योगेश धस्माना
उत्तरप्रदेश से अलग होने की वजह यह रही थी, कि पहाड़ों की आवाज को सुना नहीं जाता है।साथ ही यूपी के राजनेता और नौकरशाह पहाड़ों की समस्याओं को न समझते है और न ही विधान सभा में उन्हें तवज्जो दी जाती है।
राज्य बनने के बाद आज हालात ये है कि यहां कभी भी विधान सभा सत्र एक सप्ताह भी नहीं चला। इसके कारण विपक्ष और सत्तारूढ़ विधायकों को तक अपने क्षेत्र की समस्याओं को उठाने का अवसर ही नहीं मिला।
विधानसभा नियमावली के अनुसार वर्ष भर में कुल एक तिहाई दिनों तक सत्र चलाने की बात कही गई है पर यहां तो हैरत इस बात की है, कि बजट सत्र तक कुल पांच दिन के लिए ही आयोजित किया गया। इसके विपरीत जम्मू कश्मीर में एक माह के लिए, हिमाचल में पंद्रह दिन, हरियाणा और दिल्ली में बीस—बीस दिन के लिए बजट सत्र बुलाया गया है। विगत वर्ष जब पत्रकारों के पूछने पर कि विधान सभा सत्र को उत्तराखंड सरकार इतना छोटा क्यों करती है, इस पर ऋतु खंडूरी का कहना था कि, विचाराधीन मुद्दे, विधेयक की कार्ययोजना ही इतनी होती है। बहुत हास्यादपक और दुर्भाग्यपूर्ण जवाब है।
विगत एक वर्ष की बात करें तो प्रश्न काल ही आयोजित नहीं हुआ। नियमानुसार सोमवार को प्रश्न काल या शून्य काल में विधायकों को अपनी बात कहने या फिर विधान सभा क्षेत्र की समस्याओं को उठाने का अवसर मिलता है, लेकिन जब प्रश्न काल ही नहीं होगा तो माननीय सदस्य गण समस्याएं किस फोरम में उठाएंगे। हाल का बजट सत्र इसका उदाहरण है। कहां पांच दिन के सत्र में ग्यारह विधेयक बिना चर्चा के पास कर दिए गए।
बजट सत्र पर चर्चा को महज कुछ ही घंटे दिए गए, विपक्षी दलों को अपनी अपनी बात रखने या संशोधन रखने तक का अवसर विधान सभा अध्यक्ष ने नहीं दिया। इस पर जब कांग्रेस के बद्रीनाथ के विधायक लखपत बुटोला ने कहना शुरू ही किया था तब माननीय ऋतु खंडूरी जी ने उंगली दिखा कर उन्हें चुप करवा दिया। इस अलोकतांत्रिक व्यवहार से संसदीय प्रणाली पर भी सवाल खड़े होना स्वाभाविक ही था। अतः विद्यायक जी को सदन का बहिर्गमन करना पड़ा आखिर जब पड़ोसी राज्यों में बजट सत्र के लिए जब न्यूनतम अवधि पंद्रह दिन रखी गई है तब अपने राज्य में इतनी कम क्यों ? चर्चा से सरकार क्यों भाग रही है ? आखिर इस राज्य गठन की अवधारणा में ही सीमांत क्षेत्रों के संवेदनशील मुद्दों पर जब चर्चा का विधान सभा में उन्हें अवसर नहीं मिलेगा तो जनता को सड़कों पर उतर कर सरकार को अपने बात कहनी पड़ेगी।
सरकार को यदि विधानसभा अध्यक्ष के माध्यम से पार्टी का ही एजेंडा चलना है, तो इन सत्रों की आवश्यकता ही क्या है। अंत में जब बात गैरसैण की आती है, तो ग्रीष्म कालीन राजधानी की घोषणा के बाद भी अब गतिविधियों के अभाव में भराड़ीसैंण वीरान और बंजर दिखाई देने लगा है।
उत्तराखंड विधान सभा में बजट सत्र में सत्ता और विपक्ष दोनों ओर से जिस शब्दावली का प्रयोग देखने को मिला वह बहुत ही निम्न दर्जे का था। मंत्री महोदय तक अपनी प्रस्तुतियों पर उलझते रहे। संसदीय मर्यादा तार तार होती दिखाई दी। लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली की गरिमा को कम करने वाला था। यू.पी. में प्रदेश के विधायक पहाड़ के विधायकों की सदन में भाग लेने और उनके अभिभाषण के मुरीद होते थे।
उत्तर प्रदेश के पूर्व विधान सभा अध्यक्ष केशरी नाथ त्रिपाठी स्वयं पहाड़ के मंत्री और विधायकों के सदन की कार्यवाही संचालन और उनकी तैयारियों की सदैव प्रशंसा करते हुए विपक्ष का पूरा सम्मान करते थे। राज्य बनने के बाद आखिर हमारे जनप्रतिनिधियों का स्तर इतने नीचे कैसे चला गया। सदन की लाइब्रेरी और नए सदस्यों को संसदीय नियमों की जानकारी और उनका लोक शिक्षण कार्य को महत्ता क्यों नहीं दी जाती। राज्य विधान सभा की स्थिति में गिरावट मूल्यों पर आधारित राजनीति का हाशिए पर चले जाना लोकतंत्र के लिए बेहद चिंता जनक है। क्या सरकार संवेदनशीलता के साथ इसका संज्ञान लेगी ?