खुशबू हूं
मैं फूल नहीं
जो मुरझाऊंगा
जब-जब मौसम आऐगा
मैं आऊंगा-मैं आऊंगा।
हां टिहरी गढ़वाल की हेंवलघाटी के कुड़ी गांव में 8 मई 1950 को जन्मे गांधीवादी सर्वोदयी कार्यकर्ता, दुःसाहसी, सत्यनिष्ठ, बेबाक, रचनाधर्मी और मानवीय संवेदनाओं से लबालब भरे कलम के धनी पत्रकार कुंवर प्रसून की जिंदगी आंदोलन करते-करते खुद एक रचनाधर्मी आंदोलन बन गई थी। कुंवर प्रसून जीवन भर तरह-तरह के सार्थक आंदोलनों से जुड़े रहे, चाहे वह चिपको आंदोलन हो, शराबबन्दी आंदोलन हो, या शिक्षा के समान अवसरों का आंदोलन हो, बीज बचाओ आंदोलन, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन, खनन आंदोलन या फिर कोई और सामाजिक आंदोलन क्यों ना हो. आन्दोलन करते-करते कुंवर प्रसून का जीवन ही आंदोलनकारी सरोकारों का जीवंत दस्तावेज बन गया था। कुंवर प्रसून का व्यक्तित्व इतने भव्य जीवन मूल्यों और चटकीले रंगों से भरा है कि उसकी गहराई की थाह लेना किसी समुंदर में डुबकी मारने जैसा है।
कुंवर प्रसून का रचना संसार इतना व्यापक है कि उसको एक लेख में समेटना असंभव है। कुजणी पट्टी में जन्मे इस निर्भीक सिद्धांतवादी पत्रकार, लेखक विचारक और आंदोलनकारी के बारे में लिखना आज मेरे लिए संभव नहीं है क्योंकि कुंवर प्रसून को संपूर्णता में जानने को मुझे अभी वक्त लगेगा। कुंवर प्रसून का जन्म ‘भंडारी ठाकुर’ परिवार में हुआ पर उन्होंने अपने नाम के आगे से छात्र जीवन में ही जातिबोधक शब्द ‘भंडारी’ हटाकर खुद को ‘‘कुंवर प्रसून’’ बना दिया। वह कितने खुद्दार थे इस बात का पता मुझे उनकी मौत के बाद उनको चिता पर रखते वक्त उनके पीले पड़े पांवों को देखकर लगा। मैंने सोचा हल्दी से पांव पीले पड़े हैं पर बाद में सुना कि उचित ईलाज और पोषण के अभाव के चलते पांवों का रंग पीला पड़ा है पर खुद्दार प्रसून जी ने किसी को कुछ न कहा और अपने बीमारी को भी एक मूक आन्दोलन बनाकर अपनी आहुति ही उसमें दे दी. जितना मैंने उनको कई साल साथ काम करके जाना समझा वही लिखने का दु:साहस कर रही हूँ.
कुंवर प्रसून! एक ऐसा नाम जिसको याद करते ही जेहन में खाका खिंचता है- एक औसत कद काठी, साधारण सा पहनावा, आधे काले-सफेद हवा में उड़े बाल और वैसी ही दाड़ी, बोल चाल में बहुत सौम्य मगर एक अजीब सा ठहराव, गंभीरता व शांति उस शक्स के खामोश व्यक्तित्व में कूट-कूट कर भरी थी। कंधे पर लटका खद्दर का झोला और हाथ पर घड़ी इस शक्स की पहचान थी। दीखते वह सौ प्रतिशत खालिस! पर कहीं कोई बनावट-दिखावट-मिलावट-सजावट नहीं और गिरावट वो तो कतई भी नहीं थी- उस ठेठ आम आदमी से दीखने वाले असाधारण व्यक्ति में। वह जब बोलता था तो सत्य, बेबाक और छुरी की धार की तरह पैना और खरा खरा। मगर उसमें एक असाधारणता थी कि वह अपने सत्य को उतनी ही विनम्रता और धैर्य से पेश कर चुप हो जाते. जब वह लिखता था तो कहने वाले कहते कि प्रसून जी के शब्दों की धार से कोई बच नहीं सकता और उस धार की अकाट्यता की तुलना भी लोग सिर्फ उन्हीं से करते हैं। उनकी लेखनी से निकले आखर उनकी ही तरह सीधे-साधे पर गूढ़ गंभीरता और सार्थकता लिए होते थे।
बड़ा ही बहुआयामी व्यक्तित्व था उनका। वह घर गांव में खेती किसानी करते-करते बीज बचाओ आंदोलन के पुरोधा बन गये। हेंवलघाटी में पेड़ों के साथ खेलते-कूदते चिपको आंदोलन की आवाज बन गये। उनको खुद पता नहीं चला कि अपने आस-पास की समस्याओं को पैनी नजर से देखने के कारण कब शराब, खनन विरोधी, बंधुवा मजदूरी, बांध विरोधी, दलितों की लड़ाई, कन्या विक्रय, वेश्यावृत्ति, महिला अधिकार आदि सामाजिक मुद्दे उनकी निर्भीकता के आगे बौने पड़ते गये। समाज में जन चेतना की लहर जगाते-जगाते और लड़ते लड़ते कब कुड़ी गांव का छात्र कुंवर सिंह भंडारी किसी भी तरह के अन्याय और शोषण के विरूद्ध अलख जगाने वाला नायक कुंवर प्रसून बन गया, शायद उसे खुद भी पता नहीं चला होगा। पर निंसदेह वह एक जननायक थे. लीक से हटकर अपने सिद्धांतों पर चलना और मूल्यपरक जीवन जीना उनकी शान थी। पेशे से पत्रकार थे पर मुफलिसी ऐसी कि जहां तक हम जानते हैं कि वह कभी नियमित अखबार भी खरीद कर पढ़ नहीं पाये। अपने गांव से नीचे आ दुकान में बैठकर अखबार पढ़ते। नाम इतना बड़ा और भारी भरकम कि सुनकर अच्छे-अच्छों को दिसम्बर की सर्दी में पसीना आ जाये। समझदारी और जानकारी ऐसी कि हरित क्रांति के युग में वह नारमन बोरलाग और हाइब्रिड बीजों के मंडाण बजाते-बजाते बीज बचाओ आंदोलन के अगुआ बन गये? दूरदर्शिता ऐसी कि चिपको के नारे रचकर पेड़ों के काटने के आंदोलन को “इकोनामी से इकोलाजी” की तरफ ही मोड़ दिया। ऐसे शक्स पर मैं क्या और कहां से लिखूं!
प्रसिद्ध पत्रकार भारत डोगरा द्वारा लिखित “कुंवर प्रसून का रचना संसार” नामक पुस्तक कुंवर प्रसून के तमाम आंदोलनकारी सरोकारों का दस्तावेज है। बकौल चिपको के आधार स्तंभ धूम सिंह नेगी-कुंवर प्रसून नारों का जादूगर था। उसके बनाए नारों में आंदोलनों की आत्मा बोलती और बसती थी। हेंवलघाटी अदवाणी में चिपको आंदोलन का ज्ञान विज्ञान समझने और आंदोलनकारियेां को वन का विज्ञान समझाने को तत्कालीन डी.एफ.ओ. आनंद मोहन राय आने वाले थे। प्रसून जी की पहल पर लोग काटने के लिए चिन्हित पेड़ों के बीच सभा स्थल तक जाते हुए डी.एफ ओ के आगे-आगे दोपहरी में लोग लालटेन लेकर चल रहे थे। साथ ही नारे लग रहे थे-
क्या हैं जंगल के उपकार मिट्टी पानी और बयार,
मिट्टी पानी और बयार हैं जिंदा रहने के आधार।
कुंवर प्रसून का बनाया यह नारा आगे चलकर दुनिया में पर्यावरणीय सोच का आधार बना। डी.एफ.ओ. इस नारे के आगे निरूत्तर हो गये। हेंवलघाटी के बच्चे-बच्चे की जुबान पर यह नारा और घनश्याम सैलानी के गीत गूंजते थे। बकौल धूम सिंह नेगी कुंवर प्रसून सिर्फ जिंदाबाद के नारे लगाता था। मुर्दाबाद के नारों से उसे सख्त परहेज था। उसका मानना था कि लोकतंत्र में आंदोलन लोक शिक्षण का माध्यम होना चाहिए और उसने हर आंदोलन में ऐसा करके दिखाया। प्रसून की कथनी और करनी में सांमजस्य था। वह नेक, सीधा सच्चा, स्पष्टवादी और खरा-खोटा इंसान था। उन्होंने जो भी किया बिना स्वार्थ या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के किया। उत्तराखंड के जनआंदोलनों से उनका गहरा नाता है। हेंवलघाटी के चिपको आंदोलन के दौरान उनको 1 माह की सजा हुई। टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के दौरान एक रात बहुत तनाव था। पुलिस ने चुनौती दी यदि कोई प्रतिबंधित बांध क्षेत्र में बढ़ा तो उसे गोलियों से भून दिया जाऐगा। अचानक सन्नाटे को चीरती कुंवर प्रसून की आवाज गूंजी कि यदि तुमको इस तरह से गोली चलाने का अधिकार है तो लो मैं इस लड़के को भेज रहा हूं। मारो इसे गोली। इसका नाम राजीव नयन बहुगुणा है। कोई कुछ समझता उससे पहले उन्होंने राजीव को प्रतिबंधित क्षेत्र में धकेल दिया। चारों ओर सन्नाटा छा गया। वह चुनौतियों को ऐसे ही स्वीकार कर जनमत तैयार करने के मास्टर थे। इसी आंदोलन के दौरान एक दिन सुंदर लाल बहुगुणा के कैंप को घेरकर पुलिस ने चुनौती दी कि यदि कोई आगे बढ़ा तो गोली मार देंगे। अचानक पचास फीट ऊंचे कुदरती टीले पर चढ़ कुंवर प्रसून की तेज आवाज ने सन्नाटा चीरा। वह टिहरी वालों को ललकार रहे थे कि यह जमीन हमारी है। डरो नहीं। हम अपनी जमीन बांधवालों को नहीं देंगे। डरी और अवाक भीड़ में अचानक नारे गूंजने लगे। प्रसून जी ने बड़े बांधों का विरोध किया और विस्थापन की समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से हल करने की वकालत की। कुंवर प्रसून की खूबी थी कि वह उन गांवों में भी आंदोलन खड़ा कर देते, जहां आंदोलन की कोई उम्मीद ना होती। प्रसून जी के कारण कुछ ही दिनों में वह गांव आंदोलन के नारों से गूंज उठता। उनके सर्वोदयी साथी धूम सिंह नेगी जी का मानना है कि उसकी सफलता का बड़ा कारण उसकी सौ प्रतिशत ईमानदारी व मुद्दे के प्रति गहरी निष्ठा थी। साथ ही एक चिंतक, विचारक और आंदोलनकारी के तौर पर उसकी गहरी समझ प्रसून को भीड़ में अलग खड़ा करती है।
साल 2003-2004 में कुंवर प्रसून और हेंवलघाटी के सर्वोदयी मित्रों ने एक और चिपको चलाया। मामला था टिहरी बांध की हाईटेंशन लाईन बिछाते वक्त जंगलों को बचाने का। ये साथी फिर समर में कूदे और प्रतिकूल हालतों में भी लाखों पेड़ बचा ले गये। इस टोली ने ऋषिकेश में दिन के उजाले में लालटेन आंदोलन किया। आखिर में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप पर एक मानीटरिंग कमेटी गठित हुई। ऐसे हेंवलघाटी के जंगलों की हरियाली बची। कुंवर प्रसून बीज बजाओ आंदोलन के संस्थापक सदस्यों सुदेशा बहन, धूम सिंह नेगी, विजय जड़धारी, दयाल सिंह नेगी की टीम के मुख्य सदस्य थे। इस दौरान वह उत्तराखंड के गांव-गांव घूमे। उन्होंने यहां के पंरपरागत बीजों और खेती को बचाने हेतु व्यापक शोध और दस्तावेजीकरण किया।
महिला समाख्या टिहरी की मेरी टीम की हजारों औरतों की जुझारू टीम ने टिहरी के लगभग 500 गांवों में बीज बजाओ आंदोलन की सोच को जमीन पर पहुंचा इस आंदोलन को पुख्ता आधार दिया। हमने लगभग 7-8 साल इस टीम के साथ काम किया. प्रसून जी का जीवन आखरी दिनों में परंपरागत बीजों और खेती को बचाने हेतु समर्पित रहा। उन्होंने हरित क्रांति के दौर में रसायनिक खादों, कीटनाशकों और जी. एम. फसलों का पुरजोर विरोध हर मुमकिन तरीके से किया। हरित क्रांति के दौर में कुंवर प्रसून द्वारा रचित ‘‘डंकल का मंडाण’’ बहुत प्रसिद्ध हुआ। अपने मित्रों के साथ 1998-99 की असकोट (हिमांचल प्रदेष) आराकोट (नेपाल बार्डर) पैदल यात्रा के दौरान उन्होंने धान की 328 पारंपरिक प्रजातियों को खोजा। बीच बचाओ आंदोलन ने इन प्रजातियों को जमा किया और प्रसून जी ने इनका दस्तावेजी करण किया। इसी तरह बीज बचाओ आंदोलन ने गेंहू और स्थानीय दालों की सैकड़ों भूली बिसरी प्रजातियों को जमा कर फिर से उगाया। 25 मई 1974 की पहली असकोट आराकोट यात्रा में सुन्दर लाल बहुगुणा जी के नेतृत्व में कुंवर प्रसून ने हिस्सा लिया। इसका मकसद महिला सशक्तिकरण, चिपको आंदोलन जागरूकता, पलायन पर चिंतन और अपने घर गांवों को जानना था। वह जिस आंदोलन में होते वहां उनकी खास उपस्थिति उनको भीड़ से अलग करती। खास उद्देश्य हेतु पदयात्रा करना उनका शौक व काम का तरीका था। कुंवर प्रसून ने समतावादी शिक्षा- राष्ट्रपति से आखरी आदमी तक एक सी शिक्षा के लिए लखनऊ से देहरादून की लंबी पदयात्रा की.
धूम सिंह जी बताते हैं कि आंदोलन के लिए प्रसून नए-नए तरीके सोचता और उन्हें कर दिखाता। ये तरीके लोगों को निर्भय बनाने के लिए उपयोगी होते। ऐसे तरीके अहिंसात्मक होते। वे इन तरीकों पर समूह में चर्चा करते और सबमें उत्साह भर जाता। ये तरीके प्रतीकात्मक होते थे। किसी अधिकारी को दिन के प्रकाश में लालटेन दिखानी हो, लीसा दोहन में घायल चीड़ के पेड़ों पर मरहम पट्टी लगानी हो या रात के ठीक आठ बजे घर से बाहर आकर थाली बजाने का कार्यक्रम हो या ठेकेदार को भगाने के लिए कंटर बजाते हुए भाज-भाज रे भाज चिल्लाते हुए लड़कों का पंक्तिबद्ध जुलूस निकालना हो, ये सब विरोध के प्रतीक प्रसून की दिमाग की उपज थे।
कुंवर प्रसून सदा गरीबों अभावग्रस्तों, दलितों, कमजोरों, गरीबों और औरतों के हमदर्द रहकर उनके पक्ष में मजबूती से खड़े होते। उन्होंने हर तरह के शोषण व अन्याय का विरोध किया। कुंवर प्रसून ने दलितों हेतु बहुत काम किया। जिस कारण उनके ज्यादातर मित्र लोग उनको दलित ही समझते थे। यहां तक कि उनके मित्र शमशेर सिंह बिष्ट को उनकी मौत के बाद पता चला कि वह दलित ना होकर ठाकुर हैं। कुंवर प्रसून की खूबी थी कि उन्होंने मूल्यपरक व्यक्तिगत और प्रोफेशनल जीवन जिआ। उत्तराखंड में बंधुआ मजदूरी की प्रथा पर ध्यान बटाने में उनका बड़ा योगदान है। लोक कलाओं, लोक प्रथाओं व साहित्य में उनकी गहरी रूचि थी। जनजातिय क्षेत्रों पर कुंवर प्रसून का लेखन व अध्ययन समाज की बड़ी धरोहर है।
कुंवर प्रसून छात्र जीवन में ही देश में लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा गठित युवा छात्र संघर्ष वाहनी जैसे महत्वपूर्ण संगठन में उत्तर प्रदेश के संयोजक रहे। छात्र जीवन से ही सामाजिक सरोकारों से उनका नजदीक का नाता रहा और आखरी सांस तक वह इसमें ईमानदारी से लगे रहे। कुंवर प्रसून राष्ट्रीय एकता के कट्टर समर्थक थे। उनकी बड़ी सोच और समय से आगे दुनिया के लिए काम करने की प्रकृति के कारण उनको ‘विश्व नागरिक’ कहना उचित होगा। वह सांप्रदायिकता के धुर विरोधी थे। वह धर्म, जाति, वर्ग, लिंग या रंग के आधार पर भेदभाव बर्दाश्त नहीं करते थे। किसी भी राजनीतिक दल का सदस्य ना होते हुए भी वह राजनीति से अलग नहीं रहे। उन्होंने हमेशा किसी भी परिस्थिति में जनहित को सर्वोपरि मानकर अपने विवेक व अटूट सिद्धातों के आधार पर दो टूक निर्णय लिया। वह किसी से किसी भी बात पर प्रभावित नहीं होते थे। भीड़ में अकेले खड़े होकर अपनी बात पर अड़े रहना कुंवर प्रसून की अनोखी पहचान थी।
कुंवर प्रसून छात्र जीवन में ही चिपको नेता सुंदर लाल बहुगुणा जी के संपर्क में आ गये थे। वह किसी स्कूल में शिक्षक थे पर ईमरजेंसी लगने के बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण से प्रभावित हो उन्होंने त्यागपत्र दे सामाजिक जीवन अपना लिया। कुंवर प्रसून में पलक झपकते ही निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता थी। आरक्षण के मुद्दे पर उनकी सोच थी किसी क्षेत्र विशेष के दलितों और वंचितों को आरक्षित कर देने से उनके अधिकारों के चारों ओर एक कंटीली बाढ़ लग जाती है। जो उनके विकास में बाधक होती है। यह बात आम विचारक स्वीकार नहीं कर सकते। पर कुंवर प्रसून में अपने सत्य के साथ अकेले खड़े होने का साहस था। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान वह एकमात्र व्यक्ति थे जो बिना पुख्ता सोच और भावी ब्लूप्रिंट के उत्तराखंड राज्य के पक्षधर नहीं थे। यही वजह थी कि उत्तराखंड आंदोलन के दौरान वह अकेले खड़े होकर आंदोलन का अवलोकन करते रहे। लेकिन उन्होंने इस आंदोलन का समर्थन नहीं किया। यह बड़ा ही अनोखा और अकेला उदारहण है। कुंवर प्रसून हर छोटी सोच, छोटी समझ, छोटे राज्य और हर उस बात के विरोधी थे जो आदमी का दायरा और दृश्टिकोण छोटा कर देती है। इस तरह का निर्णय लेने के लिए बहुत साहस की जरूरत होती है। कुंवर प्रसून ऐसे ही विरले साहसी और जीवट व्यक्ति थे।
सुन्दर लाल बहुगुणा का कहना है कि सामाजिक बुराईयों पर चोट करना कुंवर प्रसून की खूबी थी। समाज में व्याप्त कोई भी ऐसी बुराई नहीं थी, जिसका कुंवर प्रसून ने खुलासा और विष्लेषण न किया हो- अपनी लेखनी से घंटी बजाते वह हमें सुझाते, याद दिलाते रहते थे कि हम कौन हैं? उन्होंने बताया था कि हमारे पूर्वज स्थापत्य कला में कितने प्रवीण थे और इस तरह के परंपरागत ज्ञान को संजोकर रखना कितना जरूरी है? कुंवर प्रसून ने पूछा था कि हमारे बेडे और बेडनियां- लोक संस्कृति के वाहक जो आज के समाज में अखबार और रेडियो से पहले समसामायिक घटनाओं पर गीत बना बनाकर गांव गांव में खबरें गाकर पहुंचाया करते थे, वह कहाँ गये होंगे? कुंवर प्रसून ने ही हमें बताया कि तैडीगढ़ की तिलोगा तड़ियाली और क्वीली की सरू सजवाण जिनके प्रेम की अमर यादों में अब भी रातों घडियाले लगते हैं और गीत गाये जाते हैं? दलितों को विरासत में मिली भूख क्यों अभी तक नहीं मिटी है? उनका प्रति फसल पर मिलने वाला अनाज का हिस्सा डडवार कहां गया? वह बेबाकी से सबको बताते थे कि टिहरी बांध की लाइन क्यों हेंवलघाटी के जंगल से ले जाई गई और क्यों आदवाणी और गंगसार गांव के जंगलों को बचाने और उसके दस खंभों की जगह नहीं बदली गई? कुंवर प्रसून ने ही हमें बताया कि हेंवलघाटी में कैसे फिर से चिपको आंदोलन दस्तक देने लगा है! कुंवर प्रसून ने ही हमें बताया कि कैसे 20 अगस्त 1956 को दलितों ने बूढ़ाकेदार मंदिर में प्रवेश किया। कुंवर प्रसून ने ही बताया और सोचने को मजबूर किया कि कैसे विनाशकारी नए बीजों से हरित क्रांति का बुलडोजर सरकार ने हमारी खेती पर चलाया है? बकौल बहुगुणा जी कुंवर ने हमें सोचने समझने को मजबूर किया कि कहां बंधुवा मजदूरों से अब भी खेती और सब काम कराए जाते हैं और कैसे आज भी वेश्यावृत्ति हो रही है? हमारे पहाड़ी समाज की कोई ऐसी बुराई नहीं थी जिसका कुंवर प्रसून ने खुलासा और बेबाक विश्लेषण ना किया हो। उन बुराईयों से पैसा कमाने वालों ने प्रसून जी को जान से मारने की धमकियां दीं पर वह ना तो उनकी चुनौतियों व धमकियों से डरे और न ही उन्होंने उन बुराईयों के विरूद्ध लिखना, बोलना और आंदोलन करना बंद किया। कुंवर प्रसून धुन के पक्के थे और उनकी सोच से उन्हें डिगाना संभव नहीं था
प्रसून समाज में आमूल चूल बदलाव के पक्षधर थे। वह बदलाव हेतु अंहिसा के पक्षधर थे। गांधी चिंतन उनकी बुनियाद थी। वह मौलिक चिंतक थे और उसको जमीन पर उतारने हेतु साहसी अन्वेषक भी। यह हमारा दुर्भाग्य है कि उन जैसे मौलिक और क्रांतिकारी चिन्तक को वो मौके नहीं मिले जिसके वो हकदार थे। उनका जीवन, लेखन और अध्ययन बहुत अभावों और संघर्षों के बीच चला। अपनी सोच को किताबों में उतारने का उनको ना समय मिला ना ही साधन। वह एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ बहुत प्रखर और निर्भीक पत्रकार थे। उनकी कलम इतनी धारदार और निडर थी कि जिसकी मार से उनका कोई निजी मित्र भी ना बचा न कोई संस्थान. साधन विहीन होने के बाद भी वह वहां पहुंचते जहां कोई सोच भी नहीं सकता। कुंवर प्रसून ने देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं नवभारत टाईम्स, युगवाणी, दिनमान, अमर अजाला, दैनिक जागरण, रविवार, धर्मयुग सहित कई पत्र पत्रिकाओं में कालजई लेख लिखे। खासतौर पर दलितों पर लिखे उनके लेख उनको इतिहास में अलग कतार में खड़ा करते हैं। आनंद बाजार पत्रिका में दलितों पर लिखे उनके लेख हेतु उनको ‘समता पुरूस्कार’ से नवाजा गया। वह गढ़वाली मंडाण और कहानियां भी लिखते थे। जिसका आकाशवाणी नजीबाबाद से प्रसारण हुआ। धूम सिंह नेगी बताते हैं कि उनका लेखन, चिंतन व सामाजिक काम पूरी समग्रता लिए होता था। आकाशवाणी नजीबाबाद से ग्राम जगत में प्रसारित उसकी गढ़वाली कहानियों को श्रोता बड़े ध्यान से सुनते थे। ठेठ गढ़वाली-पहाड़ी शब्दों का वह इस्तेमाल करते। जागर और मंडाण उसके गढ़वाली लेखन में प्रिय विषय थे। इसके पीछे उसकी एक नई सुविचारित योजना थी- मंडाण और जागर को नये वातावरण में, नये विषयों की ओर उन्मुख करना। प्रसून मंडाण नाचने के बहुत शौकीन थे और उन्मुक्त हो दिल खोलकर नाचते।
कुंवर प्रसून की बड़ी विषेशता थी कि उनके दायरे और पैनी मगर खामोश निगाहों से कहीं कुछ भी नहीं छूटता था। उनकी लेखनी में पहाड़ी नदी की तेज धार थी। साथ ही मौलिकता और गहराई थी। वह एक निर्भीक पैनेपन और बेबाक जमीनी सच्चाई के साथ लेखन करते जिस वजह से वह मुसीबत में पड़ जाते। कुंवर प्रसून की तथ्यपरक लेखनी में वो धार और सच्चाई थी कि उससे ही किसी इलाके के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार किया जा सकता था। कुंवर प्रसून का लिखने का अपना ही अलग ढ़ंग था। वह छाती के बल लेटकर छाती के नीचे तकिया या जो कुछ भी मिले दबाकर लेटे हुए लिखते। सधी हुई अंगुलियों की मजबूत पकड़ में आयी नोक से निकले अक्षर कागज पर उतरते जाते थे। उसके अक्षर हवा में लहराते से लगते हैं जैसे जुलूस में नारे लगाते हुए पूरी ताकत से कुंवर प्रसून के हाथ लहराते थे। उसके लिखे अक्षर स्पष्ट होते थे जैसे वह स्वयं बोलने में सच्चा और स्पष्टवादी था। हां वह बातचीत में साफ बोलने वाला था। उसको जो भी बोलना होता था वह सामने ही बोल देता था। कई बार झगड़े की नौबत आ जाती पर उसे कोई परवाह नहीं होती थी।
जहां तक मैं उनको जानती हूं वह कभी समझौता नहीं करते थे। कुंवर प्रसून अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में निजी स्वार्थो से बहुत ऊपर उठे थे। पर इसका उनको कोई अफसोस नहीं था। जिस कारण वह आर्थिक तौर पर कमजोर रहे। वह कभी नियमित अखबार भी नहीं खरीद पाते थे। अक्सर गांव से नीचे उतरकर किसी दुकान में वह अखबार पढ़ते। मुझे बीज बचाओ आंदोलन के दौरान सालों सर्वोदयी टोली से बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। मुझे प्रसून जी के जीवन के कई प्रसंगों को नजदीक से जानने का मौका मिला।
वह बड़े अनोखे थे। एक प्रसंग सुना रही हूं। बकौल धूम सिंह नेगी जी टिहरी डिग्री कालेज में शुल्क माफी के आवेदन पत्र पर किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की सिफारिश और उस पर हस्ताक्षर कराने के बजाय कुंवर प्रसून ने घंटाघर में चैराहे के पास जूता बना रहे मोची के पास जाकर उसके हस्ताक्षर ले लिए। अध्यापक के पूछने पर उसने बताया कि मेरी दृष्टि में मोची एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है। वह अपनी जिंदगी मेहनत और ईमानदारी से बसर करता है। ईमानदारी और मेहनत से जीने वाले से ज्यादा प्रतिष्ठित कौन हो सकता है? काफी तनातनी के बाद भी प्रसून जी अपनी बात से नहीं डिगे। बाद में प्राचार्य ने किसी तरह उनका खुद ही उनकी फीस माफ की। ऐसा ही एक दिलचस्प वाकिया मैंने खुद उनके मुंह से सुना कि- मेरी शादी के वक्त मैंने लड़की नहीं देखी थी। मेरी शादी में बैंड-बाजा-बरात कुछ नहीं था। ना कोई पंडित ना रिश्तेदार ना बाराती। वह शांत होकर बोले कि मैंने अपने पिताजी को कहा तुम मुझे फलां जगह पर मिल जाना। हम दोनों गये। मैंने रास्ते में धारे में नहाया। नये कपड़े पहने और चले गये लड़की के यहां। लड़की के पिता जंगलात में काम करते थे। खैर शादी की कहानी फिर लिखूंगी। बस ऐसे में बहू को प्रसून घर ले आये। उस वक्त तो हम खूब हंसे पर बाद में समझ आया कि वह कितने अनोखे, सरल और लीक से हटकर चलने वाले इंसान थे।
कुंवर प्रसून ने कभी अपने काम और नाम को भुनाने नहीं दिया। वह निस्वार्थ होकर काम करते थे। ऐसा सिद्धांतपरक जीवन बिताकर वह आजीवन ‘‘प्रसून’’ बन मुस्कराते रहे। वह अपनी उपलब्धियों को बहुत हल्के में लेते थे। हमारे कहने पर वह हंसकर कहते कि मैं कोई महान काम थोड़े कर रहा हूं। यह तो हर किसी को करना चाहिए। यह तो हर नागरिक की नैतिक जिम्मेदारी है। मैंने अपने छोटे से जीवन में कुंवर प्रसून और धूम सिंह नेगी दो ऐसे व्यक्ति देखे जिनको ना नाम की चाह है ना ही पैसों का लालच। यह दोनों खामोश विरक्त सामाजिक सेनानी हैं। ऐसी धरोहरें कभी कभी ही जन्म लेती हैं। मेरा सौभाग्य है कि मैंने दोनों के साथ नजदीक से काम किया है. बकौल नेगी जी प्रसून बचपन से ऐसे काम करता रहा जो उसकी उम्र के बच्चों से कहीं हटकर था। कुड़ी गांव का बैसाखू ‘बाकी’ बाक बोलने के लिए प्रसिद्ध था। प्रसून ने अंधविश्वास कह इस सामाजिक मान्यता का विरोध किया जो लोगों के दिल और दिमाग में आस्था बन चुकी थी। लीक से हटकर सोचना, बोलना, चलना और अपनी बात पर निडर होकर डटे रहना कुंवर प्रसून की वह खासियत थी, जिसने उसे कुंवर प्रसून बनाया। उनको डिगाने यदि स्वयं भगवान भी आते तो शायद प्रसून उनके भी प्रभाव में ना आता और वही करता जो उसको उचित लगता।
कुंवर प्रसून के चट्टानी व्यक्तित्व की नींव उनकी पत्नी रंजना भंडारी हैं। यदि वह घर के मोर्चे पर विजेता की तरह खड़ी ना होतीं तो प्रसून जी को सामाजिक काम करने की इतनी आजादी नहीं मिली होती। प्रसून जी के जाने के बाद परिवार बिखर सा गया। मां रंजना भंडारी ने परिवार को मजबूती से खड़ा किया। मुझे बहुत दुख हुआ जब पिछले साल फेसबुक पर किसी ने टिप्पणी लिखी कि कुंवर प्रसून क्या थे? मुझे लगा यह इनकी गलती नहीं है यह हमारी गलती है कि समाज ने उन जैसे प्रखर व्यक्ति को जिंदा नहीं रखा आने वाली पीढ़ियों के लिए। यदि आज समाज को अपनी गलतियों को पहचानने व साहस से सार्थक बदलाव लाने की मूल क्षमता को बनाए रखना है तो कुवंर प्रसून सरीखे व्यक्त्विों को जानना व पहचानना होगा। यही समय की बेबाक मांग है।
इतिहास के विजेताओं ने कई महासागरों, महाद्वीपों, महानदियों, महापर्वतों, ग्रह-नक्षत्रों, चांद-तारों और धरती के कोने कोने पर विजय पताका फहराईं। लेकिन घने स्याह पेड़ों की झुरमुटों में कई द्वीप आज भी अछूते-अक्षत-अजेय हैं अपनी किसी खास कुदरती विशिष्टता और किलिष्टता के कारण। उनको सिकंदर महान की तलवार, अमेरिका का डालर, मुर्लिन मुनरो की कालजयी मुस्कान, खोजी कोलंबस की पदचाप भी नहीं छू सकी। कुंवर प्रसून भी अपनी खास खासियतों के कारण हेंवलघाटी के ऐसे ही एक अविजित द्वीप हैं जिनकी खासियतों को अभी पूर्ण संपूर्णता के साथ बाहर आना बाकी है। मेरी सोच है कि प्रकृति पर विजय पाना आसान है पर इस धरती पर इंसान बनकर इंसानियत के लिए निस्वार्थ भाव से कमतरों-कमजोरों-वंचितों और शोषितों के हक और हित में मूल्यपरक खामोश लड़ाई लड़ना सबसे कठिन काम है। कुंवर प्रसून मात्र 56 साल की उम्र में खुद्दारी के चलते पाई मुफलिसी के कारण बिना ईलाज और पोषण के चल बसने वाले ऐसे ही एक बेजोड़ द्वीप थे जिनकी सही पहचान अभी धरती पर होनी बाकी है।
माफ करना भाई जी! हम आपको जिंदा ना रख सके। गलती हमारी नहीं है- आपकी है क्योंकि आप समय से पहले आये और समय से पहले चले गये। तब तक तो जमाना आपको समग्रता से समझा भी नहीं था। बकौल विजय जड़धारी “प्रसून” वास्तव में “प्रसून यानि फूल ही निकला”। जिस तरह फूल अपने यौवनकाल में महक अपनी छटा बिखेरता है, उसी तरह प्रसून समाज सेवा, पत्रकार, लेखक, कवि एवं कहानीकार के रूप में खूब महका क्योंकि कुवंर प्रसून एक नाम नहीं बल्कि एक ‘विचार’ है.
प्रसून भाई जी! आपको सादर नमन.
1 Comments
शमीम अहमद
शानदार लेख,,