राजीव लोचन साह
भारत में चल रहे अभूतपूर्व, ऐतिहासिक किसान आन्दोलन में कुछ नये-नये शब्द चमक रहे हैं। उदाहरणार्थ इस दौरान मुख्यधारा के सरकार समर्थक मीडिया के लिये ‘गोदी मीडिया’ शब्द खूब लोकप्रिय हुआ है तो कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के प्रतीक के रूप में ‘अडानी-अम्बानी’ का नाम भी बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ गया है। इसी तरह इन दिनों एक शब्द प्रचलन में आ रहा है, ‘टूलकिट’। गाड़ियों में या तकनीकी काम करने वालों के पास अपने ‘टूलकिट’ होते ही हैं, मगर इन दिनों किसान आन्दोलन के संदर्भ में जिस तरह इस शब्द का इस्तेमाल हो रहा है, विशेषकर 21 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी के बाद, उससे भ्रम होने लगा है कि यह कहीं कोई अत्याधुनिक आणविक हथियार तो नहीं है, जिसका उपयोग लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारों का सत्तापलट करना हो।
दरअसल अब तक आन्दोलनों में पर्चे-पोस्टरों का ही इस्तेमाल किया जाता रहा है। मगर उन्नत सूचना तकनीकी के इस युग में जब ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम आदि जन सामान्य में लोकप्रिय हो गये हैं, आन्दालनकारियों ने भी अपने तौरतरीके बदल डाले हैं। सोशल मीडिया का उपयोग कर वे अपने मकसद का अधिक से अधिक प्रचार करते हैं। वे अपने आन्दोलन के बारे में लोगों समझाते हैं, उनकी सहानुभूति हासिल करते हैं और यह भी बतलाते हैं कि उन्हें कैसे इस आन्दोलन में अपना योगदान देना है। वर्ष 2011 में अमेरिका में चले ‘ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट’ आन्दोलन में इसका भरपूर उपयोग हुआ था। वर्ष 2019 में हांगकांग में टूलकिट खूब चला और भारत में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में चले आन्दोलन में भी। फिलहाल दिल्ली पुलिस ने दिशा रवि, अधिवक्ता निकिता जैकब और वकील शान्तनु मलिक आदि का रिश्ता खालिस्तान आन्दोलन से जोड़ा है और उसी संदर्भ में इस शब्द ने बहुत प्रचार प्राप्त कर लिया है।