डॉ. अतुल शर्मा
पर्वतों के गांव से आवाज उठ रही संभल।
औरतों की मुट्ठियां मशाल बन गयी संभल।।
मेरे लिखे जनगीत “लड़के लेंगे भिड़ के लेंगे/ छीन के लेंगे उत्तराखंड” की पक्तियां हर आन्दोलनकारी की जुबान पर थीं। मैं और तमाम संस्कृतिकर्मी इस आन्दोलन में शामिल रहे हैं। यह हमारे समय का ऐतिहासिक आन्दोलन था। पहाड़ के हर गांव —शहर शहर से लोग इसमें जुड़े थे। जनसैलाब सड़कों पर था। यह अद्भुत समय था।
इस जनगीत के माध्यम से मैंने यह भी व्यक्त किया था कि पृथक उत्तराखंड की मांग के पीछे बहुत से कारण थे। मैंने जनगीत मे पांच “प” को लेकर बात उठाई थी। वह पांच ‘प’ थे पानी, पलायन, पर्यावरण, पर्यटन और पहचान।
सांकेतिक मोर्चे ने इस जनगीत को जन—जन तक पहुंचाया। देहरादून मे उत्तराखंड सांस्कृतिक मोर्चा बना। इसमें अधिकांश साहित्य और सांस्कृतिकर्मी व रंगकर्मी शामिल थे। ये सब आन्दोलन में शामिल रहे। मशाल जुलूसों, प्रभातफेरी और रैलियों में उनकी भागीदारी सबसे आगे रहती। ऐसा हर जगह हुआ। नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से आन्दोलन को गति दी गयी।
उत्तरकाशी में तमाम संस्कृतिकर्मी व साहित्यकर्मी आन्दोलन को महत्वपूर्ण गति दे रहे थे। कलादर्पण और अन्य साथियों ने सौ दिनों की ऐतिहासिक प्रभातफेरी करके जन जागृति पैदा की थी। इसमें लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी, जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा, जहूर आलम, बल्ली सिंह चीमा और मेरे जनगीत गाये जाते रहे। नुक्कड़ नाटक और सांस्कृतिक मोर्चे सक्रिय रहे। उनका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।
नैनीताल में नैनीताल समाचार बुलेटिन ने अद्भुत चेतना जगाई। वहीं युगमंच और संस्कृति मंच ने नुक्कड़ नाटक, प्रभातफेरी, रैलियों के साथ जनगीतों का ओडियो कैसेट भी तैयार किया और पुस्तक भी प्रकाशित की। डॉ. शेखर पाठक, राजीव लोचन साह आदि सक्रिय रहे। बहुत सी स्मारिकाओं ने भी आन्दोलन को गति दी। धाद ने पोस्टर प्रकाशित किया। नन्दादेवी कला संगम की ओर से देहरादून में गढ़वाली सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता बलराज नेगी ने दो जनगीतों का आडियो कैसेट बना कर वितरित किया। इसमें जनगीत ‘लड़के लेंगे भिड़ के लेंगे छीनके लेंगे उत्तराखंड’ के साथ कवि धर्मान्द उनियाल ‘पथिक’ जी का गीत था। इसे जगमोहन जोशी मंटू ने तैयार किया और लोक गायिका रेखा उनियाल धस्माना जी और संगीता मधवाल ढौढियाल आदि ने स्वर दिया था। ऐसे ही मंसूरी में इप्टा, टिहरी में प्रयास व बहुत से संस्कृतिकर्मी सक्रिय रहे। पौड़ी, श्रीनगर, गोपेश्वर, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग में सांस्कृतिक मोर्चे शामिल रहे। आक्रोश संस्था सक्रिय रही। भवाली में भिनेर संस्था आन्दोलन में शिरकत करती रही।
मैं जिनमें शामिल हो सका। वही यहाँ लिख रहा हूं। वैसे सभी जगह संस्थायें और व्यक्तित्वों ने सांस्कृतिक मोर्चे खड़े करके आन्दोलन को गति दे रहे थे। साहित्य और सांस्कृतिक चेतना का यह महान दृष्य आज भी आंखों में बसा हुआ है। लोग जेल गये। मुजफ्फरनगर गोली कांड, खटीमा, मसूरी, देहरादून, श्रीयन्त्र टापू आदि में लोग शहीद हो गये। मुजफ्फरनगर कान्ड ने महिलाओं के साथ घृणित कार्य हुआ। क्या क्या नहीं झेला पर्वतवासियों ने। तब इस उत्तराखंड राज्य प्राप्ति हुई। आज उसे संवारने और विकास की गति को बनाये रखने की जरुरत है।