रमदा
वह समय इतिहास हो गया जब आम जनता से राजनैतिक दलों का संपर्क जन सभाओं के माध्यम से होता था। दलों के जमीनी कार्यकर्ता किसी भी नुक्कड़ या सार्वजनिक जगह पर, जिसका चयन नेता जी के कद पर निर्भर करता था, मंच-कुर्सियों-दरियों-माइक आदि का इंतजाम कर दिया करते थे और लोग सुना भी करते थे। श्रोता दल-विशेष से जुड़े लोग ही होते हों ऐसा नहीं था, सचमुच का आम आदमी भी वहाँ होता था। प्रायः कुछ ही दिनों के भीतर विरोधी दलों की भी एक अदद जबाबी-सभा हो जाया करती थी। चूंकि मुद्दों, समस्याओं, नीतियों और समग्रतः विचारधारा संबंधी अंतर राजनैतिक दलों में होते थे, इन सभाओं के माध्यम से आम लोगों को अपना नज़रिया और दल विशेष के लिए समर्थन की मानसिकता बनाने में मदद मिलती थी। आम मतदाता का दल विशेष के प्रति जुड़ाव मोटे तौर पर विचारधारा के प्रति आग्रह से जुड़ा होता था। ये सभाएं केवल चुनाव के समय ही होती हों ऐसा कतई नहीं था क्योंकि आम जनता से संपर्क की जरूरत आज की तरह केवल चुनावों के दौरान ही नहीं होती थी, यह बात अलग है कि चुनावों के दौरान इनकी तादाद जरूर बाद जाया करती थी।
वक्त बदला है : राजनैतिक दलों की आर्थिक नीतियाँ विश्व स्तर पर डब्ल्यू.टी.ओ., आई.एम.एफ.जैसी संस्थाओं के दिशा-निर्देशों और देश के स्तर पर बड़े कॉरपोरेट घरानों के हितों के अनुसार तय होती हैं। परिणामतः सभी दलों की आर्थिक नीतियाँ एक जैसी होती हैं। राजनैतिक दल व्यक्ति-विशेष या परिवार विशेष की निजी जागीर की तरह चलते, चलाये जाते हैं। इस दौर में राजनीति के वल चुनाव तक सीमित है और अब चुनावी राजनीति आम मतदाता की मोहताज भी नहीं रही, इस राक्षस की जान अब वोट-बैंक रूपी चिड़िया में है और दल विशेष की नीतियों / निर्णयों के मूल में इसकी बड़ी हैसियत है। जो कुछ किया जाना है इस चिड़िया को अपने वश में बनाए रखने के लिए किया जाना है। ऐसे में जनसम्पर्क और लोगों से सीधे जुडने का कोई मतलब बाकी कहाँ रह जाता है। लोगों को मुगालते में रखने के लिए सोशल और दल विशेष से जुड़ा मीडिया और फ्लैक्सी पर्याप्त साबित होते हैं। एक वक़्त था जब राजनैतिक जीवन की शुरूआत जनता के बीच काम से होती थी अब चौराहों पर लगाई गई कुछ फ्लैक्सीज राजनीति में प्रवेश की घोषणा का काम बखूबी कर देती हैं। इनमें से भी अधिकतर किसी न किसी नेता के प्रति अपनी संबद्धता की ही मुनादी कर रही होती हैं, जनता के किसी मुद्दे से इनका कोई ताल्लुक नहीं होता।
समग्रतः यह पतनशील राजनीति का दौर है, तकरीबन पूरे देश में और तदनुसार उत्तराखंड में भी। पिछले इक्कीस सालों में उत्तराखण्ड में भाजपा और कांग्रेस से जिस तरह राज-काज चलाया है, जिस तरह की राजनीति की है उसका उत्तराखंड-आंदोलन के “उत्तराखंड की अवधारणा” से कोई संबंध नहीं रहा है। आंदोलन के मूल में पर्वतीय भू-भाग की विशेषताओं और परिस्थितियों के अनुरूप, मैदानी इलाकों से भिन्न, जिन विशिष्ट नीतियों / योजनाओं की चर्चा थी उसका लेशमात्र भी कहीं अस्तित्व में नहीं दिखाई देता। अगर हम भाजपा या कांग्रेस के बंधुवा वोट-बैंक का हिस्सा नहीं हैं तो मानेंगे कि पृथक-पर्वतीय राज्य के नाम से जो राज्य हमें दिया गया उसमें ऐसा कुछ पिछले इक्कीस सालों में सामने नहीं आया है जिसके लिए यहाँ का आम जन आंदोलित रहा था। आम जन हाशिये पर खड़ा है और सबसे खराब बात यह है कि वह उदासीन है…तटस्थ। दोनों अखिल भारतीय राजनैतिक दलों की कारगुजारियाँ उसके सामने हैं। दो दल भी कहाँ हैं, उनके नेता इधर-उधर होते रहे हैं, कल का कांग्रेसी आज का भाजपाई है और आज का भाजपाई कब कांग्रेसी हो जाए कोई नहीं जानता।
इस परिदृश्य में गत अप्रैल में, कोरोना-काल की बंदिशों के बीच, एक नई फ्लैक्सी पर नज़र पड़ी। संदेश था कि “18 अप्रैल को उत्तराखंड बदलने वाला है“। बताया गया कि यह आम आदमी पार्टी की उत्तराखंड की चुनावी राजनीति में दी जाने वाली दस्तक की घोषणा है और आम आदमी पार्टी को लगता है कि भाजपा और कांग्रेस से त्रस्त लोग आगामी चुनाव में उसका साथ देंगे और उत्तराखंड बदलेगा। सोशल-मीडिया पर केजरीवाल और आ.आ.पा. को विरोधियों, “भक्तों” आदि द्वारा कितनी भी गालियां क्यों न दी जाएँ व्यक्तिगत स्तर पर, सही या गलत, मैं मानता हूँ कि इन लोगों का भारतीय राजनीति में इस नजरिये से ऐतिहासिक और अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है कि इन्होंने साबित किया कि अगर शिद्दत से लोगों के बीच काम किया जाए तो अपार धनबल के आधार पर चुनाव में विजयी रहने वाले बड़े राजनैतिक दलों का वर्चस्व भंग किया जा सकता है। मुझे लगा कि अन्ना-आंदोलन के बाद राजनीति के मैदान में उतरने के लिए जिस तरह लोगों के बीच जाने, उनकी जरूरतों को समझने और तदनुसार एक रणनीति बनाने का काम केजरीवाल की टीम ने दिल्ली में किया ऐसा ही कुछ जमीनी स्तर पर करने की कोशिश आ.आ.पा. यहाँ भी करेगी। किन्तु कुछ नए लोगों के इस पार्टी से जुड़ने व सदस्यता-अभियान चलाये जाने की खबरों के अलावा कुछ खास होता कहीं दिखाई नहीं दिया। एक सन्नाटा सा छाया हुआ था, निसंदेह कोरोना-संकर्मण की भी भूमिका इसमें रही होगी। अभी एक-दो सप्ताह पहले तमाम जगहों पर लगाई गई इस फ़्लेक्सी के साथ कि “केजरीवाल का पहला वादा 300 यूनिट बिजली मुफ्त” से यह सन्नाटा टूटा तो है किन्तु इसके साथ वह उम्मीद भी बुरी तरह टूटी है जिसे वैकल्पिक राजनीति कहा जाता है। एक टीम जो जन-आकांक्षाओं को समझने और तदनुसार सक्रिय होने के आधार पर दिल्ली में सत्ता हासिल करने में कामयाब हुई थी उसके झंडाबरदारों की नज़र में उत्तराखंड की जनता की पिछले इक्कीस सालों की तमाम तकलीफों और मोहभंग का समाधान 300 यूनिट मुफ्त बिजली के आश्वासन में है। यह पतनशील चुनावी राजनीति का गर्त है, जिसमें अब आम आदमी पार्टी भी डूबेगी। ऊपर से कांग्रेस के कर्णधारों की बलिहारी है जिन्होंने इसे 400 यूनिट मुफ्त की ऊंचाई तक पहुंचा दिया है। राजनैतिक दिवालियेपन के इस प्रदर्शन में आम आदमी के मुद्दे कहाँ से जगह पाएंगे। अगर चार महीनों में तीन बार मुख्यमंत्री बदलने वाले दल से आम जन अलग होना चाहें तो कहाँ जाएँ इन मुफ्त बिजली वालों के पास।
उत्तराखंड को जरूरत है अपनी विशिष्ट प्राकृतिक बनावट के अनुरूप विशिष्ट नीतियों की, बिखरी बसासत के अनुरूप विशिष्ट स्वास्थ्य सेवाओं की, उत्तराखंड और पहाड़ के काम आने वाली शिक्षा-व्यवस्था की, उजड़ती जा रही कृषि और जन-विहीन होते जा रहे गावों को बचाने वाली योजनाओं की, खनन और शराब के गैर कानूनी धंधों में रोजगार तलाशने को विवश युवाओं के लिए समुचित रोजगार जुटाने की, जल-जंगल-जमीन और सर्वोपरि पर्यावरण को क्षति पहुंचा रही तथाकथित विकास-योजनाओं, गैर जरूरी फोरलेन सड़कों और विद्युत-परियोजनाओं पर पुनर्विचार की। तय जानिए की जब तक यह सब राजनैतिक विमर्श का अनिवार्य हिस्सा नहीं बनेगा उत्तराखंड में जनकल्याण की संभावनाओं को कोई आधार नहीं मिलेगा। सत्ता पर काबिज दलों की उत्तराखंड में अदल-बदल होती रहेगी किन्तु आम आदमी और राज्य के हालात लगातार वैसे ही बने रहेंगे जैसे इक्कीस साल पहले थे। यह भी तय है कि किसी नए दल को अगर यहाँ अपने लिए जमीन तलाशनी है तो बिना जन सरोकार को विमर्श में लाये उसे कुछ हासिल नहीं होने वाला। केजरीवाल की टीम को जल्दी ही 300 यूनिट बिजली के आश्वासन की मूर्खता से बाहर आना चाहिए और उत्तराखंड के असल मुद्दों पर अपना नज़रिया साफ करना चाहिए वरना अभी ऐसा बहुत कुछ है जो दिल्ली में किया जाना बाकी है, वहाँ से बाहर उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला।
दरअसल मुफ्त बिजली की जरूरत राजनैतिक दलों को है ताकि उनके दिमाग में रोशनी की किरणें प्रवेश कर सकें और कुछ सकारात्मक चिंतन / विमर्श हो सके। जहां तक मेरा सवाल है “300 यूनिट बिजली मुफ्त केजरीवाल का पहला वादा” लिखा देखते ही मुझे अनायास बेगम अख्तर की याद आ पड़ी …… “हम तो समझे थे बरसात में बरसेगी शराब, आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।’’
One Comment
Govind Raju
ततुक नी लगा उदेख……
गोविंद गोविंद