बी.के.जोशी
अभी हाल में अखबारों में प्रकाशित खबर पढ़ने को मिली कि उत्तराखण्ड विधान सभा अध्यक्ष ने प्रदेश की भाषाओं-गढ़वाली, कुमाउनी तथा जौनसारी – के सरंक्षण के लिये विधायकों की एक समिति गठित की है। समाचार में यह उल्लेख नहीं था कि यह समिति इस दायित्व को निभाने के लिये क्या कार्य करेगी। सम्भवतः ये बात तभी प्रकाश में आयेंगी जब समिति अपना कार्य प्रारम्भ करेगी और ठोस कार्य-योजना बनाकर विधान सभा में पेश करेगी।
प्रदेश की भाषाओं के संरक्षण तथा विकास का प्रश्न कोई नई बात नहीं है। पिछले कई वर्षों से इस विषय पर विचार विमर्श व चिन्तन किया जा रहा है। सरकार की ओर से भी इस दिशा में प्रयास किये गए हैं जिसके अधीन गढ़वाली, कुमाउनी तथा जौनसारी के विकास, संरक्षण, प्रचार व प्रसार के लिये उत्तराखण्ड भाषा संस्थान की स्थापना की गई है; वही संस्कृत, हिन्दी, पंजाबी और उर्दू के लिये पृथक अकादमी बनाई गई हैं। भाषा संस्थान के माध्यम से स्थानीय भाषाओं के विकास व संवर्द्धन के लिये क्या किया जा रहा है, इस बारे में जानकारी नहीं है। बहरहाल, आशा की जाती है कि भाषा संस्थान के माघ्यम से उत्तराखण्ड की लोक भाषाओं के विकास व संवर्द्धन कार्य को आने वाले दिनों में गति मिलेगी।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि प्रस्तावित विधान सभा की लोक भाषा समिति का कार्य किस प्रकार भाषा संस्थान के कार्य से भिन्न होगा। क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले वर्षों में विधान सभा में हिन्दी के अतिरिक्त गढ़वाली, कुमाउनी तथा जौनसारी का भी समान रूप से प्रयोग होगा? ये कोई कठिन या असम्भव बात नहीं है। इसकी सफलता के लिये विधान सभा सदन में समकालिक अनुवाद प्रणाली ;(simultaneous translation system) जैसा कि लोक सभा व राज्य सभा में है, स्थापित करना होगा। साथ में तीनों भाषाओं के कुशल अनुवादकों की भी आवश्यकता होगी। साथ में आज उपलब्ध नई सूचना प्रौद्योगिकी जैसे मशीन द्वारा अनुवाद प्रणाली, के बारे में भी विचार किया जा सकता है। यदि ऐसा किया जाता है तो यह अपने आप में न केवल एक क्रान्तिकारी कदम होगा, बल्कि प्रदेश की लोक भाषाओं के संरक्षण व विकास की दिशा में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण बात होगी।
इससे जो सन्देश समाज में जायेगा उससे निश्चित रूप से लोगों को अपनी भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग करने के लिये प्रेरणा मिलेगी। अभी लोगों के मन में सम्भवतः यह धारणा बैठी हुई है कि अपनी मातृ भाषा का प्रयोग घर-आंगन में, इष्ट-मित्रों के बीच तथा आस-पड़ोस व हाट-बाज़ार तक ही उचित है। अन्य कार्यों के लिये, जैसे-सरकारी कामकाज, औपचारिक कार्यों व बातचीत, गम्भीर चर्चा आदि के लिये हिन्दी के प्रयोग को ही उचित समझा जाता है।
यदि विधान सभा में लोक भाषाओं के माध्यम से भाषण व बहस होने लगे तो बहुत हद तक लोगों के अन्दर से अपनी भाषा के प्रति झिझक और हीन भावना स्वतः समाप्त हो जायेगी।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यदि हम अपनी लोक भाषाओं के सरंक्षण व विकास पर समय रहते हुए ध्यान नहीं देंगे तो कुछ समय बाद वह विलुप्त भी हो सकती है। भाषा का विलुप्त होना कोई अभूतपूर्व बात नहीं है। वैश्विक स्तर पर देखें ते पिछले दशक में ही उन्नीस भाषाएँ विलुप्त हो गई हैं। विलुप्ति का अर्थ है कि भाषा बोलने वाला कोई भी नहीं बचा है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक 90 प्रतिशत भाषाएँ विलुप्त हो सकती हैं। यूनैस्को द्वारा विश्व की संकट ग्रस्त भाषाओं की सूची तैयार की गई है। इसमें
संकटग्रस्त भाषाओं को 4 श्रेणियों में विभाजित किया गया है: संकटग्रस्त या असुरक्षित ;(vulnerable), निश्चित रूप से खतरे में ;(definitely endangered), अत्यन्त खतरे में ;(severely endangered), तथा गंभीर खतरे में ; (erilically endangered)। इस सूची में गढ़वाली और कुमाउनी को संकटग्रस्त या असुरक्षित श्रेणी में रखा गया है जिसका आशय है कि अधिकांश बच्चे यह भाषा बोल सकते हैं, लेकिन उसका प्रयोग कुछ खास जगहों पर ही, जैसे घर आदि में करते हैं। जौनसारी को निश्चित रूप से खतरे में माना गया है जिसका अर्थ है कि बच्चे इसका प्रयोग मातृ भाषा के रूप में नहीं कर रहे हैं । इससे यह बात तो स्पष्ट है कि उत्तराखण्ड की इन तीन लोक भाषाओं के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इन्हें यदि विलुप्ति से बचाना है तो निश्चित तौर पर कारगर कदम उठाने होंगे। इस मायने में विधान सभा अध्यक्ष की यह पहल स्वागत योग्य है।
यहाँ पर यह उल्लेख करना उचित होगा कि 11-13 अक्टूबर, 2018 में दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र की ओर से अल्मोड़ा में मध्य तथा पश्चिमी हिमालय की संकटग्रस्त भाषाएँ विषय पर एक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। इस संगोष्ठी में भारत, विशेषकर उत्तराखण्ड, के विद्वानों के अतिरिक्त, नेपाल, रूस, नार्वे व पोलैण्ड के विद्वानों ने प्रतिभाग किया। संगोष्ठी में मध्य तथा पश्चिमी हिमालय की संकटग्रस्त भाषाओं के प्रश्नों पर विस्तार से चर्चा की गई तथा संकटग्रस्ता के कारणों व संरक्षण पर महत्वपूर्ण सुझाव विद्वानों द्वारा दिये गये। संगोष्ठी में प्रस्तुत पत्रों व विचारों को दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र के तत्वावधान में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक का सम्पादन दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र के डा. बी.के.जोशी व प्रो. महेश्वर प्रसाद जोशी तथा नेपाल के प्रो. माधव पोखरेल द्वारा किया गया है।
इसी क्रम में दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र ने लखनऊ स्थित Society of Endangered Languages (संकटग्रस्त भाषा समाज) की आठवीं वार्षिक संगोष्ठी (21-22 फरवरी, 2020) को देहरादून में आयोजित करने में सहयोग किया। इस अवसर पर इस विषय से सम्बन्धित दो पुस्तकों का लोकार्पण भी किया गया (1) उपर उल्लखित अल्मोड़ा संगोष्ठी पर आधारित पुस्तक, तथा (2) लखनऊ विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान की विभागाध्यक्ष प्रो. कविता रस्तोगी द्वारा संकलित राजी भाषा का द्विभाषी (हिन्दी-अंग्रेजी) शब्दकोश। यह दोनों पुस्तकें दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र तथा देहरादून स्थित प्रकाशक विशन सिंह महेन्द्रपाल सिंह द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित की गई हैं। उल्लेखनीय है कि राजी उत्तराखण्ड में पिथौरागढ़ जिले के एक सीमित क्षेत्र के जंगली इलाके में रहने वाली राजी-जनजाति की भाषा है। यह भाषा अब विलुप्ति के कगार पर है क्योंकि इसे जानने व बोलने वालों की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है और अब बहुत थोड़े लोग ही इसका प्रयोग करते हैं। अतएव यह शब्दकोश राजी-भाषा के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है। राजी जनजाति नेपाल में भी वास करती है, जो राउते नाम से जानी जाती है। नेपाली विद्वानों के अनुसार राउते भाषा पर भी विलुप्ति का संकट विद्यमान है।
संकटग्रस्त भाषाओं का संरक्षण करने से पहले यह जानना जरूरी है कि संकटग्रस्तता या विलुप्ति के पीछे क्या कारण है। यदि हम उत्तराखण्ड की भाषाओं की बात करें तो सम्भवतः इनके विलुप्ति होने के पीछे एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि यहाँ बहुत लम्बे समय से हिन्दी का प्रचलन रहा है चाहे वह शिक्षा के माध्यम के रूप में हो या रोजमर्रा की जिन्दगी में अथवा सरकारी कामकाज में। उत्तराखण्ड में हिन्दी के प्रचलन तथा इसके प्रति लोगों में आकर्षण का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इस क्षेत्र ने हिन्दी साहित्य जगत को अनेक प्रसिद्ध उपन्यासकार, कथाकार, कवि व लेखक दिये हैं।
हाल के वर्षों में अंग्रेजी के प्रति भी लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है। हिन्दी और अंग्रेजी के प्रचलन के पीछे सीधा-सीधा कारण यह है कि हिन्दी और अंग्रेजी की जानकारी से रोजगार व आजीविका के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं जो स्थानीय लोक भाषाओं से प्राप्त नहीं होते। लोक भाषाओं का दायरा घर अथवा गाँव-मोहल्ले तक ही सीमित रह जाता है और जैसे-जैसे लोग बाहरी जीवन व वातावरण से जुड़ते जाते हैं, वैसे-वैसे लोक भाषा का प्रयोग भी कम होता जाता है। सबसे पहले इसका असर बच्चों में देखने को मिलता है जब माँ-बाप बच्चों से अपनी भाषा में बात करना बन्द करके हिन्दी या अंग्रेजी में बात करने लगते हैं। दूसरे चरण में यही बात वयस्कों तक पहुँच जाती है और इसके आगे विलुप्ति का खतरा पैदा हो जाता है। इस प्रक्रिया को गढ़वाली, कुमाउनी तथा जौनसारी भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
हिन्दी को प्राप्त वरीयता का प्रभाव स्थानीय लोक भाषाओं के हिन्दीकरण में भी देखा जा सकता है। यहाँ कुछ उदाहरण मैं कुमाउनी भाषा से दे रहा हूँ- क्योंकि मैं इससे थोड़ा बहुत परिचित हूँ ; बचपन से घर-परिवार में बोलता आ रहा हूँ। शहरों के नाम ही लें – कोई भी कुमाउनी भाषी इन शहरों को अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत, हल्द्वानी, द्वाराहाट आदि इन नामों से नहीं पुकारता। स्थानीय भाषा में ये अल्माड़, नैनताल, राणिखेत, हल्द्वाणि, द्वारहाट आदि कहलाते हैं। वर्तमान में जिन नामों का आम प्रचलन है, चाहे वह हिन्दी के अथवा अंग्रेजी में, वह वास्तव में मूल कुमाउनी नामों का हिन्दीकरण ही कहलाया जाएगा। वैसे कहने को तो यह बात खास महत्व नहीं रखती। यदि हम हिन्दी का प्रयोग करते समय अल्मोड़ा कहें और कुमाउनी के प्रयोग पर अल्माड़ कहें तो स्वतः ही समस्या का सर्वमान्य हल निकल जाता है, परन्तु ऐसा नहीं है। हाल के वर्षों में हमने देश के कुछ प्रमुख शहरों के नामों में परिवर्तन होते देखा है। बम्बई अब मुम्बई कहलाता है, कलकत्ता कोलकाता हो गया है, मद्रास चैन्नई हो गया है, बंगलौर, मैसूर तथा मैंगलोर का नाम अब क्रमशः बैंगालूरु, मैसूरु तथा मेंगालूरु में परिवर्तित हो गया है। इस परिवर्तन से इन शहरों के नाम स्थानीय उच्चारण के समान हो गए हैं। क्यों न यही परिपाटी कुमाऊँ के शहरों के नामों के विषय में अपनाई जाये। ऐसा करने से स्थानीय भाषा की स्वीकार्यता को काफी बल मिलेगा तथा भाषा के संरक्षण व विकास को एक नई दिशा भी मिलेगी। यही बात गढ़वाली तथा जौनसारी पर भी लागू होती है।
इस काम को आगे बढ़ाने के लिये जरूरी है कि प्रदेश के साहित्यकार तथा भाषाविद जिनको गढ़वाली, कुमाउनी तथा जौनसारी का अच्छा ज्ञान है पहल करें। उत्तराखण्ड भाषा संस्थान को इस कार्य में प्रमुखता से नेतृत्व करना चाहिये। यहाँ यह कहना उचित होगा कि हाल के वर्षों में कुछ विद्वानों द्वारा उत्तराखण्ड की लोक भाषाओं के शब्दकोश संकलित कर प्रकाशित किये हैं। एक गढ़वाली भाषा का शब्दकोश स्व. भगवती प्रसाद नौटियाल द्वारा तथा एक गढ़वाली-कुमाउनी-जौनसारी शब्दकोश डा. अचलानन्द जखमोला द्वारा संकलित किया गया है। जिसके प्रकाशन में भी दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र का भी सहयोग तथा योगदान रहा है। इस सन्दर्भ में दून पुस्तकालय एवम् शोध केन्द्र द्वारा भी समय-समय पर कुछ प्रमुख भाषाविदों के पुस्तकों का प्रकाशन कर इस दिशा में कुछ प्रयास किये गये हैं इनमें प्रमुख हैं- (1) उत्तराखण्ड की लोक भाषाएं: गढ़वाली, कुमाउनी और जौनसारी, लेखक- डा. अचलानंद जखमोला, वर्ष 2013 (2) अपणी बोली अपणी भाषा: कुमाउनी-गढ़वाली, लेखक – श्री शंकर सिंह भाटिया, वर्ष 2015 (3) संक्षिप्त लोकोक्ति कोशः गढ़वाली, कुमाउनी, अंग्रेजी लेखक – श्री भगवती प्रसाद नौटियाल, वर्ष 2016 (4) गढ़वाली मांगळ, संकलन- शान्ति प्रसाद जिज्ञासु, वर्ष 2019। इसके साथ ही 4 जुलाई, 2015 को दून पुस्तकालय एवम् शोध द्वारा उत्तराखण्ड सचिवालय के मीडिया सेण्टर में ‘अपनी बोली उपेक्षित क्यों?’ इस विषय पर एक परिचर्चा भी आयोजित की गयी।
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम अपनी लोक भाषाओं का संरक्षण व विकास करने के साथ-साथ उनको विलुप्ति से बचाना चाहते हैं, तो हमें सम्मिलित रूप से मिलजुल कर गम्भीर प्रयास करने होंगे तथा इन भाषाओं का आम जीवन में प्रयोग को प्रोत्साहित करना होगा।