बिजू नेगी
मानव प्रजातियां पिछले 70,000 सालों से जटिल भाषाओं का प्रयोग करती आ रही हैं। ऐसे में, भारत के इतिहास में मौलिक युगान्तर परिवर्तनों को समझने के लिए सबसे सही तरीका होगा इस बात का परिक्षण करना कि भारत अपनी भाषाओं के साथ क्या करता आया व स्वयं भाषा भारत को किस तरह पुनः गढ़ती रही।
भारत का संपूर्ण अतीत, चार स्पष्ट सीमांकित भाषा काल में विभाजित किया जा सकता है (1) जब मानव सर्वप्रथम उपमहाद्वीप में बसने लगे, तबसे पहली सभ्यता के अवसान तक जिस दौरान मौखिक व प्राकृत भाषाओं का उदय हुआ; (2) 1500 ई.पू. के आसपास शुरू होकर प्रथम सहस्त्राब्द के अंत तक, जिसने मौखिक भाषाओं को “लिखित व “साहित्यिक’ भाषाओं के तौर पर विकसित होते हुए देखा; (3) सन् 1000 से सन् 1800 तक जो काल भाषाओं के उन्नति का रहा; तथा (4) वह काल जिस में भारत, भाषाई राज्यों के संघ के तौर पर उभरा और जिस दौरान मुद्रण प्रौद्योगिकी का वर्चस्व रहा।
इसमें कोई संशय नहीं है कि संस्कृत से संपर्क में आने से पहले, दक्षिण भारत व संभवतः भारत के अन्य विभिन्न इलाकों में भी आद्य द्रविड़ किस्म की भाषा विद्यमान थी। साथ ही, द्वितीय सहस्त्राब्द ईसा पूर्व में दक्षिण एशिया में स्थानांनतरित ऑस्ट्रो-एशियाई लोगों की भाषाएं भी मौजूद थीं। सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के बाद, द्वितीय सहस्त्राब्द ईसा पूर्व में इन्डो-आर्य (हिन्द-आर्य) लोगों का कई चक्रों में आगमन से परस्पर अंतःक्रिया बढ़ी और एक नये युग का प्रादुर्भाव हुआ जिसकी व्याख्या हम भाषा-मिश्रण के युग के तौर कर सकते हैं।
हम समझते हैं कि आज बोली जा रही सर्वाधिक भाषाएं संस्कृत से ली गयीं हैं, कुछ तमिल से और उत्तर-पूर्व में कुछ अन्य साइनो-तिब्बती (चीनी-तिब्बती) या तिब्बतो-बर्मी मूल की है। यह भी ज्ञात है कि हमारे यहां ऑस्ट्रो-एशियाई से निकली भाषाएं हैं और अरबी व फारसी ने भी हमारी भाषाओं को शब्दों का विशाल भंडार दिया है। इनके साथ, अंग्रेजी को भी जोड़ें, जिससे नये शब्दों व शब्दावली की बड़ी संख्या हमें मिली है। परन्तु हम कम ही जानते हैं कि पाली व कुछेक प्राकृत का भी हमारी भाषाओं में योगदान उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि संस्कृत, तमिल, अरबी, फारसी व अंग्रेजी का।
भारत में आधुनिक भाषाओं के आविर्भाव की अवधि के दौरान, जब चंद ही विद्वानों ने संस्कृत में रचना करना जारी रखा, अधिकांश चिंतकों, संतों व कवियों ने जैन व बौद्ध के सर्वाधिक केन्द्रीय मूलग्रथों के प्रलेखन के लिए प्राकृत-आधारित भाषाओं की ओर ही उन्मुख होना चुना। अर्थात्, द्वीतीय सहस्त्राब्द के शुरू होने तक, भारतीय लोग संस्कृत व पाली से
आगे निकल चुके थे।
लेकिन संस्कृत की तुलना में किसी भी विद्वान ने पाली व प्राकृत पर उतना ध्यान नही दिया। संविधान सभा ने भी भाषाओं को लेकर जब एक अलग अनुसूची लाना तय किया, उसमें संस्कृत को सम्मिलित किया गया जबकि वह दैनिक बोल-चाल की भाषा के तौर पर पिछले एक हजार साल से भी अधिक समय से इस्तेमाल नही हो रही थी। पर संविधान सभा की बहसों में पाली का कहीं जिक्र भी नही हुआ।
संस्कृत के अलावा, पाली, प्राकृत व द्रविड़ भाषाओं का भारत की भाषाई संरचना में योगदान का यदि अनुमान लगाना हो तो वर्तमान भारत के मानचित्र को देख लेने से मदद मिल सकती है। उत्तर-पूर्व की भाषाएं न संस्कृत, न तमिल से ही निकली हैं। दक्षिण तथा गोवा, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व बिहार की भाषाएं तमिल अथवा पाली द्वारा पोशित हुई हैं। इनकी तुलना में, वे इलाके जिनकी भाषाएं सीधे संस्कृत से निकली हैं, वे कम हैं। चूंकि संस्कृत मूलतः संभ्रांत राजशाही व पुरोहित वर्गों की भाषा थी, प्राचीन भारत में प्राकृत आमजन या गैर-संभ्रांत की भाषा के तौर पर प्रयुक्त हुई।
तीसरी से दसवीं सदी तक हम पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में नयी भाषाओं का उभार संस्कृत के आधिपत्य के खिलाफ क्षेत्रीय आंकाक्षाओं की अभिव्यक्ति के तौर पर देखते हैं। इसी तरह का आंदोलन दक्षिण में तमिल के संदर्भ में भी हुआ, जो दो हजार सालों के अविरल इतिहास के बाद तेलगु (ग्यारहवीं शताब्दी) में प्रशाखित हुई। कन्नड़ उससे पहले ही, तमिल की एक स्वतंत्र बोली (पांचवी शताब्दी) बन चुकी थी। नौ सौ वर्षों बाद, तमिल व कन्नड़ ने संयुक्त रूप से मलयालम को जन्म दिया (चौदहवीं शताब्दी)। उत्तर में, अपभ्रंश के तौर पर जानी जाने वाली क्षेत्रीय बोलियों ने स्वयं को स्वतंत्र भाषा होने का दावा किया। फलस्वरूप, पूर्वीय क्षेत्र में मध्य इंडो-आर्य बोली बांग्ला व उड़िया में विभक्त हुई (दसवीं शताब्दी)। तदोपरान्त, बांग्ला ने असमिया को जन्म दिया (तेरहवीं शताब्दी)। उत्तर-पश्चिमी बोली, कश्मीरी (तेरहवीं शताब्दी), पंजाबी (चोदहवीं शताब्दी) व सिंधी (पन्द्रहवीं शताब्दी) में विकसित हुई। मध्य इंडो-आर्य के पश्चिमी अपभ्रंश ने अपने को हिंदी, गुजराती (ग्यारहवीं शताब्दी) व मराठी (ग्यारहवीं शताब्दी) में बांटा। हिंदी कुल की बोलियों ने चौदहवीं शताब्दी में स्वायत्तता हासिल की। इस्लामी भाषाओं फारसी (तेरह से उन्नीस शताब्दी) व अरबी (ग्यारह से उन्नीस शताब्दी) से अंतक्रिया में उर्दू पैदा हुई जो स्वदेशी स्तर पर ही विकसित होकर एक महान साहित्यिक भाषा बनी। सभी भाषाएंपन्द्रहवीं शताब्दी के अंत तक साहित्यिक भाषाएं बन चुकी थीं। इतनी सारी भाषाओं में परिपक्व साहित्यिक परम्पराओं का आविर्भाव होना व बने रहना, भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का सर्वोच्च चमत्कार है।
सभी भाषाई सीमाओं के आर-पार तथा एक लंबी काल अवधि तक भक्ति काव्य का ज्वार संस्कृत काव्य के अति-रूढ़ अपरिवर्तनीय परिपाटी के उन्मूलन, सैद्धांतिकी व नीतिशास्त्र पर ब्राह्मणवादी एकाधिकार के विरोध तथा क्षेत्रीय आंकाक्षाओं की पहचान को स्थापित करने के तौर पर विकसित हुआ था। भक्ति अपने साथ एक नया सामाजिक फलसफा, सैद्धांतिकी व सौन्दर्यबोध लायी। मगर, भक्ति एक क्रान्किारी सामाजिक, साहित्यिक व रहस्यवादी आवेश का आंदोलन बन कर ही रह गयी, जिसने सांस्कृतिक व धर्मग्रंथ संबंधी ज्ञान पर ब्राह्मणवादी एकाधिकार को लेकर समाज के उत्पीडित वर्ग द्वारा चुनौती तो प्रस्तुत की लेकिन अपने द्वारा प्रतिपादित मूल्यों को सुव्यवस्थित सिद्धांत के तौर पर विकसित करने की कभी कोशिश नहीं की। फलस्वरूप, वह ज्ञान प्रसारण के औपचारिक तंत्र पर खरोंच तक नहीं कर सका। मार्ग परम्परा ने भक्ति के मात्र ईश्वरपरक सार को स्वीकार किया और उसकी बागी आध्यात्मिकता की उपेक्षा कर दी। मुक्त अनुभव व औपचारिक ज्ञान के बीच फासला, आधुनिकता की ओर व्यापक परिवर्तन न हो पाने की जड़ में था जिसे भक्ति साहित्य हासिल कर सकता था।
1786 में, सर विलियम जोंस (1746-1794) ने अपनी सर्वाधिक महत्वपूर्ण टीका दुनिया के समक्ष प्रस्तुत की, जब उन्होने संस्कृत, यूनानी व लातिन भाषाओं को एक ही वंशज का बताया और यह भी कि वे तीनों स्वयं गॉथिक व कैल्टिक (दोनों जर्मन) भाषाओं तथा फारसी से भी संबंधित हो सकती है। उनके इस कथन में एक पुरानी “आद्य-इंडो-यूरोपीय भाषा” के होने का संकेत था।
पश्चिमी संज्ञानात्मक श्रेणियों के सुसंगत ज्ञान तथा प्रमुखतः मौखिक समुदायों के जीवन से जुड़ी ज्ञान परम्पराओं के बीच सहयोग व द्वंद आज भी भारत में कल्पनाशील परिवर्तन को उद्वेलित तथा बौद्धिक चुनौती पेश करता है जिससे चिंतकों को इक्कीसवीं शताब्दी में जूझना होगा।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में, भाषाई मुद्दे पर सार्वजनिक पहल सर्वप्रथम 1927 में हुई जब कांग्रेस ने भाषाई राज्यों की
स्थापना पर प्रस्ताव पारित किया। यह भारत राष्ट्र में अंततः जुड़ने वाले इलाकों की भाषाई पहचान को संरक्षित करने की
जरूरत की स्पष्ट स्वीकारोक्ति थी। 1928 में जॉर्ज ग्रियरसन के व्यापक भारतीय भाषाई सर्वेक्षण का समापक प्रकाशन हुआ जिसमें 189 भाषाओं का विस्तृत ब्यौरा था और कुछ सैकड़े अन्य जिन्हे उन्होने “बोली” माना। यह जानने के लिए कि क्या भाषाई राज्य एक सक्षम विचार होगा कि नहीं, 1948 में डा राजेन्द्र प्रसाद द्वारा एक समिति गठित की गई और एक अन्य, उस प्रस्ताव की जांच करने के लिए। अंततः 1955 में एक राज्य पुनर्गठन आयोग नियुक्त किया गया, जिसकी सिफारिश पर भाषा को राज्य की पहचान को मूल में रखते हुए कुछ राज्यों का सर्जन किया गया। 1961 की जब जनगणना की गई तो भारत की जनता ने 1652 भाषाओं को अपनी मातृ-भाषा के तौर पर दर्ज किया। संविधान की आठवीं अनुसूचि में विशेषतः नामित भाषाओंः अनुसूचित भाषाओं के तौर पर 14 भाषाएं रखी गयीं। वर्तमान में यह संख्या 22 हो गयी है।
ऐसा नहीं है कि भाषा के मुद्दे में अड़चनें नहीं है। इसलिए मेरा मानना है कि सरकारी मशीनरी द्वारा नहीं बल्कि भारत के लोक को सम्मिलित कर भारतीय भाषाओं की उनकी उचित सामाजिक व्याख्या के साथ पुनः गणना किया जाना अत्यंत जरूरी है जिससे कि भारत को भाषाई आधार पर विखण्डित होने से बचाया जा सके।
भारत कई सहस्त्रसाब्दियों से अपनी सोच, जीवन व आवास में बहु-भाषाई रहा है। लेकिन भारतीय भाषाओं की कहानी अति जटिल है। अतीत व वर्तमान में उपमहाद्वीप में भाषाओं की संख्या इतनी ज्यादा है कि उनका कोई एक तार्किक वर्णन नही हो सकता। बस अतनी ही उम्मीद की जा सकती है कि न तो अति-राष्ट्रवाद में फंसते हुए और न ही ऑपनिवेशिक ज्ञान के बोझ तले दब कर हम अपना एक स्वतंत्र बौद्धिक रास्ता तय करने की जरूरत को पहचान सकेंगे। और किसी एक दिन हम समझ सकेंगे भारत वास्तव में क्या रहा है और वही बना रहेगा, मूलतः एक भाषाई सभ्यता।