राजीव लोचन साह
यह अंक आपके हाथ में पहुँचने तक 2024 के लोकतंत्र का महापर्व समाप्त हो गया होगा और एक नयी सरकार सत्तारूढ़ हो रही होगी। भाजपा के चरम आत्मविश्वास से भरे ‘अब की बार चार सौ पार’ के नारे के साथ जो महाभारत शुरू हुआ था, वह चुनाव का अन्तिम चरण आते-आते कांँटे का संघर्ष बन गया है। इस वक्त ऐसा लग रहा है कि चुनाव आयोग और इलैक्ट्रिॉनिक वोटिंग मशीनों की मेहरबानी से भाजपानीत एन.डी.ए. की सरकार एक बार फिर से बन भी जाये तो भी शायद नरेन्द्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री नहीं बन सकेंगे। ‘मोदी की गारण्टी’ वाले अभियान और ‘मैं-मैं’ वाली अतिरंजना के साथ अपने आप को एक समूची पार्टी से ऊपर रख देने के कारण वे भाजपा के भीतर ही बेहद अलोकप्रिय होकर दुश्मनों से घिर गये हैं। अपने दम पर स्पष्ट बहुमत न ला पाने की स्थिति में भाजपा के तमाम बड़े नेता उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुँचने देंगे। नरेन्द्र मोदी के करोड़ों प्रशंसकों के लिये यह एक बहुत बड़ा आघात हो सकता है।
इस बात पर गौर करना प्रासंगिक होगा कि इन दस सालों में भारतीय लोकतंत्र और देश की राजनीति को कैसे-कैसे प्रयोग देखने पड़े। भ्रष्टाचार देश की राजनीति का एक अभिन्न हिस्सा हमेशा से रहा है और कोई भी राजनीतिक दल यह दावा नहीं कर सकता कि उसके शासन में केन्द्र के स्तर पर या कि प्रदेशों के स्तर पर कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ। आजादी के बाद अब तक सत्ता में सबसे अधिक समय तक रहने के कारण कांग्रेस इसके लिये सबसे अधिक दोषी रही। ‘कांग्रेस भ्रष्टाचार की गंगोत्री है’, जैसे जुमले हम पिछले साठ सालों में सुनते आये हैं। जनान्दोलनों का दमन आजादी के बाद से लगातार होता ही रहा है और जनता के पक्ष में खड़े रहने वाले लोग हमेशा से सत्ताधारियों को खटकते रहे हैं। अपने राजनीतिक विरोधियों को प्रताड़ित करने की कोशिशें हर सरकार के शासन में हुई हैं और हमें ‘सीबीआई तो सरकार का पिंजरे में बन्द तोता है’ जैसी बातें भी सुनने को मिली हैं। चुनाव में हेराफेरी की बातें भी सुनी जाती रही हैं। एक बार उ.प्र. के मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्ता ने हेमवतीनन्दन बहुगुणा से पूछा था कि यार, जरा यह तो बता दो कि तुमने मुझे हरवाया कैसे ? अफवाह थी कि तब ढेर सारी मतदान पेटियाँ ही बेहद सफाई के साथ बदल दी गई थीं। राजनीतिक सम्पर्कों के आधार पर सांवैधानिक पदों और संस्थानों व संस्थाओं पर कई बार अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की घटनायें भी होती रही हैं। मीडिया भी कई बार सरकारपरस्त हुआ है। कहने का अर्थ यह कि लोकतंत्र की ये बुराइयाँ भारतीय जनता पार्टी की देन कतई नहीं हैं। इनका आविष्कार काफी पहले, कांग्रेस के एकछत्र राज के दिनों में ही हो चुका था। मगर ऐसी घटनायें अपवाद थीं और उनसे भारत का लोकतंत्र डूबता हुआ सा नहीं लगता था। मगर अब ये बातें नियम हो गई हैं। अब अगर कहीं शुचिता दिखाई दी तो ताज्जुब होने लगता है। अरे, ऐसा कैसे हो गया ?
पार्टी के स्तर पर देखिये। आजादी के बाद के कुछ दशकों तक कांग्रेस बड़े इत्मीनान से चुनाव जीतती रही थी। उसे विश्वास था कि चूँकि उसने देश को आजादी दिलवायी है, अतः देश की जनता उसकी एहसानमन्द रहेगी और हमेशा उसे ही वोट देती रहेगी। यह कुछ समय तक चला भी। मगर फिर अनेक कारणों से देश भर में बिखरे कांग्रेस के क्षत्रप कांग्रेस से अलग होकर अलग पार्टियाँ बनाने लगे। मगर कांग्रेस बनी रही। इमर्जेंसी से ठीक पहले कांग्रेस में बहुत बड़ी टूटन आने के बाद भी कांग्रेस वही मानी गई, जो इन्दिरा गांधी के पास थी। प्रदेशों में वह सत्ता से बाहर हो भी गई हो, तो भी केन्द्र में वह अनेक वर्षों तक बनी रही। इस दौरान उसने आज की भाजपा की तरह पार्टी को कॉरपोरेट घरानों की तरह चलाते हुए पन्ना प्रमुख और बूथ स्तर कार्यकर्ता बनाने जैसे दूरदर्शी प्रयोग नहीं किये। न ही उसने हर जिले में अपनी पार्टी के भव्य कार्यालय बनाये। अभी भी कई स्थानों पर कांग्रेस के कार्यालय किराये के भवनों में ही चल रहे हैं। भाजपा ने इन दस सालों में न सिर्फ अपनी पार्टी संगठन को एक व्यावसायिक कम्पनी जैसा रूप दे दिया है, बल्कि हर जगह उसके जिला कार्यालय भी बन चुके हैं। दिल्ली में उसके केन्द्रीय कार्यालय को देख कर तो शायद अरबपति कम्पनियाँ भी ईर्ष्या करती होंगी। इतना बेहिसाब पैसा कहाँ से आया होगा, इसके बारे में बताने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिये।
भाजपा-आर.एस.एस. की अपनी एक विचारधारा है, जिसके अनुसार भारत को एक हिन्दू राष्ट्र होना चाहिये। देश के संविधान में उनकी कोई आस्था नहीं है। आर.एस.एस. के मुख्यालय में तो आजादी के 52 साल बाद तक राष्ट्रीय ध्वज तक नहीं फहराया जाता था। संविधान को मानना फिलहाल उनकी विवशता है। मगर भाजपा सरकारें इस स्थिति को बदलने के लिये प्रयत्नशील रहती हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भी ऐसी कोशिशें होती रहीं। मगर पिछले दस सालों में यह प्रवृत्ति बेहद तेज और आक्रामक हुई है। आज किसी भी विश्वविद्यालय, सरकारी संस्थान या संस्थाओं में नियुक्ति की पहली योग्यता ही यह रह गई है कि व्यक्ति हिन्दुत्व की विचारधारा को मानता हो। वह यदि अन्य तरह से भी योग्य और कुशल हो तो यह अतिरिक्त गुण है। अपने राजनीतिक विरोधियों को ठंडा करने के लिये मोदी सरकार ने जबर्दस्त प्रयोग किये। उनकी उम्मीदों से कई गुना ज्यादा पैसा देकर उन्हें खरीद लिया गया और फिर भी वे अड़े रहे तो ई.डी., सी.बी.आई. और इन्कम टैक्स का इस्तेमाल कर उन्हें इतना आतंकित किया गया कि वे घुटने टेक दें। यह तरीका सतत चलता रहा है और भय है कि मोदी के अवसान के बाद भी भावी सरकारें इसका उपयोग करती रहेंगी।
मीडिया पर शत-प्रतिशत नियंत्रण मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है। इन्दिरा गांधी की इमर्जेंसी के बाद जनता सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने लालकृष्ण अडवानी ने पत्रकारों को कोसते हुए कहा था कि आपसे झुकने को कहा गया था, आप तो लेट गये। इन दस सालों में मुख्यधारा का मीडिया, जो करोड़ों लोगों की समझ बनाता है, लगातार लेटा हुआ ही है। हम तो मानते आये हैं कि यदि यह मीडिया मात्र पन्द्रह दिन के लिये अपने धर्म का पालन करने लगे और सच्चाई से खबरें दिखाने लगे तो भाजपा सरकार औंधे मुँह जमीन पर आ गिरेगी। लेकिन मीडिया मोदी के आज के इन संघर्षपूर्ण दिनों में भी वफादारी के साथ उनके साथ खड़ा है। सच्चाई जानने के लिये सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के विशाल फैलाव के बीच गोता लगाने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह गया है। प्रोपोगेंडा फिल्मों का एक नया चलन भी इस दौर में देखा गया। ‘कश्मीर फाइल्स’, केरला स्टोरीज’ और ‘वैक्सीन वार’ जैसी अनेकों फिल्में बनीं, जिन्हें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री खुल कर प्रमोट करते रहे। कई बार तो ऐसी फिल्मों को मनोरंजन कर से भी मुक्त कर दिया गया।
मगर सबसे महत्वपूर्ण और रोचक प्रयोग चुनावों में किये गये। ऊपर बताये तरीकों से चुनाव आयोग को एकदम निष्क्रिय कर दिया गया। टी.एन. शेषन और जे.एम. लिंगडोह जैसे धाकड़ चुनाव आयुक्तों की तुलना में आज के चुनाव आयुक्त एकदम विदूषक लगते हैं। चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव का हास्यास्पद नाटक पूरे देश ने वीडियो पर देखा, जहाँ तथाकथित चुनाव अधिकारी स्वयं वैध मतों को बिगाड़ कर अवैध बना रहा था। उस चुनाव की इज्जत सर्वोच्च न्यायालय ने रख ली। मगर सर्वोच्च न्यायालय तो सब जगह घुसपैठ नहीं कर सकता। सूरत में लोकसभा चुनाव के लिये पर्चा दाखिल करने वाले सभी उम्मीदवारों में, भाजपा प्रत्याशी को छोड़ कर या तो सबने अपने नाम वापस ले लिये या फिर उन्हें खारिज कर दिया गया और भाजपा प्रत्याशी को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया गया। इस मामले में एक रोते हुए प्रत्याशी का बयान भी वायरल हुआ, जिसमें आरोप लगाया गया कि उनके साथ धोखाधड़ी हुई है। यह प्रयोग आंशिक रूप से इन्दौर और खजुराहो चुनाव क्षेत्रों में भी करने की कोशिश की गई, हालाँकि वहाँ अपेक्षित सफलता नहीं मिली। वाराणसी में एक कॉमेडियन श्याम रंगीला का नामांकन उत्साही प्रशासनिक अधिकारियों ने रद्द कर दिया। अब एक मामूली से कॉमेडियन से प्रधानमंत्री को क्या खतरा हो सकता था ? लोकसभा चुनाव प्रक्रिया रहने के दौरान भी विपक्षी दलों से नेताओं को अपनी ओर लाने का सिलसिला जारी रखा गया, ताकि यह माहौल बनाया जा सके कि विपक्षी दलों में अब कुछ नहीं बचा है। इसका चरम तो तब आया, जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के जमानत पर जेल से बाहर आने पर भाजपा को लगा कि दिल्ली में उसकी स्थिति डगमगा गई है तो उसने आम आदमी पार्टी की सांसद स्वाति मालीवाल को अपने साथ लाकर मारपीट-दुर्व्यवहार का एक अच्छा-खासा किस्सा बना डाला।
यदि राजनैतिक प्रेक्षकों के कयास सही बैठे और नरेन्द्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री नहीं बन सके तो अगले कुछ सालों में ऐसे असंख्य किस्से सुनने को मिलेंगे, असंख्य प्रयोगों की जानकारी मिलेगी, क्योंकि तब लोग खुल कर बोलने का साहस कर सकेंगे। इन्दिरा गांधी की इमर्जेंसी खत्म होने के बाद भी कई बातें सामने आयी थीं और वह इमर्जेंसी तो आज की अघोषित इमर्जेंसी से कहीं बेहतर थी।
2 Comments
Anwar jamal
संग्रहणीय, सटीक और ज़रूरी लेख
krishnanand Sinha
इस लेख के मोदी विरोधी अंश यदि चुनाव परिणाम आने के बाद लिखे जाते तो अधिक उपयोगी होता ।