रेवती बिष्ट
हीरा भाभी से विवाहोपरान्त भले ही दाढ़ी – मूंछ साफ, नाखून तरतीब से कटे हुए, और वेश भूषा साफ – सुथरी हो गई हो। बब्बा बनने के बाद उनमें कितना ही परिवर्तन आ गया हो पर लंबी दाढ़ी, बढ़े हुए बाल, नहीं काटे जाने के कारण बढ़े हुए नाखून, पहनावे में विशेष काला लम्बा कोट, उस पहने हुए कोट के बाएं कंधे पर टंगा हुआ झोला, गिर्दा की यही छवि मेरे मन मस्तिष्क में अंकित है।
गिर्दा की रचनाएं ’शिखरों के स्वर ’ तथा ’कविता के आंखर’ तो प्रसिद्ध थे ही पर हुड़के की थाप में सड़कों पर जन चेतना के लिए गाए गए उनके जन गीत ’ आज हिमाल तुमन क धत्यूंछ / जागो जागो हो मेरा लाल ’, ’ ओ जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुणी में ’ आदि बच्चे – बच्चे की जुबान पर मौजूद रहते। सड़क पर चल रहे जुलूस में इन जन गीतों पर बिष्ट जी भी ताल देते हुए चल रहे होते तो राजीव, शेखर, पी.सी, पाण्डे जी, महेश, हरीश, षष्टी दत्त, बालम सिंह, बसन्त, जगत और कई अन्य साथी भी संघर्षों से जुड़े इन गीतों में शामिल रहते।
जैसे गिर्दा की लम्बे कोट और झोले वाली छवि मेरे मन में अंकित है वैसे ही उनका निवास भी मुझे याद आता है निवास जो गिर्दा के कमरे के नाम से जाना जाता था में पहुंचते ही चारपाइयां दिखतीं जिन पर गद्दे जैसे कुछ के ऊपर रखा हुआ थोड़ा सा बिस्तर होता था। कानों में कमरे के बगल से गुजर रहे नाले . लगातार सुसाट सुनाई देता रहता था। कमरे से सटा हुआ था बगैर दरवाजे खिड़की वाला चूल्हा, जहां सुलगती और धूंआ देती लकड़ियों पर खाना बनता ( उन दिनों गैस नहीं होती थी ) उस कमरे के तीन स्थाई निवासी थे, गिर्दा उनके मित्र राजा बाबू और बाबू का छोटा सा प्यारा बेटा पिरम। लकड़ी से लेकर चूल्हे चौके की तमाम जिम्मेदारियां राजा बाबू पर थीं। उस चूल्हे पर बने खाने को हम सब मिलकर चारपाई पर बैठ कर खाते। बहुत स्वादिष्ट रोटियां बनती थीं वहां प् बिष्ट जी भी उन स्वादिष्ट रोटियों के मुरीद थे।
गिर्दा के विवाह के बाद राजा बाबू पांडे खोला (अल्मोड़ा) आ गए , वहां उन्होंने एक गाय पाली जो उनके जीवन के अन्तिम वर्षों का रोजगार था। बच्चा पिरम , गिर्दा के साथ ही रह कर पला बढ़ा और अब तो वह एक बच्चे का पिता भी हो चुका है और सपरिवार दिल्ली में निवास करता है।
त्योहारों में गिर्दा अक्सर अल्मोड़ा आते यह आना कई बार सपरिवार भी होता। दीपावली में गिर्दा के घर के सिंगल हम सब को बहुत पसंद आते। होली में उनके अल्मोड़ा आने से अल्मोड़ा की होली बैठकें खिल उठतीं।
गिर्दा का प्रेम भरा मधुर स्वर छोटे बच्चों से लेकर बड़ो तक के लिए समान रूप से प्रेम पूर्ण होता। आज भी वह मधुर स्वर कानों में गूंजता है। उनकी बगैर नागा भेजी जाने वाली भिटौली आज भी याद आती है। मैं भी इस भिटौली के सम्मान में रोजमर्रा के काम आने वाली वस्तुओं की एक छोटी सी पुन्तुरी गिर्दा को भेंट करती और गिर्दा हमेशा हंसते हुए पूछते , रेवा! क्या रखा है मेरे लिए इस पुंतरी में।
आज भी कान इन्हीं शब्दों को सुनने के लिए तरसते हैं – रेवा ! क्या रखा है इस पुन्तरी में ? गिर्दा एक बार तो रेवा की इस पुंतरी को लेने आते आप।
गाड़ की चिफुली ढुंगी, कै ढुंगी टेकुला।
आज का जाइया बटी, तुमके कस्यां देखूलां ॥
2 Comments
विजया सती
मर्मस्पर्शी अंकन ! सहज जीवन छवि !
Km. Vimla
गिर्दा नाम से ही मन आदर के भावों से भर जाता है, राज्य आन्दोलन के समय मुझे भी उनका सानिध्य मिला था, एक इंसान जो देखने से फक्कड़ किस्म का लगता लेकिन उनकी आवाज, उनके शब्द उनके गीत मन में एक असीम छाप छोड़ जाते, उनके गीत मन में जोश भर देते और आंखों में उम्मीद व सपने। उत्तराखंड में ऐसा कवि, गीतकार और कहानीकार अब तक कोई नहीं हुआ न होगा, उनकी जगह हमेशा खाली रहेगी तथा हमें प्रेरित करती रहेगी।
उस महान महामानव को मेरी विनम्र आदरांजलि 🙏