहीं दुपहिया बहने लगे, बाजारों की दुकानों के अन्दर पानी घुस कर बर्बादी करने लगा, बिजली-पानी का वितरण बाधित हो गया। बच्चों के स्कूल हफ्ते-हफ्ते तक बन्द रहे। तसल्ली की बात यही रही कि मनुष्यों के हताहत होने की खबरें नहीं मिलीं।
एक जगह बैठ कर पूरे पहाड़ के बारे में निर्णय नहीं दिया जा सकता। मगर जो कुछ आँखों के सामने है और जहाँ से विश्वसनीय सूचनायें मिल रही हैं, यह कहा जा सकता है कि यह प्रकृति का प्रकोप कम और मनुष्य की लापरवाही ज्यादा है। नैनीताल के जो आँकड़े हमारे पास हैं, उनके अनुसार इस एक सप्ताह में लगभग बारह इंच यानी कि 30 सेमी. वर्षा रिकॉर्ड की गई है। इतनी वर्षा तो मुम्बई में 7 जुलाई को सिर्फ चौबीस घंटों में हो गई। अपने बचपन में यानी पचपन-साठ साल पहले दो दिनों के भीतर दस-बारह इंच बारिश का हो जाना हमारे लिये सामान्य बात थी। साल में 120 इंच यानी कि 300 सेमी. वर्षा औसत मानी जाती थी। अब यह बारिश कम हो गई है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा का स्वभाव भी बदल गया है। अब सब जगह समान रूप से वर्षा नहीं होती। कहीं बादल फट जाता है तो उससे दस किमी. की दूरी पर एकदम मामूली बारिश होती है।
मगर हमारे तौर-तरीके बदले हैं। पहले बसासतों का एक ढंग होता था। गाँव सुरक्षित ढलान पर होते थे। ऊपर जंगल होते थे और नीचे खेत। कभी गाड़-गधेरे उफनाये तो पहला नुकसान खेतों का होता था। पहाड़ हमेशा टूटते रहे हैं, मगर बरसात में वे आततायी नहीं लगते थे। इसे गड़बड़ाया तथाकथित विकास ने, जब मोटर सड़कें बनने लगीं और पारम्परिक पहाड़ी घरों के स्थान पर कंक्रीट के घर बनने लगे। सड़कों का बनना जरूरी था, मगर किस ढलान की पहाड़ियों को काटना है, मलबे का निस्तारण कैसे हो, पानी को सुरक्षित दिशा कैसे दी जाये, इस बारे में अगर कोई नियम होते भी हों तो उनका पालन होता नहीं दिखाई दिया। इंजीनियरों और ठेकेदारों के लालच के भीतर नियम लापता हो गये। यही मलबा और पानी मुख्यतः आफत के कारक बनते हैं। फिर बुलडोजर और जे.सी.बी. मशीनें आयीं। मशीनों का होना अच्छा है। मगर उनके इस्तेमाल के पीछे विवेक का होना भी जरूरी है। अब कहीं सड़क अवरुद्ध हुईं तो मशीनें कुछ ही मिनटों में रास्ता साफ कर देती हैं। पहले इसी काम के लिये घण्टों, कभी-कभी दिन भी लग जाते थे। मगर ये भारी-भरकम मशीनें पहाड़ के अस्थिपंजर भी ढीले कर देती हैं। नैनीताल में विगत वर्ष अतिक्रमण हटाने के नाम इन मशीनों से ऊटपटाँग तोड़फोड़ की गई। तत्काल पास में ही एक खड़ा मकान स्वतः लुढ़क गया, जबकि उस वक्त दूर-दूर तक बारिश का नाम भी नहीं था। और अब साल भर बाद बरसात में उस इलाके के दर्जनों घरों में खतरा मँडराने लगा है।
हमारा विकास मशीनों पर इस तरह निर्भर हो गया है कि पूरे साल सड़कों की देखरेख करने वाले मजदूरों के गैंग, जो सड़कों की मरम्मत करते थे, नालियाँ साफ रखते थे, हटा दिये गये। उसी तरह, जिस तरह वन विभाग ने फायर लाईन काटने वाले अपने मजदूर हटा दिये, इस प्रत्याशा में कि अब तो हैलीकॉप्टर आग बुझा ले जायेंगे। नालियों का रखरखाव न होने से बरसात का पानी आवारा और दुष्ट होने लगता है और दुर्घटनायें पैदा करता है। अतः मशीनो के साथ मानवीय श्रम का होना भी जरूरी है, ताकि मशीनों का इस्तेमाल वहीं किया जाये, जहाँ जरूरी है।
जहाँ पर शहर हैं, उनकी बरसाती पानी को नियंत्रित करने की अपनी व्यवस्था थी। अंगेजों के बसाये नैनीताल में तो ऐसी शानदार नाली प्रणाली थी कि इसे बर्बाद करने की तमाम कोशिशों के बावजूद 180 साल से यह शहर अभी सुरक्षित है। जैसे-जैसे शहरों का विस्तार हुआ, मकान ऊटपटाँग ढंग से बनने लगे। शहरी निकायों या प्राधिकरणों का उन पर प्रभावी नियंत्रण नहीं रहा। ये संस्थायें तो बनी-बनाई जल निकासी प्रणालियों की व्यवस्था को भी बनाये नहीं रख सकीं। नैनीताल में ही, जहाँ इतनी सुन्दर नाली प्रणाली है, अब मकानों से आच्छादित हो चुके इलाके में नयी नालियाँ बननी चाहिये। मगर ऐसा नहीं हो रहा है। बल्कि पुरानी घोड़िया सड़कों के कंक्रीट या डामर में तब्दील हो जाने के बाद अब तेज बरसात में ये सड़कें स्वयं ही खतरनाक गधेरा बन जाती हैं।
गाँवों में पाथर की छत वाले मकान गये। उन्हें जाना ही था। अब जंगलात के कानूनों के कारण खानों से पाथर निकालना ही असम्भव हो गया है। अब तो पत्थर का काम करने वाले राज-मिस्त्री भी नहीं मिलते। मगर इन पारम्परिक मकानों की जगह ईंट-लेंटर वाले जो मकान बने, उनमें आधुनिक इंजीनियरिंग के नियमों का पूरा पालन नहीं किया गया। न ही पानी की निकासी का ध्यान दिया गया। ऐसे तमाम कारण बरसात को खतरनाक बना रहे हैं, जिससे भ्रम होता है कि प्रकृति दुश्मन हो गयी है।
सरकारी विकास का तो क्या कहें! एक प्रधानमंत्री की जिद पर ऑल वेदर रोड जो बन रही है, पहाड़ों के लिये नासूर बन गयी है। इसके कारण चार धाम क्षेत्र में आपदा आना पहाड़ का स्थायी भाव हो गया है। न जाने कितने साल लगेंगे, यहाँ कमजोर पहाड़ियों को स्थिर होने में!
हम प्रकृति को दोष देना बन्द करें और बरसात में होने वाली आपदाओं से बचने के लिये हम अपने अन्दर झाँकें कि हम कहाँ हैं।
फोटो इंटरनेट से साभार