रमदा
व्यक्ति हो या देश समस्याओं की गैरमौज़ूदगी संभव बात नहीं है, छोटी या बड़ी कोई न कोई उलझन, समस्या या कष्ट लगा ही रहता है। ऐसी ही अपनी किसी समस्या या उलझन के दौरान जब बड़े बुझे से स्वर में मेरे मुंह से निकलता था “बड़ा कष्ट है” तो मालिक-मकान पाटनी जी कहा करते थे “ देहधारी को कष्ट ही कष्ट है, पाण्डे जी !”। सच है, जब देह से मुक्ति मिलेगी तो समस्यायेँ अपने आप ही निबट जाएंगी अन्यथा उनका सामना करना ही होता है। अब देश तो बड़ी व्यापक इकाई है, तमाम तरह की विविधताओं से लथपथ, जहाँ छोटी-बड़ी तमाम तरह की समस्याएँ लगी ही रहती हैं। होता तो ऐसा भी है कि किसी एक वर्ग की किसी समस्या का समाधान दूसरे के लिए नई समस्या खड़ी कर देता है। ऐसे में किसे प्राथमिकता दी जाए यही तय कर पाना बड़ी उलझन का सबब बन जाता है और देश चलाने वालों के लिए हालात ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की’ जैसे हो जाया करते हैं। आकार-प्रकार में समस्याएँ यदि विशाल और बहुआयामी हों तो हालात तलवार की धार पर चलने जैसे भी हो जाते हैं। किन्तु ‘ज़िंदा क़ौमें’ और ज़िंदा क़ौमों के नेता देश को आगे ले जाने की कोशिशों में लगातार लगे रहते हैं। कई बार हालात जंग जैसे हो जाते हैं। शत्रु यदि है तो मुकाबला करना ही होगा किन्तु कभी-कभी शत्रु अदृश्य भी होता है। जैसा हालिया कोविड-19 के लिए किन्हीं नेता जी ने कहा कि शत्रु दृश्य हो तो कोई रणनीति भी बने मगर यह शत्रु तो दिखाई भी नहीँ देता। इस बार देश का मुकाबला अदृश्य शत्रु से है। पिछले 70-72 सालों में गरीबी, बेरोजगारी, असमानता, अशिक्षा जैसे दृश्य शत्रुओं से निबटने के लिए जैसी रणनीतियाँ हमने बनाईं और उनका जैसा क्रियान्वन हमने किया वैसी ही नीतियाँ और उनका वैसा ही क्रियान्वन हम कोविड-19 के मामले में भी करते बशर्ते कि वह दृश्य शत्रु होता। किन्तु यह शत्रु तो दिखाई ही नहीँ देता, अगर दिखाई देने वाला होता तो गरीबी, बेरोजगारी, असमानता आदि की तरह हम इसे और इससे उत्पन्न परेशानियों भी ठिकाने लगा ही देते।
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कोविड-19 संक्रमण-संकट के इस कोरोना-काल में हमारे कई स्वनामधन्य राजनैतिक नेताओं ने कहा है कि यह समय राजनीति करने का नहीं है। बात सही भी है राजनीति सुविधा के समय की जानी चाहिए, संकट का समय इसके लिए सही नहीं होता। यह अलग बात है कि किसी संकट का राजनैतिक इस्तेमाल न करने की दुहाई का अपना राजनैतिक जमा-खर्च होता है। इस पृष्ठभूमि में मैं कोई राजनैतिक सवाल तो नहीं कर रहा मगर सहज जिज्ञासावश जानना चाहता हूँ कि इस संकट के समय भाजपा के अलावा कोई अन्य दल या उनका कोई यू.पी.ए. जैसा संगठन यदि सत्ता में होता तो इस संकट के समाधान के लिए अपनायी जाने वाली कार्य-प्रणाली या नीतियों/क्रियान्वन के तरीके में कोई प्रभावी अंतर होता? क्या उस सरकार को प्रवासी मजदूरों की इस विशाल संख्या और कार्य-परिस्थितियों की, इस सरकार के मुक़ाबले, बेहतर जानकारी होती जिसके आधार पर वह लॉक-डाउन से पहले इनको संभावित घोर अन्याय और तकलीफ़ों से बचा ले जाने के बारे में कुछ तय कर पाती? घोर संकट के समय आदमी अपनी सारी ताक़त और संसाधन दांव पर लगा देता है किन्तु चुनावी-मुक़ाबलों में करोड़ों करोड़ का दांव लगाने वाले इन राजनैतिक दलों ने आपदाग्रस्त प्रवासी मजदूरों के लिए अपनी गांठ से कुछ निकाल अपने स्तर पर कुछ सार्थक किया? अनगिनत दलों में से कितने आपको धरातल पर मजदूरों और मजबूरों के बीच सक्रिय दिखाई दे रहे हैं? मुझे लगता है मौजूदा नारकीय परिस्थितियों से किसी भी तरह बाहर निकलने की कोशिश में लगे मजदूरों को किसी फ़्लाइ-ओवर पर रोक उनसे बतियाने का नाटक इस बार इन्होंने किया और अगर ये सत्ता में होते तो वे करते।
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अब जैसा भी इतिहास हमने अपने बचपन से पढ़ा या हमें पढ़ाया गया इतना तो हमें पता है ही कि ‘डिवाइड एंड रूल’ के हथियार का अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाने और लंबे समय तक गुलाम बनाए रखने के लिए भरपूर इस्तेमाल किया। इस बिलगाव को धर्म, जाति, भाषा या जब जो उपयोगी लगा के आधार पर हवा दी जाती रही और साबित होता गया कि बंट गए लोगों पर शासन करना आसान होता है। आज़ादी के बाद अस्तित्व में आए तथाकथित प्रजातन्त्र में भी सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों ने अंग्रेजों की इस सीख का इस्तेमाल जारी रखा है और इसके नए-नए आधार सामने आए हैं। इस तरह की तमाम फूटों के अनेक नतीजों में से एक है – ‘वोट-बैंक’। भारत के राष्ट्रीय, राज्यीय या क्षेत्रीय राजनैतिक-दलों की उनके वोट-बैंक के बिना कल्पना कीजिये। जैसे हमारे बचपन की कहानियों में राक्षस की जान किसी तोते या अन्य पशु-पक्षी में होती थी वैसे ही हमारे मौजूदा राजनैतिक दलों की जान उनके वोट-बैंकों में होती है और वह इनको हर हालत में ठीक उसी तरह ‘सोने के पिंजरे’ में बचाए रखना चाहते हैं जैसे उन कहानियों के राक्षस। सारी नीतियों / निर्णयों के मूल में यह सोने का पिंजरा बड़ी हैसियत रखता है। वोट-बैंक के इस खेल में हम इस कदर ‘झुनझुना’ बन कर रह गए हैं कि अगर हम भाजपा से किसी मामले में असहमत हैं तो हम पर काँग्रेसी होने का ठप्पा लगता है और कांग्रेस से नाराज़ हैं तो पक्का ‘भक्त’ मान लिया जाता है। नागरिक की जगह वोट-बैंक में तब्दील हो गए हम लोग पता नहीं कब समझेंगे कि ऐसे में शासकों की गलतियों के विरोध में खड़े हो सक्ने की अपनी ताकत और हैसियत तो हम खो ही देते हैं ऊपर से आपस में ही एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। सत्ता के लिये इससे सुखद और सुविधाजनक कुछ नहीं होता। इसीलिए प्रजातन्त्र के इस मुकाम पर हमारी हैसियत “जिस तरह चाहो बजा लो इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं” की रह गई है और ऐसे में मौजूदा संक्रमण-संकट के सबसे त्रासद और किसी भी संवेदनशील आदमी की स्मृति में अटल रहने वाले पहलू, प्रवासी मजदूरों की दारुण-दशा, पर हमारे आंसुओं की हैसियत टेसुओं ज्यादा नहीं है।