कुछ ही महीने बाद उत्तराखंड में चुनाव होने हैं। इस नाते मैं जिन-जिन लोगों से मिलता था, चुनाव के बारे में जरूर पूछता था। फिलहाल, जो माहौल दिखा, उसमें सत्ता से गहरा असंतोष और नाराज़गी है। जिन लोगों ने पिछले चुनाव में भाजपा का समर्थन किया था, वे भी इस बार उससे नाराज हैं। पर किसी दूसरे या तीसरे दल पर लोगों का पक्का भरोसा नहीं बना है। यानी विकल्प पर लोगों में विचार जारी है। इन कुछ महीनों में जो भी लोगों को कुछ भरोसा दिला पायेगा, लोग उसके साथ जा सकते हैं। कांग्रेस पार्टी या उसके केंद्रीय नेतृत्व के प्रति लोगों में ज्यादा आकर्षण भले न हो पर पार्टी के प्रमुख प्रांतीय नेता हरीश रावत के लिए लोगों में अब भी सम्मान है। अन्य नेताओं के मुकाबले वह ज्यादा कारगर समझे जा रहे हैं। पर कांग्रेस अभी तक कारगर और ठोस वैकल्पिक केंद्र के रूप में नहीं उभर सकी है। युवाओं का एक हिस्सा अरविन्द केजरीवाल की ‘आप’ से भी जुड़ता दिख रहा है।
सूबे की राजनीति में विचारहीनता का भयानक अंधेरा है। ऐसे में वैकल्पिकता की कोई नयी रोशनी नहीं उभरती तो लोग मन मारकर मौजूदा सत्ताधारियों को एक बार फिर सौंप सकते हैं। अगर कांग्रेस ने लोगों की सत्ता से नाराजगी का इस्तेमाल करते हुए कुछ जनाकर्षक मुद्दे उठाये तो वह भाजपा और आम आदमी पार्टी को बहुत आसानी से पछाड़ भी सकती है। मौजूदा भाजपा सरकार से उनकी नाराजगी बढ़ती बेरोजगारी, पिछले चुनाव में किये वादों के पूरा न करने, कोरोना के दौरान भारी अफरा-तफरी, लापरवाही, अस्पतालों की बेहाली और अन्य जन-समस्याओं को संबोधित करने में उसकी विफलता व कार्यक्रम-क्रियान्वयन की कमजोरियों को लेकर है। उत्तराखंड में हर कोई कहता मिलता हैः हमारे राज्य में कोरोना बिल्कुल नहीं आया होता अगर भाजपा सरकार हरिद्वार में जबरन कुंभ का इतना बड़ा आयोजन न कराती! कुंभ को प्रतीकात्मक करने का सुझाव सही था पर सरकार ने नहीं माना। इससे कोरोना पर्वतीय क्षेत्र में फैल गया।
वैचारिकता और राजनीतिक-बौद्धिक ईमानदारी का अभाव तो कमोबेश पूरी भारतीय राजनीति में है। लेकिन उत्तराखंड की राजनीति और समाज में वैचारिकता की जैसी कमी है, वैसी बहुत कम राज्यों में दिखेगी। हर प्रदेश की तरह यहां भी कुछ लोग वाम या लिबरल रूझान की ‘वैचारिक राजनीति’ की बात करते रहे हैं पर आज वे जमीन पर कम दिखते हैं या फिर उनका नेतृत्व जमीनी असलियत को नज़रंदाज़ कर स्वयं ही जनता से अलग-थलग होता दिख रहा है। एक जमाने में कुछ वामपंथी समूहों ने यहां जनाधार बनाने की अच्छी कोशिश की थी पर वे पारंपरिक वाम-दायरे से ज्यादा नहीं हटे। उनके अंदर नया विचार और रचनात्मक सोच नहीं विकसित हो सका। अंततः उनकी प्रगति अवरुद्ध हो गयी। ऐसे समूहों के कुछ लोग अब कांग्रेस में हैं या फिर तरह-तरह के संगठनों या मोर्चों के शरणागत हैं। पता नहीं, ऐसे लोग किस बदलाव के नाम पर पिटे-पिटाये फार्मूले से चिपके हुए काम करते रहते हैं! इस तरह के राजनीतिक-वैचारिक परिदृश्य से बुद्धिजीवी या विचार से जुड़े लोग भी प्रभावित दिखते हैं।
उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों की एक बड़ी विशेषता है कि जिससे भी मिलिये, वे आमतौर पर प्यार से मिलते हैं, खासकर बुजुर्ग और अधेड़ लोगों में यह शालीनता और उदारता और भी ज्यादा है। यूपी-बिहार के मुकाबले इस राज्य में लोगों का स्वभाव निस्संदेह थोड़ा अलग है। शायद, इसमें यहां की भौगोलिकता का भी कुछ योगदान हो! कठिन परिस्थितियों में जीने के अभ्यास के बीच लोगों ने संभवतः परस्पर सहकार और सहयोग के भावों व मूल्यों को बनाये रखा। पर नयी पीढ़ी में उसकी कमी हो रही है। हरिद्वार या ऊधमसिंह नगर आदि में उतरते ही सब कुछ अलग-सा दिखने लगता है। राज्य के ज्यादातर मैदानी इलाकों में लोगों के बात-व्यवहार में बदलाव नजर आता है। यूपी-बिहार वाली बातें, जिनमें अच्छा-बुरा दोनों है, यहां दिखने लगती हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों के प्रभावकारी और प्रभुत्वशाली तबके के लोगों में सहकार-सहयोग जैसे गुण के अलावा अजीब तरह का वैचारिक ढुलमुलपन और कई मामलों में तो काइयांपन भी कुछ कम नहीं दिखता। इस मामले में वे कई अन्य सूबों के लोगों को भी मात देते नजर आते हैं। ‘आयाराम-गयाराम’ के लिए हरियाणा ज्यादा बदनाम हुआ पर उत्तराखंड और यूपी की सियासत में यह प्रवृत्ति कुछ कम प्रभावी नहीं रही। विजय बहुगुणा-रीता बहुगुणा जैसे बड़े नामों के अलावा दर्जन भर से ज्यादा उल्लेखनीय नाम हैं।
भाजपा की कैबिनेट में आज कई ऐसे वरिष्ठ मंत्री हैं जो लंबे समय तक कांग्रेस में रहे। कांग्रेस-नीत सरकारों में वरिष्ठ मंत्री तक रहे। छोटे से राज्य में इतने सारे ‘पाला-पलट खिलाड़ी’! सोचिये, यह प्रवृत्ति किन ‘कठिन परिस्थितियों’ से रू-ब-रू होने के चलती आई! सिर्फ नेताओं तक ही यह प्रवृत्ति सीमित नहीं है। समाज के दूसरे हिस्सों में भी वैचारिक ढुलमुलपन बहुत प्रभावी दिखता है। उदाहरण के लिए उत्तराखंड के उच्चवर्णीय पढ़े-लिखे लोगों में अपने किसी निजी या पारिवारिक फायदे के लिए किसी के साथ जाने या किसी ‘हवा में बहने’ की प्रवृत्ति बहुत आम है। ऐसे लोग अपने कथित विचारों या सिद्धांतों पर बहुत आसानी से समझौता कर बैठते हैं और इसे कोई भी बुरा नहीं मानता। यह सब कुछ सहजता से होता है और सहज-भाव से ही लिया जाता है। कुछ साल पहले की बात है, अपने-आपको वामपंथी पत्रकार मानने वाले एक महाशय ने अचानक राज्य के एक भाजपाई-मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार का पद संभाल लिया। इसी तरह, लिबरल और संजीदा स्वभाव वाले एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार एक अत्यंत दक्षिणपंथी और घनघोर संघी मिजाज के मुख्यमंत्री के सलाहकार बन गये। निजी फायदे या लाभ के ऐसे मौके भी उच्चवर्णीय पढ़े-लिखे लोगों को ही मिलते हैं। दिलचस्प बात है कि जो लोग यहां के समाज में सबसे वंचित-उत्पीड़ित और पिछड़े हैं, वे ही सबसे ज्यादा उदार और मूल्यों के स्तर पर टिकाऊ भी हैं। उनमें लोगों के प्रति बैर या कटुता नहीं है। पर वे न्याय चाहते हैं। समानता चाहते हैं। समान अवसर चाहते हैं।
बहुजन समाज पार्टी ने भी एक जमाने में यहां संगठन को सक्रिय और गतिशील बनाने की कोशिश की थी पर वह अब इतिहास की बात है। राजनीति और वैचारिकता के अभाव में कई दफा बसपा के विधायक ‘आयाराम-गयाराम’ की राजनीति में दीक्षित होते रहे। अंततः पार्टी की विचारहीनता ने उसे उत्तराखंड में अप्रासंगिक-सा बना दिया। लोगों से बात करने पर पता चला, इस चुनाव में बसपा फिर मैदान में उतरने वाली है। उसके कुछ विधायक अगर जीत भी गये तो इसका सूबे की राजनीति पर कोई खास फर्क या प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। अधिक से अधिक वे दल-बदल कर कांग्रेस या भाजपा को कमजोर या मजबूत करने में योगदान कर सकते हैं!
उत्तराखंड में सीपीआई(एमएल) भी काफी समय से काम कर रही है। उसके तीन-चार प्रमुख नेता अपने-अपने तईं लगातार सक्रिय हैं। पर यह पार्टी आज भी उत्तराखंड में वैसा जनाधार नहीं बना सकी, जैसा उसके पास बिहार के कुछ हलकों में है। इसके कारण उत्तराखंड की सामाजिक-राजनीतिक संरचना और पार्टी की वैचारिकी व रणनीति में खोजे जा सकते हैं। इधर, दलित, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों(ओबीसी) में कुछ नये सामाजिक संगठन बहुत संगठित और व्यवस्थित ढंग से काम कर रहे हैं। वे अभी पूरे प्रदेश में प्रभावकारी भले नहीं हैं पर आधार के उऩके कुछ उल्लेखनीय पाकेट्स हैं। ऐसे सामाजिक संगठनों का नजरिया चुनावी राजनीति के दलों से भिन्न है। उनके लिए उत्तराखंड में बड़ी संभावना है। बशर्ते वे बसपा या बामसेफ के पुराने-मुरझाये गुटों जैसी गलतियां न करें। उनके लिए समाज और राजनीति में बड़ी संभावनाएं हैं तो चुनौतियां और मुश्किलें भी कम नहीं हैं।
बाहर कम लोगों को मालूम है कि उत्तराखंड में सबाल्टर्न समूहों की आबादी बहुत बड़ी है। आमतौर पर दिल्ली या देश के दूसरे हलकों के विद्वानों या वहां से प्रकाशित अखबारों या संचालित चैनलों की पत्रकारिता में उत्तराखंड को ‘बाम्हन-ठाकुर वाला प्रदेश’ मान लिया जाता है। गैर-जानकारी वश, शुरू में मैं भी ऐसा ही समझता था। पर यह सच नहीं है। ब्राह्मण-ठाकुर सत्ता और समाज में वर्चस्वशाली जरूर हैं पर उत्तराखंड में बहुजन आबादी इतनी बड़ी है कि कोई संगठन जनता के वास्तविक मुद्दों पर सही ढंग से काम करे तो वह उत्तराखंड में असमानता, भेदभाव और उत्पीड़न के विरुद्ध नयी राजनीतिक संस्कृति की नींव डाल सकता है। दलित-आदिवासी 24 फीसदी से ऊपर हैं।
इसमें आदिवासियों का हिस्सा 4 फीसदी है। मुस्लिम आबादी तकरीबन 14 फीसदी, सिख 2.5 फीसदी और ईसाई 0.37 फीसदी हैं। सरकारी जनगणना में अब तक ओबीसी यानी पिछड़े वर्गों की गणना ही नहीं होती। इसलिए उनका कोई अधिकृत आंकड़ा नहीं है। पर विशेषज्ञों का अनुमान है कि उत्तराखंड में पिछड़े वर्गों(ओबीसी) की आबादी कम से कम 14 फीसदी से कुछ ऊपर ही होगी। इस तरह राज्य में गैर-उच्चवर्णीय लोगों की आबादी तकरीबन 54-55 फीसदी बनती है। कई क्षेत्रों में ठाकुरों और अन्य कथित उच्च वर्णों का एक हिस्सा भी गरीब और पिछड़ा है। वे भी ऐसी मोर्चेबंदी से जुड़ सकते हैं। वामपंथी समूह वैचारिकता और समझदारी के स्तर पर कांग्रेस या बसपा आदि से समुन्नत रहे हैं। पर इन समूहों ने दलित-ओबीसी-अल्पसंख्यकों के बड़े हलकों यानी राज्य के बड़े सामाजिक आधार के बीच कभी संगठित ढंग से काम नहीं किया। इन समुदायों के बीच से प्रभावशाली नेता या अच्छे कार्यकर्ता भी नहीं विकसित किये। इसलिए वे अपने कुछ समझदार और ईमानदार नेताओं के बावजूद सूबाई-राजनीति में ‘लकीर के फकीर’ बने नजर आते हैं।
उत्तराखंड के सबाल्टर्न समूहों में किसी भी प्रमुख दल का कोई खास जनाधार नहीं है। चुनावी राजनीति में सक्रिय सभी राजनीतिक दल राज्य के ब्राह्मण या राजपूत जैसे दो प्रभावी जाति-समूहों के इर्द-गिर्द ही राजनीति करते आ रहे हैं। पहले भी इन्हीं समूहों का हर स्तर पर वर्चस्व रहा है। उत्तराखंड के गठन का आंदोलन हो या अन्य सामाजिक-राजनीतिक संगठनों का अभियान हो, इन सब में राज्य की दो सबसे प्रभावी उच्चवर्णीय-हिन्दू जातियों से आये लोगों का ही दबदबा था। राज्य की 54-55 फीसदी आबादी की हिस्सेदारी उतनी प्रभावी नहीं थी। सन् 2002 में जब राज्य का पहला विधानसभा चुनाव संपन्न हुआ तो दलित-आदिवासी और यहां तक कि ओबीसी के उल्लेखनीय हिस्से ने भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस का साथ दिया। उन दिनों कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे-हरीश रावत। उनके बात-व्यवहार से सबाल्टर्न समूहों में कांग्रेस की अच्छी स्थिति हो गयी।
नये राज्य का तोहफा देने वाली भाजपा(तब केंद्र में एनडीए-1 का वाजपेयी दौर चल रहा था) चुनाव हार गयी। कांग्रेस ने नया मुख्यमंत्री हरीश रावत की बजाय बुजुर्ग नारायण दत्त तिवारी को बनाया। लेकिन तिवारी मंत्रिमंडल में दलित-शिल्पकार-ओबीसी आदि को वाजिब हिस्सेदारी नहीं मिली। कांग्रेस सरकार की अन्य नीतियों से भी उत्पीड़ितों के बीच वह भरोसा नहीं बना, जो चुनाव के दौरान बनता नजर आया था। भाजपा ने इस मौके का फायदा उठाया और सबाल्टर्न समूहों में भी अपनी ‘हिन्दुत्वा-राजनीति’ को ‘इंजेक्ट’ करना शुरू किया। इन समूहों से उसने कई नेता उभारे। पर मुख्यमंत्री या बड़े पदों पर हमेशा गैर-दलित या गैर-पिछड़े ही बैठाये गये। विशेष कम्पोनेंट योजना के लिए निर्धारित योजना-राशि अक्सर खर्च ही नहीं की जाती थी। ऐसे मुद्दों पर प्रमुख दलों की तरफ से कोई ठोस आवाज नहीं उठी। सिर्फ कांग्रेस के कुछ दलित नेता कभी-कभी इस पर बोलते थे।
उत्तराखंड की एक और बड़ी समस्या-बौद्धिक विमर्श को लेकर है। यहां के प्रभावशाली नेता, बड़े बुद्धिजीवी-लेखक, मीडिया के लोग और असरदार पत्रकार अपने समाज को इतना समावेशी और सहज-सुंदर मानकर चलते हैं कि उन्हें किसी समुदाय या समूह के पिछड़ेपन, उत्पीड़न या अलगाव की बात बेमतलब या अटपटी लगती है। जैसे ही ये सवाल कोई उठाता है, वे सब समवेत स्वर में कहने लगते हैं: ‘हमारे उत्तराखंड में यूपी-बिहार जैसी जाति-वर्ण की कोई बात ही नहीं है!’ अच्छी बात होती, अगर उत्तराखंड में ऐसी कोई बात न होती! लेकिन असलियत यह नहीं है। खेती की जमीन और अन्य जायदाद में दलित-आदिवासियों या ओबीसी का क्या हिस्सा है? फलों के बगीचे में किसका-कितना हिस्सा है? पर्वतीय इलाके में खेती-योग्य जमीन कम है। लेकिन उसमें बहुजन कही जाने वाली जातियों का हिस्सा बहुत कम है। उच्च वर्ण के लोगों की बहुतायत है। पर उनके यहां भी खेती-बाड़ी का काम महिलाओं के हवाले है। उत्तराखंड देवताओं की जमीन है-देवभूमि! देवताओं के मंदिरों की भरमार है। इन मंदिरों में पुजारी और मठाधीश कौन हैं? क्या किसी लोकतंत्र में पुजारी या मठाधीश सिर्फ एक वर्ण का या एक ही वंश-परिवार का होना चाहिए? उत्तराखंड के समाज में अगर आज सब कुछ सहज है तो वह तमिलनाडु के ‘मंदिर-पुजारी मॉडल’ को क्यों नहीं अख्तियार करता? ऐसे कदम से उत्तराखंडी समाज आज जितना सहज है, उससे भी ज्यादा सुंदर और सहज बनेगा।
भाजपा सरकार ने धार्मिक प्रतिष्ठानों, खासकर चारधाम यात्रा से सम्बद्ध धर्मस्थलों को लेकर कुछ आधे-अधूरे सुधार के कदम उठाये हैं। पर सुधार के ये कदम ज्यादा सुसंगत और व्यापक होने चाहिए। कांग्रेस अगर राज्य स्तर पर वैकल्पिक-राजनीति की बात करना चाहती है तो उसे मंदिर और चार-धाम यात्रा सुधार का अपना भी कोई वैकल्पिक विचार प्रकट करना चाहिए। राज्य में आज भी कई इलाके हैं, जहां मंदिरों में दलित-प्रवेश लगभग निषिद्ध सा है। कुछ ही साल पहले की बात है। राज्य के एक दौरे में मैंने स्थानीय अखबारों में खबरें देखी थीं कि किस तरह पश्चिम उत्तराखंड के कुछ इलाकों में दलितों-शिल्पकारों का मंदिरों में प्रवेश-निषेध सा है। चकराता तहसील के एक गांव में मंदिर प्रवेश-निषेध के विरूद्ध दलितों ने मंदिर के प्रवेश द्वार पर धरना-अनशन किया था। उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेजा था।
अच्छी बात है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने ऐसे मामले में हस्तक्षेप करते हुए दलितों के साथ मंदिर-प्रवेश किया। कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी समस्या है कि उसके पास कुछ नेता जरूर हैं पर व्यवस्थित और अनुशासित संगठन नहीं है। एक ही दल में कई-कई गुट और खेमे हैं। इन पर नेतृत्व की कोई पकड़ नहीं है। दूसरी तरफ, आरएसएस-भाजपा के पास नेता उतने प्रभावकारी या समझदार भले न हों पर उसके पास संगठन है-व्यवस्थित और चुस्त! प्रचार और अफवाह का भी शक्तिशाली तंत्र है। समाज के प्रभावशाली और वर्चस्वशाली समूहों और समुदायों के बीच उसका जबर्दस्त समर्थन है। वर्चस्व की यही शक्तियां सरकार और प्रशासन को दलित-उत्पीड़ित तबकों के जीवन में उल्लेखनीय बदलाव लाने वाले कदम उठाने से रोकती हैं।
उत्तराखंड के इस सच को दलित-उत्पीड़ित समाज के लोग अच्छी तरह समझ चुके हैं। काठगोदाम, भीमताल, नैनीताल, रामगढ़ और भवाली में मिले कई लोगों ने इस बारे में विस्तार से चर्चा की और सामाजिक-राजनीतिक जीवन के इस पहलू के प्रभावकारी होने की पुष्टि की। नैनीताल, अल्मोड़ा और ऊधमसिंह नगर के कुछ हलकों में घूमते हुए मैंने महसूस किया कि आरएसएस-भाजपा के ‘हिन्दुत्ववाद’ ने सबाल्टर्न समूहों को नये सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया है। एक समय जिस बहुजन समाज पार्टी(BSP) के आठ विधायक तक जीते थे, आज वह संगठन और पार्टी के स्तर पर लगभग ध्वस्त हो चुकी है। सपा या इस तरह के अन्य दलों का कोई खास असर नहीं है, जो उत्तराखंड की राजनीति को त्रिकोणीय या बहुकोणीय बनायें। सपा-बसपा के पास राजनीतिक तौर पर कोई जनपक्षीय दृष्टि और दिशा भी नहीं है। उत्तराखंड की राजनीति में आम आदमी पार्टी (AAP) ले-देकर भाजपा-शैली की ही एक अलग पार्टी है। लोगों का एक हिस्सा उसे भाजपा की बी-टीम मानता है।
ऐसे उत्तराखंड में एक नये जनपक्षी, सबाल्टर्न मुद्दों को संबोधित करने वाली प्रगतिशील और सुसंगत दिशा वाली राजनीति के लिए बड़ी संभावना है। पर वह 2022 के चुनाव में अचानक नहीं उभर सकती। ऐसी राजनीति को पहले अपना सामाजिक आधार संगठित करना होगा। जो ऐसा करेगा, वह सभी दलों से निराश उत्तराखंड की बड़ी आबादी, खासकर उपेक्षित और वंचित समूहों का दिल जीतेगा। तब यहां की राजनीति पैर के बल खड़ी होगी। अभी वह सिर के बल खड़ी है-शीर्षासन की मुद्रा में।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सन् 1990-93 के ‘आरक्षण-विरोधी उच्चवर्णीय क्रोध’ में अचानक बड़े रहस्यमय ढंग से उत्तराखंड के अलग राज्य के गठन का सवाल उभरकर सामने आया था। अलग राज्य की आवाज पहले से उठ रही थी। पर उसे तीव्रता और गति सन् 1990-93 के ‘आरक्षण-विरोधी उच्चवर्णीय आक्रोश’ के विस्तार के बाद ही मिली। बाद के दिनों में भाजपा को अपनी हिन्दुत्ववादी (उच्चवर्ण-आधारित) राजनीति को चमकाने के लिए अनुकूल अवसर दिखा। इसी राजनीति के तहत उत्तराखंड के गठन की मांग को केंद्र की तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने मंजूर कर लिया।
सन् 2022 का चुनाव पर्वतीय सूबे की राजनीति में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं लायेगा! मैंने अपने भ्रमण और लोगों से बातचीत के दौरान बार-बार महसूस किया कि सूबे में गुणात्मक बदलाव लाने लायक राजनीतिक शक्तियों का अपेक्षित विकास और विस्तार बिल्कुल नहीं हुआ है। पर इस चुनाव के नतीजे आगे की राजनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण होंगे। अपने प्रवास के आखिरी चरण में हमने भीमताल से रामगढ़ और काठगोदाम से ऊधमसिंह नगर के बीच कई अनजान लोगों से भी मुलाकात की।
रामगढ़ के तिराहे वाले छोटे बाजार में हमारी मुलाकात राशन की एक सरकारी दुकान पर लाइन में खड़े कुछ लोगों से हुई। वे यहां सरकारी योजना के तहत मुफ्त अनाज लेने आये थे। एक बुजुर्ग सज्जन अपने पोते के साथ अनाज लेकर जा रहे थे। पढ़े-लिखे और कुछ जागरूक लगे तो हमने उनसे कुछ संवाद शुरू किया। जैसे ही उन्हें पता चला मैं दिल्ली से आया हूं और पत्रकार हूं, उन्होंने खुलकर बोलना शुरू किया। उन्होंने राज्य के सत्ताधारी भाजपा नेताओं को जमकर कोसा। कांग्रेस को डूबता जहाज बताया और साथ में यह भी जोड़ा कि हरीश रावत के बाद इस पार्टी का यहां कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। लेकिन राशन से भरे दो बड़े थैलों को दिखाते हुए उन्होंने कहाः ‘मोदी सरकार और मामलों में चाहे जैसी हो पर हम जैसे साधारण लोगों का फिलहाल पेट तो चला रही है न! यह कुछ कम है क्या?’ चुनाव के बारे में पूछे जाने पर कहाः ‘फैसला धामी और हरीश के बीच होना होगा तो हम रावत का साथ देंगे। पर मोदी और राहुल के बीच चुनना होगा तो मोदी को वरीयता देंगे।’ मैंने पूछाः आपका नाम? उन्होंने मुस्कराते हुए कहाः ‘आपको सच जानना है या नाम?’
उत्तराखंड की दिशाहीन राजनीति को पारंपरिक ढंग और सोच से नहीं बदला जा सकता है। इसके लिए नयी सोच और नयी दृष्टि चाहिए, जो आज किसी प्रमुख दल या समूह के पास नहीं है। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, असमानता, भूमि और जायदाद पर कुछ खास लोगों और समूहों का कब्जा और हर क्षेत्र के निजीकरण से उत्पन्न मुश्किलें किसी भी अन्य राज्य की तरह उत्तराखंड की बड़ी समस्याएं हैं। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों की अपनी कुछ विशिष्ट समस्याएं भी हैं। लोग इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं। पर उन्हें बड़ी पार्टियों से इसकी तनिक भी अपेक्षा नहीं है। धीरे-धीरे उभरती नयी शक्तियों से बहुजन आबादी की आशाएं बढ़ रही हैं। कोई आश्चर्य नहीं, य़ही शक्तियां भविष्य में बदलाव का प्रेरक बनें। ऐसी शक्तियां राज्यव्यापी नहीं हैं पर समाज के अलग-अलग हिस्सों में सक्रिय जरूर हैं। उनकी शक्ति और पहुंच अभी सीमित है पर संभावनाएं अपार हैं।
‘जनचौक’ से साभार