डाॅ. सुशील उपाध्याय
अपने मूल स्वरूप में होली लोक का पर्व है। इस पर्व से पौराणिक गाथाओं के साथ लोक का जीवन भी गहरे तौर पर जुड़ा हुआ है। होली के स्वरूप में समय के साथ कई बदलाव हुए, लेकिन अन्य त्योहारों की तुलना में इसका न्यारापन अब भी बचा हुआ है। हरिद्वार क्षेत्र में होली दो दिन मनाई जाती है। पहला दिन होलिका-पूजा के लिए और दूसरा दिन रंग खेलने के लिए। शहरी क्षेत्रों की होली अब ज्यादातर जगह पर एक जैसी ही हो गई है, लेकिन गांवों में इसका पुराना रूप बचा हुआ है।
लोगों को होलिका प्रहलाद की पौराणिक गाथा पर अब भी भरोसा है। होली के विषय में लोक प्रचलित कहानी के अनुसार प्रह्लाद की बुआ होलिका ने अपने भाई के कहने पर प्रह्लाद की हत्या के लिए अग्नि में बैठने का निर्णय लिया। होलिका अग्निस्नात थी, उसे आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। लेकिन, भगवान ने प्रहलाद की रक्षा की और प्रह्लाद की बजाय होलिका जल गई। यह घटना लोक-प्रतीक भी है। इसका संदेश भी यही है कि जब कोई व्यक्ति किसी बुरे कार्य के नियोजन में हिस्सेदार बनता है तो उसे स्वयं ही उसका दंड भोगना पड़ता है।
चूंकि, सांस्कृतिक एवं सामाजिक तौर पर हरिद्वार का जुड़ाव मैदानी क्षेत्रों से ज्यादा है इसलिए यहां की होली में भी कमोवेश वे सभी परंपराएं शामिल हैं जो गंगा के मैदानी क्षेत्रों में प्रचलित हैं। होली मुख्यतः दो दिन मनाई जाती है। हालांकि, इसकी तैयारी काफी पहले शुरू हो जाती है। रात में महिलाएं अपने आसपास के घरों में इकट्ठा होकर होली के गीत गाती हैं और यह सिलसिला होलिका दहन तक जारी रहता है।
होली के गीत बैठकर नहीं गाये जाते, वरन इनके लिए महिलाएं एक-दूसरे के हाथ पकड़कर घेरा बना लेती हैं और गोल घूमते हुए गीत गाती हैं। जबकि, इस अवधि में लड़कों द्वारा लकड़ियां इकट्ठा करने का दौर शुरू हो जाता है। होली का आकार इतना बड़ा किया जाता है कि उसके दहन के वक्त पूरे गांव में उसका प्रभाव दिखाई दे सके।
त्योहार के पहले दिन सुबह होलिका की पूजा होती है और रात्रि में उसका दहन किया जाता है। अगले दिन फाग अथवा दुल्हेँडी का आयोजन होता है। फाग के दिन होलिका की राख को लोग अपने घर ले जाते हैं, इसका उपयोग भस्म या भभूत के तौर पर भी किया जाता है। होली का आयोजन लोक के साथ गहराई तक जुड़ा है। होली की पूजा में गाय के गोबर से बने छोटे-छोटे उपलों (बड़कुल्लों) की मालाएं तैयार की जाती हैं और इन मालाओं को पूजा-सामग्री के तौर पर होली को अर्पित किया जाता है। बच्चों को होली-हार पहनाये जाते हैं। होली हार में सूखे मेवों से लेकर मिठाई तक पिरोयी जाती हैं।
आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न लोगों के बच्चे ज्यादा बड़े और भारी हार पहने दिखते हैं, जबकि गरीब परिवारों के बच्चे रंग-बिरंगी मिठाइयों के खिलौनों से बने हार पहने दिखाई देते हैं। होली की पूजा के मौके पर बच्चों में एक-दूसरे के हार लूट लेना भी एक बड़ी उपलब्धि बन जाता है।
इस क्षेत्र में होली की पूजा को अत्यधिक महत्व दिया गया है। जो लोग अपने गांवों से बाहर रहते हैं, उनसे भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे इस मौके पर अपने गांव आकर होली की पूजा करें। जनमानस में यह भाव गहराई तक बैठा हुआ है कि जो लोग होली की पूजा नहीं करेंगे, उनके घर में किसी न किसी प्रकार अनिष्ट हो जाएगी। लोगों की मान्यता है कि होली के जलने के साथ ही सभी बुरी भावनाएं और बुरी दशाएं नष्ट हो जाती हैं।
गांव की जिन लड़कियों का विवाह एक वर्ष के भीतर हुआ हो, वे सभी होली पर अपने गांव आ जाती हैं, इसी प्रकार बहुओं को पहली होली पर उनके घर भेज दिया जाता है। इन बातों की कोई तार्किक निश्पत्ति मुश्किल है, लेकिन ऐसा बरसों से होता आ रहा है। बाद के वर्षों में सभी परिवार अपनी बेटियों को होली से पहले सिंधारा (मिठाई, नए कपड़े, होली-हार आदि) भेजते हैं।
हरिद्वार क्षेत्र में होली के साथ खान-पान की कुछ बातें भी जुड़ी हुई हैं। होली के दिन कढ़ी (झोला) और फाग के दिन साग (चना, सरसों, पालक आदि) बनाना और खाना शुभ माना जाता है। ज्यादातर घरों में इस परंपरा का आज भी निर्वहन किया जाता है।
इस त्यौहार के साथ एक खास बात यह है कि पहला दिन होलिका-प्रह्लाद की कथा के साथ जुड़ा है, जबकि दूसरा दिन राधा-कृष्ण की कहानी का हिस्सा है। देखा जाय तो इन दोनों पौराणिक कहानियों का आपस में कोई सीधा जुड़ाव नहीं है। फाग या रंग-पर्व के पीछे कृष्ण और गोपियों के रंग खेलने की परंपरा से जोड़कर देखा जाता है।
रंग खेलने को देवर-भाभी, जीजा-साली और उन रिश्तों के बीच सीमित किया गया है, जिन्हें मजाक करने के रिश्ते के तौर पर सामाजिक स्वीकृति हासिल है। हालांकि, रंग खेलने की रीत लगातार जटिल हुई है और इसकी परिणति बड़े विवादों के तौर पर भी सामने आती है। इसका परिणाम यह है कि विगत कुछ दशकों में गांवों में होली पर रंग खेलने का सिलसिला केवल बच्चों तक ही सीमित दिखने लगा है।
हरिद्वार क्षेत्र में त्योहार का एक अच्छा पहलू यह है कि होली की पूजा के मामले में दलित समुदाय को भेद-भाव का सामना नहीं करना पड़ता। दलित भी उसी होली को पूजते हैं, जिसकी पूजा ब्राह्मणों और दूसरे वर्गों द्वारा की जाती है।
फाग के दिन दलितों का रंग-उत्सव पूरी तरह अलग तरह का होता है। दलितों की पुरानी पीढ़ी कीचड़, गारे और गोबर से होली खेलती थी। हालांकि, अब इस परंपरा में खासा बदलाव आया है। दलितों का रंग-उत्सव दोपहर बाद शुरू होता था, इसे देखने के लिए गांव के ज्यादातर लोग जुटते थे।
दर्शकों पर गोबर या कीचड़ नहीं फेंका जाता था। गांवों में कुछ सामाजिक-दायरों को अब भी बचाकर रखा गया है, ये दायरे होली पर प्रायः दरक जाते हैं। इनसे कई बार ऐसा लगता है कि हमारा सामाजिक तंत्र अपनी गुंझलों से मुक्त हो जाएगा। यह अलग बात है कि यह मुक्ति केवल होली तक ही सीमित रहती है।