कमलेश अटवाल
स्कूल से घर जाने के लिए अपने बड़े भाई का इंतज़ार करती हुई एक छात्रा से मैंने पूछा “आजकल आपके भैया क्या करते हैं”? वो बोली “कॉलेज का फ़ॉर्म भरा है”।
हमारे क्षेत्र में कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र भी ख़ुदको इसी तरह इंट्रोड्यूस करते हैं। कुछ समय पहले कुमाऊं विश्वविद्यालय में स्नातक के अंतिम वर्ष में रजिस्टर हुए एक छात्र से मैंने उसके स्नातक में लिए गए विषयों के बारे में पूछा। छात्र को अपने विषय के बारे में ही पता न होना चौंकाने वाला था। मध्यमवर्गीय परिवार से संबंध रखने वाला वह छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए सलाह लेने आया था। उसने यह बताया कि परीक्षाओं के समय वह एक गाइड बुक ख़रीद लेगा और रात में पढ़कर सुबह परीक्षा दे आएगा। उसने गर्व से बताया कि उसने स्नातक प्रथम और द्वितीय वर्ष में भी ऐसा ही किया था और 60% के करीब नंबर आए।
इससे आप उत्तराखंड या उत्तर भारत की उच्च शिक्षा के स्तर का अनुमान लगा सकते हैं। हमारे यहां कॉलेज में रजिस्टर होना, और एग्ज़ाम देना ही उच्च शिक्षा है। दुर्भाग्य से उच्च शिक्षा की कागज़ी डिग्री पाए, पहली पीढ़ी के इन नौजवानों को विश्वविद्यालय की परिकल्पना के बारे में शायद ही कोई अंदाज़ा हो।
जियो यूनिवर्सिटी के बारे में आपने सुना होगा, जिसके बनने से पहले ही उसे ‘यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सीलेंस’ का दर्जा दे दिया गया था। हमारे यहां बहुत सारे कॉलेज और यूनिवर्सिटी इसी पैटर्न पर चलते हैं। हमारी विधानसभा में एक कॉलेज है, जिसकी न अपनी कोई बिल्डिंग है। न टीचर। न क्लासरूम। सोचता हूं काश इन छात्रों को विश्वविद्यालय और कॉलेज देखने का मौका मिलता! काश किसी लाइब्रेरी तक इनकी पहुंच होती! जिस विषय में यह अध्ययन कर रहे हैं उसकी पत्रिकाएं और जर्नल तो बहुत दूर की बात है।
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने विश्वविद्यालय के लिए कहा था कि “एक विश्वविद्यालय मानवतावाद के लिए, सहिष्णुता के लिए, तर्क के लिए, विचारों के साहसिक कार्य के लिए और सत्य की खोज के लिए खड़ा रहता है”। अच्छा ही है, हमारे अभिभावकों को इसके बारे में कुछ अनुमान भी नही है। उनके लिए भी शायद कॉलेज में फॉर्म भर देना, परीक्षा देना, और इंप्रूवमेंट परीक्षा देना ही उच्च शिक्षा होगा।
सोचिए ऐसे हालातों में यह युवा जिन्हें हमारा राजनीतिक नेतृत्व अनेकों बार जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफ़िक डिविडेंड) कहता है, कैसे अपनी राजनीतिक और सामाजिक समझ विकसित करते होंगे? इस परिप्रेक्ष्य में किसी तरह की स्किल, जो उन्हें वर्तमान आर्थिक व्यवस्था में रोज़गार दिला सके, की उम्मीद करना तो बेईमानी होगी।
अब जब राज्य में महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव आ रहे हैं तो किस आधार पर यह युवा राजनीतिक निर्णय लेंगे? सोशल मीडिया, हिंदी न्यूज़ चैनल या फ़िर अपने गांव में चल रहे माहौल के आधार पर। क्या यह युवा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और सामाजिक सुरक्षा के आधार पर अपना राजनीतिक निर्णय लेंगे? अभी तक उत्तराखंड के चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल ने गुणवत्ता युक्त शिक्षा, रोज़गार, विस्थापन जैसे मुद्दों पर स्पष्ट नीति या विश्वसनीय कार्ययोजनाएं नहीं रखी हैं।
सोशल मीडिया पर कॉलेज में रजिस्टर इन छात्रों की पोस्ट देखकर नहीं लगता कि इन्हें कैंब्रिज एनालिटिका, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के द्वारा राजनीतिक उम्मीदवारों और पार्टियों की आर्थिक हैसियत और आपराधिक रिकॉर्ड से संबंधित ख़बर व न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा भारत में पेगासस के राजनीतिक दुरुपयोग के बारे में जानकारी होगी। उत्तराखंड जैसे पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील राज्य में विकास बनाम पर्यावरण, जल, ज़मीन और रोज़गार के मुद्दों पर युवाओं की चुप्पी 5 साल बाद वोटिंग मशीन से टूटेगी या फ़िर घिसे-पिटे नारों, सोशल मीडिया और ज़हर भरे प्रचार से अभिभूत होकर वे भी वही करेंगे जो हमारे अभिभावक करते आए हैं, यह देखने लायक होगा।
कुछ साल पहले जेएनयू में एक छात्र के रूप में उत्तराखण्ड आंदोलन और चिपको आंदोलन पर साथियों से बात करते हुए इस प्रोग्रेसिव विरासत से भावनात्मक रूप से जुड़ने पर अच्छा लगता था। अब देश के अलग-अलग राज्यों से लोग फ़ोन करके, धर्म संसद से ज़हरीले फतवों, स्कूल के बच्चों में जातीय वर्ग के दंभ और “आया राम गया राम” का नया नारा गढ़ते राजनीतिक तंत्र पर सवाल करते हैं तो लगता है हम एक समाज के रूप में कितना पीछे जा रहे हैं।
इतिहास हमें बताता है कि लगभग हर समाज में परिवर्तन का नेतृत्व युवाओं ने ही किया है। हिमालय की गोद में बसे इस युवा राज्य में पता नहीं “युवा शक्ति, युवा सरकार, देवभूमि, विकास, अबकी बारी…” के बीच विकल्पहीनता की स्थिति में युवा क्या निर्णय लेंगे। शायद जो भी लेंगे उसके ज़िम्मेदार वे खुद होंगे।