गिरिजा पाण्डे
उत्तराखंड मे जंगलों का मुद्दा लम्बे समय से सत्ता और समाज के बीच संघर्ष का विषय रहा है। बीती 21 नवम्बर को उत्तराखंड सरकार द्वारा जंगलों को नए तरीके से परिभाषित करते हुए एक आदेश जारी किया गया। इस आदेश के द्वारा राज्य सरकार ने 10 हेक्टेयेर या उससे कम क्षेत्रफल और 60 प्रतिशत से कम छत्रक आवरण (केनोपी घनत्व) वाली अवर्गीकृत वन भूमि को डीम्ड फारेस्ट की श्रेणी से बाहर रखे जाने का निर्णय लिया है। ऐसा लगता है कि इस आदेश के द्वारा राज्य अवर्गीकृत वन भूमि के भू उपयोग को बदलने की मंशा रखते हुए इसका व्यावसायिक उपयोग करना चाहती थी।
वन कानून मे किये जा रहे इस बदलाव के दीर्घकालिक सामाजिक और पर्यावरणीय खतरों को भाँपते हुए 5 दिसंबर को वन कानूनों की समझ रखने वाले अवकाश प्राप्त वनाधिकारी विनोद कुमार पाण्डे ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय मे इस आदेश को चुनौती दे डाली। याचिकाकर्ता का कहना है कि यह आदेश सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1996 में टी. एन. गोडाबर्मन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले मे दिये गए निर्णय का सीधा उल्लंघन है और जानना चाहा है कि क्या राज्य सरकारें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई वनों की परिभाषा को मात्र एक आदेश से बदल सकती हैं ? वहीं दूसरी ओर वनाधिकारों के लिए संघर्षरत सामाजिक कार्यकर्ता अदालत गये इस मामले को ग्रामीण समाज के हक हकूकों के लिये एक नए आसन्न खतरे के रूप मे देख रहे है और आशंका व्यक्त कर रहे है कि अदालती लड़ाई मे वनों की परिभाषा कहीं ग्राम समाज की बची खुची जमीनों को न लील ले।
दरअसल ग्राम समाज के हक हकूकों का यह मसला इतना सरल नहीं है, जितना ऊपर से दिखाई देता है। हाल में अदालतों मे गये कुछ एक मामलों से इस मुद्दे की गंभीरता को समझा जा सकता है। 2012 में पौड़ी सोशल वेलफेयर सोसाइटी की ओर से न्यायालय में दायर हुए सुबीर मारिओ चौफीन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले मे 9 अक्टूबर 2014 को सुनवाई करते हुए हरित प्राधिकरण ने वनों की परिभाषा को लेकर मामले को फिर से सरकार को सुलझाने के निर्देश दिए हैं। यही नहीं, 4 और 7 मई 2019 को बीरेन्द्र सिंह बनाम मिनिस्ट्री ऑफ एन्वायरामेंट, फॉरेस्ट एंड क्लाइमेटचेंज मामले में एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारत सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से पूछा गया कि 23 साल पहले दिए गए दिशा निर्देश पर उसने अब तक क्या किया ? मामले में तब एक नया मोड़ आया, जब न्यायालय के सामने खुलासा हुआ कि सरकारें इस मामले में कतई गंभीर नहीं हैं और वनों के वर्गीकरण को लेकर लगातार टालमटोल करती रही हैं। गत माह मुंबई की आरे सोसाइटी में मेट्रोलाईन निर्माण के लिए पेड़ों के कटान के मामले में महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगाते हुए एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार से टी. एन. गोडाबर्मन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले मे दिये गए निर्णय के अनुसार कार्य करने को कहा है। दरअसल सरकारों की इस लापरवाही के चलते ग्राम समाजों के प्राकृतिक अधिकारों के हनन के साथ-साथ अनेक बार कई विकास योजनाओं का भविष्य भी संकट में पड़ा है। इसलिए आज प्राकृतिक संसाधनों के लिए समय-समय पर आये वन और भू कानूनों को समग्रता के साथ वर्तमान राजनैतिक-आर्थिक सन्दर्भों से जोड़ कर समझना आवश्यक हो गया है।
विनोद पाण्डे द्वारा दायर की गई जनहित याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार करते हुए जैसे ही उच्च न्यायालय ने राज्य और केंद्र सरकार को नोटिस जारी किये, भारत सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने मामले की भनक लगते ही उत्तराखंड के प्रमुख सचिव वन को आनन-फानन मे एक पत्र जारी कर जंगल की परिभाषा को सुप्रीम कोर्ट द्वारा 12 दिसंबर 1996 को याचिका संख्या.95 गोडाबर्मन बनाम भारत संघ मामले में दिए गए निर्णय के आलोक मे देखे जाने की हिदायत दे डाली। न्यायालय द्वारा नोटिस जारी किए जाने के दिन ही, 5 दिसंबर 2019 को भारत के उपमहानिरीक्षक वन के हस्ताक्षर से जारी पत्र मे साफ तौर पर कहा गया कि जंगल की परिभाषा में किसी भी तरह का परिवर्तन सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस सन्दर्भ में दिए गये निर्णय का उल्लंघन होगा। अपने पत्र मे उप महानिरीक्षक वन ने यह भी चेताया कि किसी भी राज्य या केंद्रशासित क्षेत्र की सरकार को मनमाने तरीके से वन क्षेत्र की परिभाषा गढ़ने का अधिकार नहीं है। इस पत्र के आधार पर दाखिल एक अन्य याचिका में फिलहाल न्यायालय द्वारा इस आदेश पर रोक लगा दे गई है।
12 दिसम्बर 1996 को गोडाबर्मन बनाम भारत संघ मामले में न्यायालय द्वारा जंगलो की परिभाषा का आधार बढ़ाते हुए न केवल वन विभाग या राजस्व विभाग द्वारा वर्गीकृत वनों को, बल्कि ऐसे इलाकों को भी वनों की श्रेणी मे रखने को कहा जो वन की व्यापक शब्दकोशीय परिभाषा के अंतर्गत आते हैं। राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया कि वे समितियों का गठन कर भू स्वामित्व, अधिसूचित, वर्गीकृत या चिन्हित की बहस मे पड़े बिना समयबद्ध प्रक्रिया के अंतर्गत वनभूमि की पहचान सुनिश्चित करें। अनेक राज्यों ने शपथ पत्र देकर इस काम को समय पर पूरा करने का आश्वासन दिया। मध्य प्रदेश, ओड़िशा और गुजरात की राज्य सरकारों ने राज्य वन अधिनियम मे विशेष क्षेत्र या डीम्ड फॉरेस्ट का वर्गीकरण तो किया लेकिन यह भी न्यायालय की व्याख्या के अनुरूप नहीं हो पाया है। यह उल्लेख करना उचित होगा कि गुजरात सरकार ने तो 2 हेक्टेयेर या उससे कम क्षेत्रफल के भूखंडो तक को डीम्ड फारेस्ट के दायरे मे शामिल कर डाला है।
क्या है विशेष क्षेत्र वन ?
दरअसल उत्तराखंड सरकार के हालिया आदेश में विशेष क्षेत्र को वन या डीम्ड फॉरेस्ट के रूप मे नए ढंग से परिभाषित करते हुए “पहले से अधिसूचित वन क्षेत्र के अलावा राज्य के किसी भी राजस्व रिकॉर्ड मे वन के रूप मे अधिसूचित या उल्लिखित 10 हेक्टेयर (25 एकड़ या लगभग 500 नाली) से अधिक के सघन क्षेत्र को जिसका कैनोपी घनत्व 60 प्रतिशत से ज्यादा हो’ वन की श्रेणी मे रखा गया है। इसी आदेश में किसी भी आकार और प्रजातियों के बाग और फलों वाले क्षेत्र को छोड़ कर 10 हेक्टेयर या उससे अधिक के ऐसे सघन क्षेत्र को जिसमें 75 प्रतिशत से ज्यादा स्थानीय वृक्ष प्रजातियां हों, को भी वन की श्रेणी में शामिल करने निर्णय लिया गया है।
वनों को लेकर की गई नई परिभाषा से साफ है कि 60 प्रतिशत से कम केनोपी और 10 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले इलाके के साथ-साथ ऐसे सघन क्षेत्रों, जिसमें 75 प्रतिशत से कम स्थानीय वृक्ष प्रजातियां हों, को भी वन नहीं माना जायेगा। ऐसी वन भूमि को गैर वनीय कार्यों के लिए उपयोग मे लाया जा सकता है। उत्तराखंड में आरक्षित वन, संरक्षित वन, सिविल सोयम वन, ग्राम वन, निजी वनों के अलावा ऐसी वन भूमि भी है जिसे अवर्गीकृत श्रेणी में रखा गया है। एक आँकड़े के मुताबिक उत्तराखंड में स्वयं वन विभाग के अधीन लगभग 55.407 वर्ग किलोमीटर अवर्गीकृत और अन्य अवर्गीकृत श्रेणी के अंतर्गत 1444.5. वर्ग किलोमीटर क्षेत्र आता है। ऐसे में आरक्षित वनभूमि की श्रेणी में न आने वाले वृक्ष रेखा से ऊपर के कतिपय ऐसे उच्च हिमालयी इलाके और बुग्याल क्षेत्र, जो जैव विविधता तो से भरे पड़े हैं, लेकिन 60 प्रतिशत कैनोपी घनत्व का मानक पूरा नहीं करते, तक इस आदेश की गलत व्याख्या का शिकार हो सकते हैं। यहाँ इस बात को रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि आज भी उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में मैदानी भागों के बनिस्बत कृषि भूमि कमोबेश कुल भूमि का 6 प्रतिशत ही है, जबकि मैदानों के लिए यही प्रतिशत 12 के आसपास है। इसी तरह मैदानी काश्तकारों की विशालकाय जोतों की तुलना में पहाड़ी इलाकों के बड़े से बड़े काश्तकार की प्रति परिवार जोतों का रकबा 2 हेक्टेयर से कम है। ऐसे में उत्तराखंड मे नाप जमीनों से बाहर 60 प्रतिशत कैनोपी और 10 हेक्टेयर के आसपास रकबे वाले भू क्षेत्रों की मिल्कियत किसके पास हो सकती है इसकी सहजता से कल्पना की जा सकती है। यह आशा करना कि छोटी-छोटी जोतों वाले पहाड़ी काश्तकारों की जमीनें वन संरक्षण अधिनियम के पंजे से निकल कर नई संभावनाओ के द्वार खोलेंगी, दिवास्वप्न से कम नहीं होगा। उत्तराखंड में जमीनों की बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त के दौर में इस नए आदेश के अवर्गीकृत वनभूमियों के भू उपयोग को बदल कर व्यावसायिक हित साधे जाने के खतरे ही ज्यादा दिखाई देते हैं। यह बताया जाना आवश्यक है कि अवर्गीकृत वनभूमि वन वर्गीकरण के भीतर एक ऐसी इकाई है, जिसकी विधिक हैसियत भी अभी स्पष्ट नहीं है और दरअसल यही सारे विवाद की जड़ है।
देखा जाये तो अवर्गीकृत वनों को लेकर न्यायालय में गया यह मामला केवल वनों की परिभाषा, वर्गीकरण किये जाने या अधिकारों तक ही सीमित नहीं है। बल्कि यह भू स्वामित्व जैसे जटिल मुद्दों से भी उतनी ही गहराई से जुडा है। उत्तराखंड में भूमि के प्रश्न को सुलझाये बिना वनों पर अधिकारों की समस्या का समाधान तलाशना संभव नहीं है, क्योंकि वन भी अंततः भूमि मे ही खड़े हैं। इसलिए वन भूमि पर हक स्थापित किये जाने से पहले ये देखा जाना आवश्यक होगा कि ये वन किसकी मिल्कियत हैं ? उत्तराखंड मे वन कानूनों, वन श्रेणियों की अस्पष्ट व्याख्या से उपजे इन अंतर्विरोधों और वनवासियों के पारंपरिक प्राकृतिक अधिकारों के साथ-साथ वन क्षेत्रों मे रह रहे गोठिया, टोंगिया, गुर्जर समेत वनवासी और समुदायों के जीवनयापन के सवालों को भी इस समस्या से अलग कर नहीं देखा जा सकता है। दरअसल ऐतिहासिक सन्दर्भों से काट कर देखे जाने के साथ-साथ सामाजिक विमर्शों मे वन कानूनों के अंतर्विरोधों की अनभिज्ञता ने हाल के दशकों मे वनाधिकारों की समस्या को न केवल लगातार जटिल बनाया है, बल्कि पर्यावरणीय आंदोलनों की दिशा को भी भटकाया है।
इतिहास के आईने में भूमि बंदोबस्त और वन
इतिहास मे झांक कर देखें तो 1815 में उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अंग्रेजी शासन तंत्र वाली राज्य संस्था की स्थापना के साथ सत्ता, समाज और प्राकृतिक संसाधनों के अंतर्संबंधों को पहली बार नये सिरे से परिभाषित करने और इन्हें उपभोग की वस्तु (कमोडिटी) के रूप मे देखे जाने का सिलसिला शुरू हुआ। उत्तर पश्चिमी गढ़वाल का एक हिस्सा टिहरी रियासत के रूप मे गढ़वाल के शासक को देकर शेष उत्तराखंड को कंपनी सरकार ने अपने अधिकार कर में ले लिया। नई व्यवस्था ने सबसे पहले भूमि के बंदोबस्त का सिलसिला शुरू कर निजी सम्पति की अवधारणा को एक ऐसे समाज में लागू किया, जो अब तक एक भिन्न व्यवस्था से संचालित हो रहा था, जहाँ वन और वन भूमि उसकी दैनिन्दन जीवन पद्धति का एक अभिन्न हिस्सा थे। भू स्वामी किसी कानूनी अधिकार के बजाय ग्रामीण समाज में अपने प्रभाव पर निर्भर थे। सन 1823 में कुमाऊँ कमिश्नर जी. डब्ल्यू. ट्रेल ने भूमि बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू की। इस तरह उत्तराखंड में पहली बार गाँव की सीमायें निर्धारित की गईं और उसके अंतर्गत आने वाली जमीन, जल और जंगल के उपयोग का अधिकार ग्रामीण समाज को दिया गया। यहाँ अलग से वनों की सीमा निर्धारित नहीं की गई थी। संवत् 1880 में किया गया यह बंदोबस्त आम बोलचाल मे अस्सी साला बंदोबस्त के नाम से चर्चित हुआ। अंग्रेजी सत्ता ने मात्र सौ सालों के अन्तराल मे ट्रेल, बैटन, बैकेट, एबटसन, पौ और गूच सरीके अधिकारिओं के माध्यम से महत्वपूर्ण बंदोबस्त करवा राज्य के समूचे संसाधनों को समय-समय पर अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप परिभाषित और निर्धारित कर डाला।
उत्तराखंड के भूराजस्व पर नजर गढ़ाए ब्रिटिश शासन के लिए आने वाले लगभग चार दशकों तक जंगल राज्य के आकर्षण का विषय नहीं रहे। 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी से सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन शासन आ जाने के बाद यूरोप में लकड़ी की मांग और भारत मे रेल लाइनों के लिए बढ़ती मांग को देखते हुए 1865 में तराई के साल के जंगलों को पहली बार आरक्षित किया गया। 1868 में कुमाऊँ कमिश्नरी के अंतर्गत पहले वन भिभाग की स्थापना की गई और मेजर पियर्सन को इसका मुखिया बनाया गया। वर्ष 1868-69 के आते-आते सरकार को जंगलों का व्यावसायिक महत्व समझ में आने लगा और वनों के सर्वेक्षण का कार्य युद्धस्तर पर शुरू किया गया। मेजर पियर्सन ने नियमित वर्किंग प्लान बनाने का काम आरम्भ करवाया। वनों को वर्गीकृत करने के लिए 1872 मे सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा जंगलों का 10 सेमी सर्वे शुरू किया गया। हालाँकि वनों के प्रबंधन का ये सिलसिला जारी था, लेकिन 1893 में लाये गए एक कानून के जरिये पहाड़ों की जमीन के एक हिस्से, जिसे वेस्टलैंड कहा गया, को संरक्षित वनों की श्रेणी मे डाल दिया गया। इस तरह उत्तराखंड की भूमि का एक बड़ा हिस्सा सरकार के नियंत्रण मे आया गया। 1903 में वनों को वर्गीकृत कर ‘क्लोज्ड सिविल’ और ‘ओपन सिविल’ फॉरेस्ट मे विभाजित किया गया। ओपन सिविल फारेस्ट में कतिपय प्रतिबंधों के साथ ग्रामीणों को उपयोग के अधिकार दिये गए और बेनाप भूमि को सरकार के नियंत्रण में लाया गया। 1908 में बरेली में दरबार हॉल मे एक बैठक में सर जॉन हवेट ने इस मामले में सफाई देते हुए कहा कि सरकार की मंशा जंगलो से मुनाफा कमाने की नहीं है, बल्कि वह जंगलों का विनाश रोकने और इनसे मिली धनराशि का उपयोग जनता के विकास के लिए करना चाहती है। 1927 में ब्रिटिश सरकार ने नए वन अधिनियम द्वारा वनों को ३ श्रेणियों- आरक्षित, संरक्षित और ग्राम वन मे वर्गीकृत किया। ऐसे वन क्षेत्र जो इन निर्धारित श्रेणियों से इतर थे, अवर्गीकृत कहलाये। वनों के वर्गीकरण की यह दुविधा और कानूनों के अंतर्विरोध तब से आज तक चलते आ रहे हैं।
आजाद भारत,अंग्रेजी कानून और चुनी सरकारें
आजादी के बाद यह अपेक्षा की गई थी कि नई सरकार ब्रिटिश कानूनों को समाप्त कर नए सिरे से प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन करेगी। दुर्भाग्यवश यह सपना आज भी वैसा ही बना हुआ है। यह भी कम आश्चर्य नहीं कि ‘जनता का शासन जनता के द्वारा जनता के लिए’ कहलाने वाले दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र मे सरकारें आज समाज से दूर खड़ी एक दूसरे को भौंहें ताने दिखती हैं। उनकी असफलता से उपजे सवाल अदालतों में अपराधी से न्याय दिलाने जैसे लगने लगे हैं। .
उत्तराखंड में 1960-64 के बीच चलाये गये भूमि बन्दोबस्त को साठ साल हो गये हैं। तब यह सोचा गया था कि यह बंदोबस्त अगले 40 वर्षो के लिए आवश्यक जानकारियां उपलब्ध करवाने मे सहायक होगा। पिछले 50 वर्षों में उत्तराखंड राज्य का भू पारिस्थितिकीय और जनांकिकीय परिदृश्य अभूतपूर्व रूप से बदला है. राज्य को अस्तित्व मे आये भी अब दो दशक होने जा रहे हैं। लेकिन योजनाकारों के पास पलायन से जूझ रहे राज्य के भू उपयोग की तथ्यात्मक जानकारी तक उपलब्ध नहीं है। यही कारण है कि भूमि बंदोबस्त से सीधे जुड़ा वनों की मिल्कियत का सवाल आज भी अनुत्तरित है।
वन मामलों की समझ रखने वालों का मानना है कि वन कानूनों किये जा रहे ये बदलाव न केवल पिछले दरवाजे से वन भूमि में घुसपैठ करने की नीयत से जुड़े हैं, बल्कि ये भविष्य में एक बड़े पारिस्थितिकी तंत्र को भी तहस-नहस करने वाले साबित होंगे। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि वनों की परिभाषा के सन्दर्भ में वन कानूनों में लाये जाने वाले बदलावों को वन संरक्षण अधिनियम 1980 के अनुच्छेद 2(2), जो वन भूमि के गैर-वानिकी उपयोग की प्रक्रिया को निर्धारित करता है, के साथ-साथ, वृक्ष संरक्षण अधिनियम 1976, जैव विविधाता अधिनियम 2002, वन अधिकार अधिनियम 2006, से अलग कर नहीं देखा जा सकता है। इतना ही नहीं वैज्ञानिक वन प्रबधन को लेकर 1952 और 1988 में लाई गई वन नीति, जो वनों की परिभाषा को व्यापक आधार देते हुए देश मे पारिस्थितिकीय संतुलन हेतु वनों की पारिस्थितिकीय सेवाओं (इकोसिस्टम सर्विसेज) का संज्ञान लिए जाने का दिशा निर्देश देती है, को भी इस कानूनी लड़ाई मे नजरंदाज किया जाना संभव नहीं होगा।
यही कारण है की उत्तराखंड उच्च न्यायालय मे विचार के लिए आई इस याचिका ने एक बार फिर से उत्तराखंड राज्य की अवधारणा, प्राकृतिक संसाधनों पर नागरिक समाज के अधिकारों के साथ-साथ उसकी अनुभूत आवश्यकताओं सरीखे बड़े सवालों को सुशासन और जन अधिकारों की बहस के केंद्र में ला खड़ा कर दिया है। वन कानूनों में लगातार किये जा रहे प्रयोगों को पर्यावरणीय चिंताओं और जलवायु परिवर्तन से उपजे वैश्विक दबाव और कॉरपोरेटी लालसाओं से अलग कर के भी नहीं देखा जा सकता। अभी कुछ वर्ष पूर्व वन कानूनों की समीक्षा के लिए गठित टी. एस. आर. सुब्रमण्यम समिति की सिफारिशों, जिसे संसद की सेलेक्ट समिति की हरी झंडी अभी तक नहीं मिल सकी है, की मंशाओं से भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए। दरअसल यह वन संरक्षण ही था, जिसने 60 और 70 के दशक में चल रहे अंधाधुंध वन विनाश के खेल को रोकने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह दीगर बात है कि अपनी कमजोरियों और अंतर्विरोधों के चलते तत्कालीन सामाजिक आन्दोलन वनवासियों के प्राकृतिक अधिकारों को उस सीमा तक बचा पाने मे सफल नहीं रहे जिसके लिए वे आज भी जूझ रहे हैं।
यूँ तो नई दुनिया में विकसित हो रहे पर्यावरणीय आन्दोलनों की बहस और वनों के महत्व को स्टॉकहोम सम्मलेन में भारत के नजरिए ने नई दिशा दी। उत्तराखंड की धरती से उपजे चिपको आन्दोलन ने इस बहस को अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन कानून के दुष्चक्र मे उलझे सत्ता, समाज और संसाधनों के अंतर्विरोध वह भी नहीं सुलझा सका। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुनवाई के लिए स्वीकार इस जनहित याचिका के बहाने उत्तराखंड में जमीन और जंगल के बड़े प्रश्नों पर एक नई बहस खडी होगी। सरकारें अदालतांं के दिशा निर्देशों का पालन करते हुए संसाधनों का साफ-साफ खाका खींच उसके दायरे को स्पष्ट करेंगी, ताकि हमेशा के लिए अनुत्तरित और अनसुलझे सवालों का हल ढूंढा जा सके। कही ऐसा न हो कि अदालती लड़ाई से एक बार फिर उत्तराखंड का समाज हमेशा टुकड़े-टुकड़े में बने कानूनों के मकड़जाल में उलझाया जाता रहे।