वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
अब डबल इंजन कहां है। सब तो सिंगल इंजन है। हम तो केवल सिंगल इंजन के लिये पटरी तैयार कर रहे हैं। चाहे शिखरोन्ुमखी पहाड़ों की ऊंचाई काट-छांट कर इतनी सपाट कर दी जाये कि पहाड़ सिर उठा कर कभी ये न कह सके कि चाहे आज हमें जमीन पर ला के सपाट कर दिया गया है किन्तु हम भी लाखों वर्ष तक धूप, बरसात, हिमपात में भी आभामण्डित शिखर थे। परन्तु एक भूपटल इतिहास का भूवेत्ताओं से अलग यह नवलेखन तो आज भी या आने वाले कल में भी हो ही सकता है कि तुंग शिखरों को मिटा के उपजी सपाट जमीन पर इनको सपाट करने वालों को महिमा मण्डित करती ऊंची से ऊंची धातुई प्रतिमाओं की स्थापना हो जाये। ऊंची से ऊंची धातुई प्रतिमाओं का स्थापना युग तो चल ही रहा है। उन सपाटों में पेड़-पौधे, बुग्याली प्रकृति को शायद ही बुलावा मिले पर चांदी, सोने के पत्र पुष्प कोई सोने की चिड़िया चोंच में दबाये करतल ध्वनियों के बीच ले आये।
बुलावा तो गर्भगृहों को सोने और चांदी से मढ़ने वालों को ही जाता है इसलिये जब पहुंचवानों को अपने-अपने हिसाब से सोने-चांदी से वैराग्य की तपोस्थली को भव्य बनाने की अनुमति होगी तो वह उस वाइब्रेशन व ऊर्जा की चिंता क्यों करेगा जो किसी आम श्रृदालु के लिये देव प्रतिमा समक्ष संवेदी होती है। जो आध्यात्म की ऊर्जा होती है और जो उन गर्भगृहों से तंरंगित होती है जो मिट्टी, पत्थर, लकड़ी से व कभी-कभी फल, फूल, दाल, अनाजों और परम्पराओं से भी पुष्ट होती है। वह दिन भी हमारे आस-पास ही है जब योग मनन के लिये तपोअनुप्राणित शिखरों की बहुप्रचारित गुफायें भी चांदी-सोना जड़ित कर दी जायेंगी। उनमें शांति से मनन करने के लिये धनपति उन कम्पनियों को दिन-रात के लिये भारी किराया देंगी जिनको ये गुफायें आउटसोर्स होंगी। वोकल फौर लोकल की नीति में भी विदेशी कम्पनियां देवभूमि में ज्ञान देने की हकदार तो होती ही रहीं हैं। तीर्थस्थलों व आस्था पर्यटन से कैसे कमाया जा सकता है यह जानने के लिये जनता का पैसा उन पर न्योछावर भी किया जायेगा। हो सकता है कि आयतित प्रबंधन गुरों से समृद्ध होकर कालांतर में विज्ञापनों में यह भी दिया जाने लगे कि फलां-फलां के शासन काल में फलां-फलां पौराणिक आराधना व तीर्थ परिसर स्वर्णिम हुये जिसकी अर्से से जरूरत थी। जिसको जमीन पर उतारने की हिम्मत शायद अपनी आस्थाओं के कारण पहले किसी ने नहीं की होगी।
जहां तक उतराखंड की बात है यहां के धर्मपरायण जन खुले आसमान के नीचे कंकर-कंकर में शंकर को देखने और उनमें आस्था पालने के अभ्यस्थ हैं। स्वयं आशुतोष तो जलाभिषेक से ही संतुष्ट होने वाले रहे हैं। भगवान के लिये उनके विशिष्टों द्वारा या सरकारों द्वारा किये जाने के उल्लेख वाले विज्ञापनों से बचने की आवश्यकता तो है ही। उपदेशित है कि सब कुछ वह करता है किन्तु अज्ञानवश हम समझते हैं कि हम कर रहें हैं।
आम जन के लिये उसके मंदिर व उसके इत्तर भी पूजा स्थल वेदियां आदि आस्थाओं के केन्द्र होते हैं। सरकारों को किसी के सपने पूरे करने लिये या अपनी समझ से भव्यता देने के लिये उसके बाहरी व भीतरी परिवेश में परिवर्तनों से बचना चाहिये। यदि कोई समुदाय अपनी आस्था से अपने ईष्ट आराध्यों की पूजा खुले में या किसी वृक्ष के नीचे शांति, सहजता व दैवीय अनुकम्पा का अनुभव करता है तो एस स्थान का वैसे ही रहना चाहिये। वहां जाकर किसी धनपति या शासक को यह नहीं कहना चाहिये कि मैं तुम्हारे इस पेड़ की जगह सोने का पेड़ बनवा दूंगा, तुम्हारे प्रभु भव्यता के सान्निध्य में रहेंगे इसलिये तुम मुझको यह करने दो तब भी वह समुदाय जो हरे पेड़ से अपनी ईष्ट की सम्बधता जानता है इसे स्वीकार न करे। एक किसान के खेत की मिटटी यदि सोने की हो जाये तो किसान धनी तो हो सकता है किन्तु वह अपने खेत में किसानी नहीं कर पायेगा। उसी तरह हो सकता है जो लोग गुफा में ध्यान लगाने का सपना देखते हैं वो सोने की दीवारों में भक्ति भाव लाने में दिक्कत अनुभव करेंगे।
लगता तो यही है कि अपने सपनों के उत्तराखंड में रचे बसे लोग देवभूमि में पाण्डु पुत्रों के स्वर्गारोहण के पदचिन्हों की राहों के स्वर्णिम होने से शायद ही प्रभावित हों। यदि धामों में धाम स्वर्णाच्छादित हो जायेंगे तो बंद कपाटों के उस दौर में भी अस्त्र शस्त्र युक्त आरक्षी जमघट की मांग बढ़ जायेगी जिसमें देव व ऋषि भव्य धामों में एकांत वास व आराधना करना चाहते हैं। आस्थावानों ने तो 2013 की केदार आपदा को मां के कोप व तीर्थस्थलों में सैलानी परिवेश के बढ़ावे से भी जोड़ा था।
समर्थवान अपने कार्यकलापों में प्रकृति के साथ सहअस्तित्व का मूल मंत्र न बिसरायें। ये भी न भूलें कि अब तक उत्तराखंड ही देश का अकेला ऐसा राज्य है जिसका मुख्यतया अलग गठन उसके पर्वतीय होने के परिपेक्ष्य में हुआ है। पर्वतों को सपाट कर व उनको भेद कर विकास की नीति से जितना परहेज कर सकें उतना अच्छा है। निःसंदेह पर्वतीय राज्य दूसरे भी हैं किन्तु उनका गठन केवल पर्वतीय भूगोल के कारण नहीं हुआ है।